तिरे माथे पर यह पैराहन खूबसूरत है, पर तू इससे
परचम बना लेती तो बेहतर था, शायद मज़ाज की इस शायरी का ही असर है कि हरियाणा की
लड़कियों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की है। स्त्री आज भी जूझ रही है कहीं
तीन तलाक का मुद्दा है , कहीं मंदिर प्रवेश को लेकर उसके अधिकारों की मांग से धर्म
के तथाकथाथित सिंहगढ़ों की चूलें हिल रही हैं तो कहीं आदिवासी अस्मिता के मामले औऱ
निर्भया सरीखे वाकये उसकी देह पर घात लगाए बैठे हैं । दंगे हो, धर्म हो या राजनीति की सियासत स्त्री की अस्मिता
को तार-तार करने का कोई भी मौका तथाकथित पितृसत्तात्मक मानसिकता द्वारा छोड़ा नहीं
जाता। मुद्दों पर नज़र डाले तो महिला आरक्षण विधेयक जाने कब से लंबित पड़ा है,
स्त्री का गैर सांस्थानिक श्रम किसी भी आंकड़ें से बाहर की विषयवस्तु है, साथ ही संस्थागत
लैंगिक विभेद से भी वह हर क्षण जूझती रहती है।
धरा के
भूगोल के हर चप्पे पर स्त्री के लिए स्थितियाँ कमोबेश एक जैसी ही है। इसीलिए कहा
गया है कि स्त्री का ना कोई देश है , ना
जाति और धर्म। स्त्री अधिकारों को लेकर बहुत सी लड़ाईयाँ लड़ी गई हैं और अभी भी लड़ी जानी बाकी है पर इस बीच जब
लड़कपन की दहलीज़ पर कदम रखती लड़कियाँ
अपने हक औऱ हकूक की बात करती है तो तसल्ली होती है। बात हरियाणा की लाडलियों की है
जो विषम लिंगानुपात के लिए कुख्यात है। प्रधानमंत्री
मोदी एक ओर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ आंदोलन की शुरूआत पानीपत से कर बेटियों की
हौंसलाअफजाई करते हैं वहीं दूसरी ओर रेवाड़ी जैसी घटनाएँ यथास्थिति बयां करती है
कि हालात अब भी क्या और कैसे हैं! हरियाणा
की लड़कियों का एक ओर बता मेरा याद सुदामा रे वीडियो देखकर हर कोई मंत्रमुग्ध होता
है वही इसी अंचल की बालाओं का शिक्षा के लिए जुनुन सभी के लिए आदर्श बन जाता है।
यह उनका जुझारूपन ही है कि वे शिक्षा के लिए अनशन पर बैठकर सरकार की ओर अपना ध्यान
खींच रही है, उन्हें अपने नजरिए से मामलों को देखने की दीठ प्रदान कर रही हैं।
मामला जैसा दिख रहा है, उसके अनुसार हरियाणा के रेवाड़ी के गोठड़ा टप्पा डहीना गाँव की ये
लड़कियाँ अपने विद्यालय को क्रमोन्नत करने की मांग की गुहार राज्य सरकार के समक्ष
रख रही हैं। गौरतलब है कि रेवाड़ी के गोठड़ा टप्पा डहेना गांव की 83 छात्राएँ स्कूल
छोड़कर 10 मई से धरने पर बैठी थीं। इनमें से 13 लड़कियाँ भूख हड़ताल पर थीं। इन
छात्राओं की मांग थी कि उनके गाँव के सरकारी स्कूल को 10 वीं कक्षा से बढ़ाकर 12
वीं तक किया जाए। आंदोलन पूरे देश में सुर्खियाँ और सहानुभूति बटोर चुका था। यह
उनके जुनून का ही नतीजा है कि छात्राओं और उनके अभिभावकों की माँग
स्वीकृत हो गई है और यूँ अनशन भी समाप्त, पर क्या ऐसे अनशन उचित है, या
सरकारें क्या अनशन और धरनों की ही भाषा
समझती है, यह बात बार-बार जेहन में आती
है।
दरअसल सत्ता कई मुद्दों से एक साथ जूझ रही होती
है। ऐसे में आम जन की अनेक समस्याओं की ओर उसका ध्यान नहीं जा पाता। जनसाधारण अपनी
मांग को सरकार के सन्मुख रखने के लिए ऐसे कदम उठाता है जिससे उसकी बात उन कानों तक
