पूरे देश में कन्या पूजन का माहौल है, विजयोत्सव का माहौल है पर एक वर्ग (पुरूष और प्रशासन)अब भी अपने दंभ में दमन का हिमायती है। वह अपने दंभ के चलते कपड़ों के भीतर झाँकने से भी गुरेज नहीं करता, प्रश्न कौंधता है कि क्या यही है हमारी सनातन संस्कृति? शक्ति के नौ दिन, इन दिनों में एक ओर जहाँ जन समुदाय स्त्री को कंजकों के रूप में पूजकर देवी बनाने को आमादा है, वहीं दूसरी ओर कुत्सित, सड़ा-गला सामाजिक ताना-बाना उसे अब भी महज वस्तु के तौर पर देखने का अभ्यस्त। क्या हमें हमारे इस दोहरे आचरण पर शर्म नहीं आती। हम स्वयं को आर्य संताने कहते हैं और क्रूरता, दमन और निरंकुश हरकतों पर चुप्पी ओढ़ कर बैठते हैं। हम आठ दिन नाना अवतारों पर इतनी उछलकूद करते हैं और बाहर उसी तथाकथित देवी पर फिकरे कसते दिखाई देते हैं। दोष हमारी सड़-गल चुकी सामाजिक व्यवस्था का है। अगर आमजन चेतस हो तो प्रशासन की हिमाकत ही क्या कि वो लड़की के गिरेबां पर हाथ डालने वाले को बख्श दे। बहरहाल, तरह-तरह की कालिखों से लिपटी हुई तरह-तरह की अफवाहों से बाज़ार गरम है और मीडिया बीएचयू प्रकरण पर नितांत सुस्त, सुन्न।
राजनीति की विस्तृत और वर्चस्ववादी अवधारणा में नारें, जुमले, आश्वासन केवल और केवल दिखावटी टापू हैं, जिन पर ठहर कुछ देर राजनेता सुस्ता लेते हैं और फिर चल देते हैं, अपनी दोषपूर्ण और खोखली नीतियों पर। इसी बात का गवाह है काशी हिंदू विश्वविद्यालय का हालिया प्रकरण। वहाँ सैंकड़ों की संख्या में लड़कियाँ लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलनरत हैं । वे लड़कियाँ जिन्हें परचम उठाते देखने का समाज आदी नहीं है। एक लड़की के साथ कुछ मनचले बदतमीजी करते हैं, उसके कपड़ों पर हाथ डालते हैं। वह लड़की शिकायत करती है पर उसकी शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं होती, बल्कि उस लड़की को ही समय पर आने-जाने, सलीके से पहनने-ओढ़ने की नसीहत दी जाती है। ये बातें, बंदिशें क्या किसी सामंती युग की नहीं प्रतीत होती? छेड़छाड़ और बलात् प्रसंगों को लेकर लड़कियों के मन में आक्रोश है औऱ वे सुरक्षा की वाज़िब सी माँग को लेकर घरने पर बैठी हैं। उनकी माँगों में रात को सुरक्षा अधिकारी की नियुक्ति, छेड़छाड़ की घटनाओं पर रोक, पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था की माँग, सीसीटीवी कैमरों की माँग और आपत्तिजनक हरकतों पर कड़ी कार्रवाई जैसी बुनियादी माँगे शामिल है। अगर यह माँगें सही है तो, इनमें राष्ट्रीयता जैसी व्यापक अवधारणाओं को खतरें में देखना नितांत एकांगी सोच का परिचय है। जहाँ एक ओर सरकारें बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ औऱ सेल्फी विद डॉटर जैसे अभियानों से बेटी की सुरक्षा सुनिश्चित कर रही हैं, उसे मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर रही हैं, वहीं प्रशासन का इन बुनियादी माँगों को मानने में क्या आपत्ति है, समझ से परे है। बेटियाँ बैखोफ़ जीने का अधिकार माँग रही हैं, इस हेतु वे प्रशासन से संपर्क साधने की कोशिश करती है, उनसे मदद की गुहार लगाती है, जब माँग नहीं सुनी जाती है तो महामहिम के गुजरने वाले रास्ते पर धरना देती है, पर वे भी अपना रास्ता बदल देते हैं। आधी रात को प्रशासन उन पर लाठियाँ भाँजता है, बेरहमी से पीटता है और उनके प्रतिरोध को नेस्तनाबूद कर देना चाहता है। क्या यह अहं और दमन की नीति का हिस्सा नहीं है? और उससे भी क्रूर है, इसे सत्ताविरोधी समझ राजनीतिक रंग देने की कोशिश करना।
एक वर्ग इन माँगों को वामपंथी या नक्सली हरक़त करार देता है, मुद्दा देशद्रोही और राष्ट्रद्रोही का भी बनता दिखता है,तो सीधा सवाल उसी वर्ग से बनता है कि लड़कियों को छेड़ना, उनके सामने अपने अंगों की नुमाइश करना , उनके कपड़ों पर हाथ डालना क्या राष्ट्रवादी हरकत है। चिंता का विषय है कि हम उस समय में रह रहे हैं, जहाँ शब्द उनके अर्थ खो चुके हैं या फिर बेहद संकुचित हो गए हैं। दुखद यह है कि इस ज़रूरी मुद्दे पर भी पक्ष-विपक्ष के लोग राजनीति करेंगें। मुद्दे को प्रायोजित बताकर उसे जड़ से ही समाप्त कर देंगे। मगर इन सबसे इतर उस सच की साक्षी तो वे और सिर्फ वे लड़कियाँ ही हैं , जो इस पीड़ा को अमूमन रोज देखती-भोगती है। क्या यह अफ़सोसजनक नहीं है कि एक विश्वविद्यालय को जो कार्य अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी से स्वाभाविक संज्ञान लेकर करने थे , उसके लिए लड़कियों को आंदोलन करना पड़ रहा है। जब एक नामी और साहित्य का गढ़ रहे विश्वविद्यालय में यह सब घट रहा है तो किसी आम संस्थान की तो बिसात ही क्या।
