काव्यहेतु
काव्य हेतु किसी कवि की वह शक्ति है जिससे वह काव्य रचना में समर्थ होता है। इसके अंतर्गत काव्य-सृजन की विविध प्रक्रियाओं का विवेचन किया जाता है। काव्य हेतु में 'हेतु' का अर्थ 'कारण' होता है, अतः इसे काव्य रचना का कारण भी कह सकते हैं। काव्य हेतु को 'काव्य कारण' कहने की भी परंपरा रही है। आचार्य वामन ने काव्य हेतु की जगह 'काव्यांग' शब्द का प्रयोग किया है। मुख्यतः काव्य के तीन हेतु माने गए हैं - प्रतिभा, व्युत्पत्ति (निपुणता) और अभ्यास। भट्टतौत कवि की नवोन्मेषशालिनी बुद्धि (innovative mind) को प्रतिभा कहते हैं — 'प्रज्ञा नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता'। अभिनवगुप्त के अनुसार अपूर्व वस्तु के निर्माण में सक्षम बुद्धि ही प्रतिभा है — 'प्रतिभा अपूर्व वस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा'। इसके कारण कवि नवीन अर्थ से युक्त प्रसन्न पदावली की रचना करता है। व्युत्पत्ति बहुज्ञता अथवा निपुणता को कहते हैं। शास्त्र तथा काव्य के साथ लोकव्यवहार का गहन पर्यालोचन करने के पश्चात कवि में यह गुण समाहित होता है। काव्य रचना की बारंबार आवृत्ति ही अभ्यास है। इसके कारण कवि की रचना परिपक्व और ऊर्जस्वित होती जाती है।
संस्कृत आचार्यों के मत -
संस्कृत में काव्य रचना अत्यंत प्राचीन काल से होने लगी थी। पर काव्य हेतु के विश्लेषण का सर्वप्रथम प्रयास आचार्य भामह का माना जाता है।
अर्थात् गुरू के उपदेश से जड़ बुद्धि वाले के लिए भी शास्त्र अध्ययन करने के लिए सुलभ हो जाता है या उतना ही पर्याप्त होता है। लेकिन काव्य सृजन तो किसी प्रतिभावान की प्रतिभा से ही उत्पन्न होता है। बिना प्रतिभा के कोई भी काव्य रचना में समर्थ नहीं हो सकता है। आगे भामह ने प्रतिभा के परिष्कार और पोषण के लिए काव्य रचना के पहले कवि को यह निर्देश दिया है कि विधिवत् शब्द और अर्थ का निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। इसके लिए उसे शास्त्र ज्ञान, कोशगत अर्थ की जानकारी, छंदशास्त्र, व्याकरण और अपने से पहले के श्रेष्ठ कवियों की रचनाओं का भली भाँति अनुशीलन करना चाहिए, जिससे उसके द्वारा रचित काव्य न केवल सरसता व निर्दोषता से युक्त हो बल्कि उसकी रचना में नवीनता और अपूर्वता के गुण भी समाहित होते हैं।
आचार्य दंडी ने केवल प्रतिभा को ही काव्य हेतु के रूप में स्वीकार नहीं किया,बल्कि व्युत्पत्ति और अभ्यास को भी अनिवार्य माना है। दंडी प्रतिभा को जन्मजात और आवश्यक गुणों से युक्त मानते है। पर दंडी के अनुसार प्रतिभा के अभाव में व्युत्पत्ति एवं अभ्यास द्वारा काव्य सृजन हो सकता है। सरस्वती उपासना एवं अनवरत प्रयत्नों द्वारा काव्य सृजन संभव है।दंडी के अनुसार काव्यहेतु -
