आखिर क्यों अमानवीयता का शिकार हो रहा है बचपन!
दिसम्बर की सर्द सुबहें कोहरे के आगोश में लिपटी होती हैं। अगर इसी माह में घटती घटनाओं के ज़रिए, हम नज़र हमारे बचपन पर डालें तो यह कोहरा और घना नज़र आता है। कैसी विडम्बना है कि जीवन का स्वर्णिम समय हर पल एक खौंफनाक दंगल को लड़ने हेतु अभिशप्त है। ज़रा अपने बचपन से आज के बचपन की तुलना कीजिए। कितने तनाव औऱ असहजता से भरा है आज का बचपन। आखिर क्यों आज का बचपन छतों और गलियों में मलंग घुमता नज़र नहीं आता। आखिर क्यों दरख़्तों पर चहकते परिंदे अब कफ़स में कैद है ? रोज घटती अमानवीय हरकतें बताती हैं कि बचपन और लड़कियों के लिए समानता की राहें अभी भी आसान नहीं हुई हैं। जो बचपन तमाम वीभत्सताओं से अनजान हुआ करता था आज वही कुंठाओं से त्रस्त है। राजधानी समेत पूरे देश में बच्चों के अपहरण, बलात्कार और दूसरे तरह की आपराधिक घटनाएं कम होने की बज़ाय अनवरत बढ़ रही हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्यों हम अपने बच्चों को एक सुकून भरी बैखौंफ़ जिंदगी नहीं दे सकते? समय अधकचरा है एक औऱ नाबालिग युवा अपराध की राह पकड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर बचपन समाप्त हो रहा है। नन्हें फूल एक अनजाने भय का शिकार हो रहे हैं। लगातार घटती दुष्कर्म और अपहरण की घटनाओं ने बालजीवन की आज़ादी को छीन लिया है। मुंबई में दो नाबालिग बच्चों ने अपने ही पड़ोस में रहने वाली साढ़े तीन साल की मासूम का अपहरण कर उसकी हत्या कर दी। हत्या के बाद इन पड़ोसी किशोरों ने उसके पिता से एक करोड़ की माँग भी की है। यह हत्या खौंफनाक इसलिए भी अधिक है कि दरअसल यह एक विश्वास की हत्या है। दिसम्बर में घटे निर्भया प्रसंग को हम भूला भी नहीं पाते हैं कि कोई और घटना हमारे चेहरे की नमी खींच ले जाती है। नन्हीं सांसें जो आज़ाद घुमा करती थी आज हवस का शिकार हो रही है। साढ़े तीन साल, शायद वह उम्र है जिसमें बच्चा अपने बड़ों पर किसी पेड़ की छाँव सा भरोसा करता है। परन्तु अगर वही छाँव स्याह और कलुषित हो जाए तो अविश्वास के बीज उपजने स्वाभाविक हैं। ये तमाम घटनाएँ बालमन पर अमिट खरौंचें उत्पन्न करती हैं। आज रिश्तों पर और हर निगाह पर प्रश्नचिन्ह हैं, रिपोर्टस और सर्वे भी इन मामलों में करीबियों को ही दोषी ठहराते हैं। किशोर आपाराधिकता के भँवर में फँस रहे हैं। यह प्रवृत्ति निःसंदेह चिंताजनक है। इन तमाम विकृतियों के पोषण में हमारा परिवेश बहुत योगदान देता है। हमारे सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश में आई विकृति का ही नतीज़ा है कि बच्चों में कुत्सित मानसिकता, अधैर्य, बड़ों का अनादर औऱ दुस्साहस की प्रवृत्तियाँ घर कर रही हैं। इंटरनेट, टी.वी., एकाकी सोच, स्वार्थपरता वे तत्व हैं जो हमारे शाश्वत जीवन मूल्यों को रसातल में धकेल रहे हैं। दरअसल आज समयाभाव ने विकृतियों को बढ़ा दिया है। माता-पिता कामकाजी है ऐसे में बच्चों की पाठशाला केवल टी.वी. बन गया है। हतप्रभ करती है यह सोच जब नर्सरी क्लास के बच्चे गर्लफ्रेंड, बॉयफ्रेंड की बातें करते हैं। इनमें शिन-शैन और मशीनी रौबोट्स के उन कार्टून चरित्रों का भी योगदान है, जो बालमन पर अपनी उच्छृंखलता औऱ हिंसा की गहरी छाप छोड़ते हैं। उनके सपनों का फलक सिमट गया है औऱ यह देखकर वाकई पाश याद आ जाते हैं कि, ‘सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’।