बहरहाल बी.एच.यू हो या अन्य कोई भी संस्थान या स्थान ,समाज में स्त्रियों के लिए हर प्रकार का उत्पीड़न होता रहा है। कोई भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ लड़कियाँ चुभती और तरेरती नज़रों से नहीं गुजरती।बीएचयू के जिस छात्रावास की बात कही जा रही है, कहा जा रहा है, वहाँ नियम बहुत कड़े हैं। वहाँ सूर्यास्त से पहले ही दिन बीत जाता है। लड़कियों के साथ यह अमानवीय व्यवहार और तरह-तरह की बंदिशें क्या किसी आदिम युग की निशानी नहीं है। क्या राजनीति के नाम पर इंसान, इंसान को ही नहीं लील रहा है।अफ़सोस कि एक वर्ग दूसरे को काटता हुआ जाने कौनसी डगर पर बढ़ता हुआ उसे नीचे दिखाने की होड़ में उल-जलूल तर्क दिए जा रहा है। प्रतिरोध करना, प्रतिरोध की आवाज़ का समर्थन करना क्या राष्ट्रद्रोह है। बुनियादी अधिकारों और सुरक्षा की माँग करना क्या प्रायोजित माँग है। क्या एक वर्ग विशेष को तमाम अधिकार केवल पुरूष होने के नाते यह कहकर दिया जा सकता है कि, ‘लड़के हैं तो ऐसा तो करेंगे ही।’
दरअसल स्त्री के मामले में समाज अब भी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। सामंती मानसिकता की जड़े समाज में इतनी गहरी है कि वे उसके द्वारा उठाए गए परचम के भी परखच्चे उठाने पर विश्वास रखती हैं। अगर स्त्री सफल है तो चरित्र हनन, अगर स्त्री मुखर है तो चरित्र हनन, अगर स्त्री अन्याय का विरोध कर रही है तो चरित्र हनन औऱ वाज़िब माँग कर रही है तो दमन! कितना आसान है ना स्त्री के चरित्र पर उँगली उठा देना, उसके प्रतिरोध का दमन करना। गोया कि वह केवल देह भर है,वस्तु भर है... अपनी बात कही नहीं कि उसे गालियों से और उसके बंधनों को कुछ ओऱ कस कर, उसका दमन कर दिया जाए। गौरतलब है कि बीएचयू में एक अरसे से मध्ययुगीन आचरण बना हुआ है। वे क्या खाएँ, क्या पहने इन सबका निर्धारण वार्डन तय करती हैं। महिला छात्रावास एक तरह से जेल बने हुए हैं। इसी वातावरण की खींच-तान और आए दिन होने वाले छेड़-छाड़ ही इस आंदोलन का हेतु है।
सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ ये घटनाएँ हमारी राजनीति का मंतव्य भी जाहिर करती हैं। जाहिर बातिन में अति तेज उक्ति को चरितार्थ करते राजनेता हर मुद्दे पर अपनी रोटियाँ सेकना चाहते हैं। किसी की अस्मिता के साथ खिलवाड़ हो तो वे उस अस्मिता को न्याय दिलाने हेतु नहीं वरन् उस अस्मिता से जुड़े धर्म को लेकर आवाज़ उठाएँगें। वे समतावादी नजरिए से नहीं, वरन् दलित, गैर दलित, हिन्दू, अहिन्दू और स्त्री , पुरूष में बाँट कर ही समाज को देखना चाहते हैं। सामाजिक जकड़नों को देखें तो कहीं भी ये कम नज़र नहीं आती वरन् इनकी तीव्रता और स्त्री के साथ हुए अपराध बढ़ते ही नज़र आते हैं। समाज और राजनीति जब तक संस्कारों और सभ्यता की आड़ में वर्चस्ववादी ताकतों को बढ़ावा देती रहेंगी, तब तक समाज में विषमता की खाई बढ़ती ही जाएगी। क्या सरकारें, समाज और वर्चस्ववादी ताकतें समाज को पंगु नहीं बना रहे हैं। संस्थानों के उच्च पदों पर नियुक्तियाँ, उनकी मानसिकता के चलते ही संदेह के घेरे में नज़र आती हैं। सनद रहे यदि यह तथाकथित राष्ट्रवाद है तो आधी आबादी स्वतः ही धुर राष्ट्रविरोधी हो जाती है, और इसके जिम्मेदार वे ही लोग हैं, जो इन अवधारणाओं के हिमायती। यह सुखद है कि स्त्री अपनी राह खुद ढूँढ रही है, स्खलित होती अवधारणाओं पर अपनी राय ज़ाहिर कर रही है पर समाज, प्रशासन, शिक्षकों और आमजन की गढ़ी गई चुप्पी और यूँ दमन भी एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती हैं कि लिंग विभेदीकरण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर हम कब तक मौन रहेंगे। एक वर्ग के स्वातंत्र्य की बुनियादी अवधारणा और उसके प्रतिरोध को कुचलते रहेंगे। ये मुद्दे यूँही बने रहेंगे अगर समाज चुप रहता है, न्याय के साथ खड़े होने में विश्वास नहीं रखता। ये घटनाएं केवल और केवल तभी थमेंगी जब विचारों में ज्वार आएगा, अन्यथा सोए हुए तो हम सदियों से हैं ही।
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