अर्थात् यहाँ पर दण्डी काव्य के प्रमुख हेतुओं पर प्रकाश डालते हुए बताते हैं कि काव्य सम्पदा के कारणों में नैसर्गिक प्रतिभा, बहुत सारे शास्त्रों को सुनने से प्राप्त निर्मल बुद्धि और निरन्तर तीव्र अभ्यास आते हैं। काव्य रचना के लिए केवल प्रतिभा से कार्य नहीं होता बल्कि उसके साथ साथ अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं व शास्त्रों के सुनने-पढ़ने से उत्पन्न निर्मल बुद्धि की भी जरूरत होती है। काव्य सृजन के विविध प्रकारों और पद्धतियों की जानकारी के बिना उचित रूप में अभ्यास करने में कवि की प्रतिभा सफल नहीं हो सकती है। प्रतिभा के साथ निर्मल बुद्धि की आवश्यकता पर बल देने का कारण यह है कि यदि कवि की बुद्धि शुद्ध नहीं है तो वह अपनी प्रतिभा का दुरूपयोग भी कर सकता है या उसके भटकाव की भी संभावना हो सकती है। प्रतिभा का सही ढंग से उपयोग निर्मल बुद्धि ही कर सकती है। उदात्त और श्रेष्ठ कवि का अन्तःकरण अत्यधिक मात्रा में सत्व सम्पन्न या शुद्ध होता है। जिसके कारण वह अभ्यास में तीव्रगामी होता है और शीघ्र ही उत्तम कोटि के काव्य सृजन का सामर्थ्य हासिल कर लेता है
आचार्य वामन ने दंडी और भामह के मतों को सामने रखकर ही अपना मत निर्धारित किया है। अध्ययन, मनन, प्रयत्न, अभ्यास, काव्य कला के मर्मज्ञों से ज्ञान प्राप्त करना, अपनी ही रचनाओं की आलोचना, समीक्षा करना आदि को काव्य हेतु के रूप में स्वीकारा है। वामन काव्य हेतु को काव्यांग कहते है और क्रमशः लोक, विधा, प्रकीर्ण को काव्यांग मानते है। प्रकीर्ण के अंतर्गत वे छः तत्वों को स्वीकारते है।वामन ने अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकारसूत्रवृति' में काव्य-हेतु के लिए 'काव्यांग' शब्द का प्रयोग किया है। उनके अनुसार लोक, विद्या तथा प्रकीर्ण — ये तीन काव्य निर्माण की क्षमता प्राप्त करने के अंग हैं।
आचार्य रुद्रट ने भी उपरोक्त काव्य हेतुओं को ही माना है। उनके अनुसार प्रतिभा के बल पर कवि में शब्द एवं उनके अर्थ के अवलोकन ही क्षमता आती है। व्युत्पत्ति के बल पर दोषपरिहार और काव्य तत्वों की उपादान शक्ति प्राप्त होती है, तो अभ्यास से काव्य सृजन में निखार आता है। रुद्रट प्रतिभा को ही शक्ति कहते है। आचार्य रुद्रट प्रतिभा के दो भेद मानते है - 1. सहजा 2. उत्पाद्या। जन्मजात प्रतिभा सहजा है, तो अध्ययन-अभ्यास से प्राप्त प्रतिभा उत्पाद्या है।प्रतिभा को जन्मजात गुण मानते हुए इसे प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया गया है — "कवित्त बीजम् प्रतिभानम्" प्रतिभा के अतिरिक्त वे लोकव्यवहार, शास्त्रज्ञान, शब्दकोश आदि की जानकारी को भी काव्य हेतुओं में स्थान देते हैं। ध्यातव्य है कि काव्यांग में वामन ने लोक तथा विद्या के पश्चात ही प्रतिभा को महत्व दिया है।
आचार्य आनंदवर्धन के विवेचन में काव्य हेतुओं की छाया देखी जा सकती है। इन्होंने दो काव्य हेतु स्वीकार किए है- 1. प्रतिभा 2. व्युत्पत्ति। इनका स्पष्ट मत है कि प्रतिभा कवि के कर्म-काव्य की व्युत्पत्ति आदि के अभावजन्य दोषों को भी छिपा लेती है।
आचार्य राजशेखर प्रतिभा और शक्ति को एक ही स्वीकार न कर शक्ति को एक अलग तत्व के रूप में महत्व देते है। बुद्धि के भी वे स्मृति, मति और प्रज्ञा यह तीन भेद मानते है। इनके अनुसार कवियों में प्रतिभा एक तो जन्मजात होती है और दूसरी आहार्या। कवियों के भी दो प्रकार उन्होंने किए है। एक सहज बुद्धिवालें और दूसरे आचार्य बुद्धिवाले। राजशेखर प्रतिभा के दो भेद मानते है।