आखिर क्या कारण है कि कहीं किशोर अपने ही साथी के साथ अमानवीय व्यवहार कर बैठते हैं तो कभी अपने शिक्षक की ही जान लेने का दुष्कृत्य को कर बैठते हैं। खामियाँ तो वाकई हैं और ये हमारे ही असंतुलित व्यवहार की उपज है। सबसे बड़ा खतरा यह है कि आज का बालमन अकेला है , उसे ठीक से सुनने, समझने का किसी के पास भी वक्त नहीं है। ना घर उनके लिए महफ़ूज है ना ही परिवेश। ऐसे में वह अपनी राहें खुद तलाशता है। अनुभवों से विलग ये कच्चे घड़े इंटरनेट औऱ आभासी जगत की चमकीली दुनिया को ही पूरा सच मान बैठते हैं। इंटरनेट पर तमाम प्रतिबंधित चीज़ें उपलब्ध है। ऐसे में रिश्तों की अहमियत उनके लिए मायने नहीं रखती। सेल्फियों की आत्ममुग्धता के बीच सब अपने आत्म को बिसरा चुके हैं। आत्म का यही बिखराव अनेक सामाजिक विकृतियों को जन्म देता है। यह सच है कि तमाम विकृतियाँ खासकर यौनिक विसंगतियाँ समाज में पूर्व में भी थी परन्तु विगत दशकों में उनका ग्राफ चिंताजनक रूप से बढ़ रहा है। न्यायपालिका की बात करें तो बालकों के संरक्षण के लिए 2012 में ही पोस्को एक्ट क्रियान्वित हो चुका है परन्तु इन दुर्घटनाओं के लगातार घटने के बावजूद भी शिकायत दर्ज़ नहीं हो पाती है । सीधी सी गणित है कि ऐसे तमाम मामलों में जनचेतना की कमी है। यह ठीक है कि बच्चों को गुड टच , बैड टच का ज्ञान तो हम दे रहे हैं परन्तु यह कृत्य करने वालों का ठीक उपचार नहीं कर पा रहे हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि 8 से 15 वर्ष तक के नवकिशोरों में 16 फीसदी से भी अधिक बच्चें दिन भर में पाँच घंटे से अधिक का समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं। यहाँ वे बढ़ती प्रतिस्पर्धा औऱ सौन्दर्य की अंधी होड़ के प्रति इतने आकर्षित हो जाते हैं कि अपने ही हमउम्र साथियों से भी कतराने लगते है। सामान्य होते हुए भी एक अजीब असंगति औऱ हीनता का भाव उनके मन में घर कर जाता है औऱ वे अतिसंवेदनशीलता के शिकार हो जाते हैं। वे तकनीक से तो भर जाते हैं परन्तु भावनात्मक रूप से पूरी तरह खाली हो जाते हैं। सेंटर फॉर एडिक्शन एंड मेंटल हेल्थ,ओंटारियों की सातवीं से लेकर बारहवीं तक के दर्जें के बच्चों पर किये गये सर्वे की रिपोर्ट मायूस करती है कि हमारे बचपन का ईंधन चुक गया है। वे रसहीन जीवन जीने को अभिशप्त हो गये हैं औऱ उसमें सबसे अधिक दोष परिवार की अनदेखी का है। हमें बचपन को अपराधों से बचाने के विचार को हमारी प्राथमिकताओं में शामिल करना होगा अन्यथा भविष्य की इबारत खौंफनाक होगी । बशीर साहेब से माफी के साथ ‘ये सोच लो अब आखिरी साया है बचपन,इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा’।