पहुँचे, जो अब तक उदासीन रहे हैं। स्त्री मुद्दों को लेकर अतिरिक्त संवेदनशीलता
बरती जानी चाहिए। केवल अभियान चलाने या कि सहायता कोष में राशि देने मात्र से
स्त्री हितों की बात लागू नहीं हो जाती। इस आधी आबादी को जीने के मूलभत अधिकारों
की दरकार है जिन पर सदियों से पितृसत्ता कुंडली मार कर बैठी है। स्त्री बैखोफ होकर
जीना चाहती है, संभवतः यही चाहना ही इस आंदोलन के केन्द्र में भी रही है।
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार गाँव
में 12वीं तक स्कूल नहीं होने के कारण अनेक लड़कियां आगे की
पढ़ाई छोड़ देती हैं. आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें गाँव से 3 किमी. दूर दूसरे गाँव
जाना पड़ता है। यातायात के संसाधनों के अभाव के कारण ये दूरी और अधिक लगने लगती
है। छेड़छाड़ के प्रसंगों का सतत घटना एक भय भी पैदा करता है। ऐसे में छात्राओं द्वारा ऐसी मांग उठाना
काबिलेतारीफ और निहायत जरूरी है।
हालांकि माध्यमिक से उच्च माध्यमिक तक अपग्रेड
करने के लिए छात्रों के नामांकन संबंधी कुछ नियम होते हैं जिनके अभाव में यह मांग
पूरी नहीं की जा सकती। परन्तु सरकार द्वारा झुककर, छात्र हित में में स्कूल
क्रमोन्नत किए जाने का यह फैसला वाकई सराहनीय है। गौरतलब है कि 2016 में रेवाड़ी
जिले में ही स्कूल जाते समय एक छात्रा के साथ बलात्कार होने के बाद, दो गाँवों की सभी
लड़कियों ने स्कूल छोड़ दिया था। पूर्व में भी सरकारों और प्रशासन द्वारा स्कूल
क्रमोन्नत की मांग की गई पर मामला ढाक के तीन पात ही रहा। यही कारण है कि इस बार
बच्चियाँ आर-पार के मूड में थीं।
एक ओर जहाँ सरकारी विद्यालयों में गिरते नामांकन चिंता
का विषय है वहीं दूसरी ओर शिक्षा के अधिकार के लिए ऐसे कदमों का आगे आना उत्साह
पैदा करता है। उत्साहवर्धक है कि राज्य में बीते वर्ष से
लिंगानुपात की दर 834 से 906 में इजाफा
हुआ है। हरियाणा में महिला साक्षरता दर भी
75.4% दर्ज की गई है। लड़कियों के द्वारा अपनी बात को दमदार और
गाँधीवादी तरीके से सामने रखना ये जताता है कि समानीकरण की दिशा में भी वहाँ कुछ
प्रयास हो रहे हैं। समान सुविधा और अवसर उसकी वास्तविक मेधा को परिष्कृत करने में
अहम् भूमिक निभा सकते हैं।
यह सही है कि समाज,
संसद, आर्थिक परिवेश में नारी की सक्रिय उपस्थिति से ही आर्थिक विषमता,
साम्प्रदायिक असहिष्णुता औऱ प्राकृतिक शोषण से गहरे रंगे चित्रों को कुछ हल्का
किया जा सकता है। बात ऋचाओं की करें तो वहाँ भी उल्लेख्य है – ‘श्री वाक्च नरीणां,
स्मृतिमेधा, धृति, क्षमा’ अर्थात् श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धैर्य और क्षमा स्त्री की प्रकृति प्रदत्त शक्तियाँ , क्षमताएँ
हैं। शिक्षा भी उसके उन्हीं अधिकारों और क्षमताओँ में शुमार है, जिससे वंचित करना,
दरअसल उसे उसके मानवीय अधिकारों से वंचित करना है। निःसंदेह छात्राओँ की यह पहल
स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में एक जरूरी हस्तक्षेप है।
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