परवर्ती आचार्यों में केशव मिश्र, हेमचंद्र, पंडितराज जगन्नाथ भी आचार्य भामह की तरह ही प्रतिभा को प्रमुख काव्य हेतु माना है। हेमचंद्र प्रतिभा के सहजा और औपाधिकी यह भेद मानते है। सहजा जन्मजात होती है, तो औपाधिकी कई प्रयत्नों से सिद्ध या प्राप्त होती है। आचार्य वाग्भट्ट भी प्रतिभा को काव्य का मूल हेतु तथा शेष को सहायक-संस्कारक हेतु मानते है। आचार्य जयदेव प्रतिभा को काव्य रचना का मुख्य हेतु और व्युत्पत्ति, अभ्यास को उसका सहायक हेतु मानते है।
इस विवेचन से तो स्पष्ट है कि काव्य सृजन के लिए संस्कृत के इन आचार्यों ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास इन तीनों के स्वरूप का विवेचन किया है। जिसे हम निम्नानुसार देख सकते है।
प्रतिभा -
काव्य हेतुओं में प्रतिभा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। कुछ लोग प्रतिभा को सहज मानते है। मम्मट ने इसे शक्ति, बीज स्वरूप माना है। अभिनव गुप्त ने अपूर्व वस्तुओं के निर्माण की क्षमता रखनेवाली शक्ति को प्रतिभा कहा है। इस प्रतिभा को नवोन्मेषशलिनी भी कहा गया है। अर्थात वह नवीनता की आग्रही होती है। नयी भावनाओं की उद्भावना इसी के द्वारा होती है। वाग्भट्ट और हेमचंद्र इस नवनवोन्मेषशाली प्रज्ञा को प्रतिभा कहते है। तो आचार्य अभिनवगुप्त अपूर्व वस्तुनिर्माणक्षम प्रज्ञा को प्रतिभा कहते है।
व्युत्पत्ति
मम्मट व्युत्पत्ति को निपुणता कहते है। 'लोकशास्त्र काव्याद्यााविक्षणाव्' अर्थात यह संसार के निरीक्षण से, नया काव्य और शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त होती है। कुछ आचार्योंंने व्युत्पत्ति का अर्थ बहुलता से लिया है। बहुलता का तात्पर्य व्यापक ज्ञान से है। इनमें शास्त्रों का निरीक्षण, व्याकरण का अध्ययन, संसार का सम्यक ज्ञान अपेक्षित है। दंडी व्युत्पत्ति को श्रुत कहते है। लोक निरीक्षण सेे तात्पर्य चलाचल सृष्टि के उपादानों तथा क्रियाकलापों से है। शास्त्रों के अंतर्गत सामाजिक, धार्मिक तथा कला विषयक शास्त्रों का अध्ययन तथा काव्यादि के अंतर्गत काव्य तथा अन्य कलाओं का अध्ययन आता हे।
अभ्यास
काव्य रचना का पुनः पुनः प्रयास अभ्यास कहलाता है। निरंतर अभ्यास काव्य रचना के शिल्पगत सौष्ठव में वृद्धि करता है। अभ्यास काव्य के बाह्यागों को सुघड़, आकर्षक तथा निर्दोष बनाने में सहायक होता है।
अर्थात कह सकते हैं कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और निपुणता का मणिकांचन संयोग काव्य हेतु में सहायक होता है।
आधुनिक भारतीय विद्वानों के मत
हिंदी के आचार्यों ने काव्यहेतुओं के वर्णन में कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। वे प्राय: संस्कृत और पाश्चात्य आचार्यों के मतों के घेरे में ही सीमित रहे हैं। रीति काल के आचार्यों ने संस्कृत काव्यशास्त्र को आधार बनाकर अपनी मान्यताएं दी है। आचार्य भिखारीदास के अनुसार प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास ही काव्य हेतु है। इन तीनों का सहयोग काव्य को 'मन रोचक' बना देता है।