दिसम्बर की सर्द सुबहें कोहरे के आगोश में लिपटी होती हैं। अगर इसी माह में घटती घटनाओं के ज़रिए, हम नज़र हमारे बचपन पर डालें तो यह कोहरा और घना नज़र आता है। कैसी विडम्बना है कि जीवन का स्वर्णिम समय हर पल एक खौंफनाक दंगल को लड़ने हेतु अभिशप्त है। ज़रा अपने बचपन से आज के बचपन की तुलना कीजिए। कितने तनाव औऱ असहजता से भरा है आज का बचपन। आखिर क्यों आज का बचपन छतों और गलियों में मलंग घुमता नज़र नहीं आता। आखिर क्यों दरख़्तों पर चहकते परिंदे अब कफ़स में कैद है ? रोज घटती अमानवीय हरकतें बताती हैं कि बचपन और लड़कियों के लिए समानता की राहें अभी भी आसान नहीं हुई हैं। जो बचपन तमाम वीभत्सताओं से अनजान हुआ करता था आज वही कुंठाओं से त्रस्त है। राजधानी समेत पूरे देश में बच्चों के अपहरण, बलात्कार और दूसरे तरह की आपराधिक घटनाएं कम होने की बज़ाय अनवरत बढ़ रही हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्यों हम अपने बच्चों को एक सुकून भरी बैखौंफ़ जिंदगी नहीं दे सकते? समय अधकचरा है एक औऱ नाबालिग युवा अपराध की राह पकड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर बचपन समाप्त हो रहा है। नन्हें फूल एक अनजाने भय का शिकार हो रहे हैं। लगातार घटती दुष्कर्म और अपहरण की घटनाओं ने बालजीवन की आज़ादी को छीन लिया है। मुंबई में दो नाबालिग बच्चों ने अपने ही पड़ोस में रहने वाली साढ़े तीन साल की मासूम का अपहरण कर उसकी हत्या कर दी। हत्या के बाद इन पड़ोसी किशोरों ने उसके पिता से एक करोड़ की माँग भी की है। यह हत्या खौंफनाक इसलिए भी अधिक है कि दरअसल यह एक विश्वास की हत्या है। दिसम्बर में घटे निर्भया प्रसंग को हम भूला भी नहीं पाते हैं कि कोई और घटना हमारे चेहरे की नमी खींच ले जाती है। नन्हीं सांसें जो आज़ाद घुमा करती थी आज हवस का शिकार हो रही है। साढ़े तीन साल, शायद वह उम्र है जिसमें बच्चा अपने बड़ों पर किसी पेड़ की छाँव सा भरोसा करता है। परन्तु अगर वही छाँव स्याह और कलुषित हो जाए तो अविश्वास के बीज उपजने स्वाभाविक हैं। ये तमाम घटनाएँ बालमन पर अमिट खरौंचें उत्पन्न करती हैं। आज रिश्तों पर और हर निगाह पर प्रश्नचिन्ह हैं, रिपोर्टस और सर्वे भी इन मामलों में करीबियों को ही दोषी ठहराते हैं। किशोर आपाराधिकता के भँवर में फँस रहे हैं। यह प्रवृत्ति निःसंदेह चिंताजनक है। इन तमाम विकृतियों के पोषण में हमारा परिवेश बहुत योगदान देता है। हमारे सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश में आई विकृति का ही नतीज़ा है कि बच्चों में कुत्सित मानसिकता, अधैर्य, बड़ों का अनादर औऱ दुस्साहस की प्रवृत्तियाँ घर कर रही हैं। इंटरनेट, टी.वी., एकाकी सोच, स्वार्थपरता वे तत्व हैं जो हमारे शाश्वत जीवन मूल्यों को रसातल में धकेल रहे हैं। दरअसल आज समयाभाव ने विकृतियों को बढ़ा दिया है। माता-पिता कामकाजी है ऐसे में बच्चों की पाठशाला केवल टी.वी. बन गया है। हतप्रभ करती है यह सोच जब नर्सरी क्लास के बच्चे गर्लफ्रेंड, बॉयफ्रेंड की बातें करते हैं। इनमें शिन-शैन और मशीनी रौबोट्स के उन कार्टून चरित्रों का भी योगदान है, जो बालमन पर अपनी उच्छृंखलता औऱ हिंसा की गहरी छाप छोड़ते हैं। उनके सपनों का फलक सिमट गया है औऱ यह देखकर वाकई पाश याद आ जाते हैं कि, ‘सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’।