आधुनिक हिंदी के विद्वानों में सर्वप्रथम मत डॉ. भगीरथ मिश्र का लिया जा सकता है। काव्य हेतु के पीछे वे दो कारणों को स्वीकार करते हैं - निमित्त कारण और उपादान कारण। इन्हीं को प्रेरक कारण भी कहा गया है। वे कहते है - "कवि की सामाजिक, पारिवारिक या वैयक्तिक परिस्थितियां तो उसकी प्रकृति है। जिससे उसे काव्यरचना की प्रेरणा प्राप्त होती है। जिसके अभाव में या तो काव्यरचना बिल्कुल नहीं होती अथवा होती भी है तो किसी अन्य रूप में।"
उपादान कारण के स्वरूप पर वे कहते है - "लोकशास्त्र का व्यापक ज्ञान सत्संग, श्रवण, मनन और अभ्यास के रूप में होता है। "
डॉ.गोविन्द त्रिगुणायत मनुष्य की मननशीलता को प्रमुख काव्य हेतु मानते है। उनके अनुसार - "मननशील मानव मन जब सांसारिक वस्तुओं के संपर्क में आता है, तब व्यक्तिगत प्रकृति के अनुसार कुछ वस्तुओं को देखकर उसमें तन्मय हो जाता है। कुछ वस्तुओं के प्रति उसके हृदय में जिज्ञासा उत्पन होती हैं और कुछ के प्रति वह भयभीत होता है। तन्मयप्रधान मननशीलता ही साहित्य की जननी है। "
डॉ.नगेंद्र भी प्रतिभा, व्युत्पति और अभ्यास के साथ आत्माभिव्यक्ति को काव्य हेतु के रूप में स्वीकारते है।
पाश्यात्य विद्वानों के मत -
पाश्यात्य साहित्य एवं काव्यशास्त्र में कहावत प्रसिद्ध है - " Poets are born and not made." अर्थात कवि उत्पन्न होते है, बनाये नहीं जाते। पाश्यात्य विद्वानों ने भी किसी न किसी रूप में प्रतिभा, व्युत्पति और अभ्यास को ही साहित्य हेतु स्वीकार किया है।
इस संबंध में सुकरांत ने अपने मत रखते हुए स्पष्ट किया है - "कविगण कविता इसलिए नहीं रचते कि वे बुद्धिमान हुआ करते है। वे इस कारण कविता रचते है कि उनमें एक विशेष प्रकृति अथवा प्रतिभा रहा करती है। जिससे उन्हें उत्साह मिला करता है।
प्लेटो कवि हृदय का होते हुए भी उसे काव्य और कला के प्रति कोई विशेष सम्मान नहीं था। इसी कारण उसने काव्य की उत्पत्ति मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में स्वीकार की है।
अरस्तु प्लेटो के दैवी प्रेरणा वाले सिद्धांतों को अस्वीकार कर काव्य प्रवृत्ति को मानव स्वभाव के साथ बद्ध करते है। अनुकरण की प्रवृत्ति को वह काव्य का मुख्य हेतु मानते हैं और संगीत, लय आदि को इसके उपक्रम।
नाट्यशास्त्र वादी जॉन ड्राइडन तथा जॉन्सन ने प्रतिभा को अधिक महत्व दिया है। स्वच्छंदतावादी विद्वानों ने कल्पना तथा भाव को अधिक महत्व दिया है।
लोकमंगल वादी विद्वानों ने ज्ञान और विवेक पर बल दिया है। कलावादी रचनाकार प्रतिभा को निरंकुश काव्य हेतु स्वीकार करते है।
मार्क्सवादी मान्यता के अनुसार शोषण से मुक्ति की कामना साहित्य की वृत्ति है। मनोविज्ञानवादी फ्रायड कला को काम से प्रेरित मानते है। उनके अनुसार काव्य सृजन से कामवासना तृप्त होती है। क्रोचे आत्माभिव्यक्ति को काव्य सृजन की प्रेरणा मानते है। कॉलरिज कवि के लिए प्रतिभा को अनिवार्य मानते है।
इस तरह भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों द्वारा बताए गए काव्य हेतुओं को देखा जा सकता है।