आखिर क्या कारण है कि कहीं किशोर अपने ही साथी के साथ अमानवीय व्यवहार कर बैठते हैं तो कभी अपने शिक्षक की ही जान लेने का दुष्कृत्य को कर बैठते हैं। खामियाँ तो वाकई हैं और ये हमारे ही असंतुलित व्यवहार की उपज है। सबसे बड़ा खतरा यह है कि आज का बालमन अकेला है , उसे ठीक से सुनने, समझने का किसी के पास भी वक्त नहीं है। ना घर उनके लिए महफ़ूज है ना ही परिवेश। ऐसे में वह अपनी राहें खुद तलाशता है। अनुभवों से विलग ये कच्चे घड़े इंटरनेट औऱ आभासी जगत की चमकीली दुनिया को ही पूरा सच मान बैठते हैं। इंटरनेट पर तमाम प्रतिबंधित चीज़ें उपलब्ध है। ऐसे में रिश्तों की अहमियत उनके लिए मायने नहीं रखती। सेल्फियों की आत्ममुग्धता के बीच सब अपने आत्म को बिसरा चुके हैं। आत्म का यही बिखराव अनेक सामाजिक विकृतियों को जन्म देता है। यह सच है कि तमाम विकृतियाँ खासकर यौनिक विसंगतियाँ समाज में पूर्व में भी थी परन्तु विगत दशकों में उनका ग्राफ चिंताजनक रूप से बढ़ रहा है। न्यायपालिका की बात करें तो बालकों के संरक्षण के लिए 2012 में ही पोस्को एक्ट क्रियान्वित हो चुका है परन्तु इन दुर्घटनाओं के लगातार घटने के बावजूद भी शिकायत दर्ज़ नहीं हो पाती है । सीधी सी गणित है कि ऐसे तमाम मामलों में जनचेतना की कमी है। यह ठीक है कि बच्चों को गुड टच , बैड टच का ज्ञान तो हम दे रहे हैं परन्तु यह कृत्य करने वालों का ठीक उपचार नहीं कर पा रहे हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि 8 से 15 वर्ष तक के नवकिशोरों में 16 फीसदी से भी अधिक बच्चें दिन भर में पाँच घंटे से अधिक का समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं। यहाँ वे बढ़ती प्रतिस्पर्धा औऱ सौन्दर्य की अंधी होड़ के प्रति इतने आकर्षित हो जाते हैं कि अपने ही हमउम्र साथियों से भी कतराने लगते है। सामान्य होते हुए भी एक अजीब असंगति औऱ हीनता का भाव उनके मन में घर कर जाता है औऱ वे अतिसंवेदनशीलता के शिकार हो जाते हैं। वे तकनीक से तो भर जाते हैं परन्तु भावनात्मक रूप से पूरी तरह खाली हो जाते हैं। सेंटर फॉर एडिक्शन एंड मेंटल हेल्थ,ओंटारियों की सातवीं से लेकर बारहवीं तक के दर्जें के बच्चों पर किये गये सर्वे की रिपोर्ट मायूस करती है कि हमारे बचपन का ईंधन चुक गया है। वे रसहीन जीवन जीने को अभिशप्त हो गये हैं औऱ उसमें सबसे अधिक दोष परिवार की अनदेखी का है। हमें बचपन को अपराधों से बचाने के विचार को हमारी प्राथमिकताओं में शामिल करना होगा अन्यथा भविष्य की इबारत खौंफनाक होगी । बशीर साहेब से माफी के साथ ‘ये सोच लो अब आखिरी साया है बचपन,इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा’।
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