अबोला एकांत
माँ! यह सूरज निकलता है तो पंछी कितनी खुशी से मौज में उड़ते हैं ना....क्या इससे पहले वो भी सोते रहते हैं अपनी माँ के पास...?
यह हवा देखो... यह भी उसके निकलते ही कैसी जोर से चलने लगती है...
और.. और.. ये बादल क्यों नहीं रोज ही इन पहाड़ो पर टिके रहते हैं..थोड़ी ही देर में क्यों कहीं दूर चले जाते हैं?
उन दोनों का शगल था रोज सुबह उस पहाड़ी के पीछे के सूरज को निकलते हुए देखना.. और यूँ ही सवाल- जवाब करना...पर आज ध्रुव कुछ उदास था..उसकी निंदासी आँखों की पलके कुछ अधिक भारी थी..
माँ! माँ सुनो ना .. आज स्कूल नहीं जाना..
माँ! आज सच नहीं जाना..
ध्रुव ने बहुत ही मासूमियत से आँचल में दुबकते हुए कहा था...
उसने सहलाते हुए हाथों ने उसका मुँह उठाया और कहा ठीक है नहीं जाना तो हम बिल्कुल नहीं जाएँगें...आज मैं भी नहीं जा रही पर मेरे शहजादे को बताना होगा कि क्या बात है औऱ क्यों नहीं जाना...
माँ! मेरे साथ कोई नहीं खेलता...सब को कॉपी चेक कराते वक्त ए वन मिलता औऱ मुझे कुछ भी नहीं...कोई मुझसे बोलता भी नही...माँ! मुझे बहुत अकेला लगता है जैसे कोई भी मेरे साथ नहीं. औऱ यह सब कहते हुए वे कमल से कोटर डबडबा गए थे..
अरे !अरे! देखूँ तो ज़रा ये मोती मुझे हथेली बीच सहेजने दो कहीं ढुलक ना जाएं...उसने उस नरम फोहे को गोद में उठाया और नाक से नाक सहलाकर बुगली बुगली वुश किया ..दोनों खिलखिला उठे..उसी खिलखिलाहट के बीच नरम हथेलियों को हथेलियों का ताप देते हुए उसने कहा कि देखों उस सूरज को देख रहे हो ना ..वो अकेले डूबता है और अकेला ही उगता है ..रोज..शिकायत उसे भी होती है पर नींद के आगोश में सोते हुए वो खुद को फिर- फिर समझाता है ...औऱ समेट लेता है सारी ऊर्जा अपने ठंडे पड़े अहसासों की...फिर उग आता है..ये पंछी मचलते हैं उसे देखकर औऱ हवाएं कोई अनजाना सुर छेड़ती है जिसे अब तक गाया न गया हो.. । सूरज और चाँद आकाश के छोर पर तेजी से चमकते हुए भी , सबके बीच जीते हुए भी सबसे अकेले होते हैं....तो इसे यूँ समझो कि जो अलहदा होता है वो सबसे जुदा होता है ।
वो कुछ अकेला होता है..क्योंकि वो कुछ अलग सोचता है औऱ यूँ सबके बीच रहता हुआ भी कुछ टूट जाता है..माँ तो मैं भी क्या सूरज और चाँद सा स्पेशल हूँ...
हाँ तुम वैसे हो...
नहीं माँ! मैं उससे भी स्पेशल हूँ क्योंकि मेरे पास तुम हो..
वो हँस दी थी...ध्रुव ध्यान रखना कि जिंदगी अपने इम्तिहान का परिणाम जारी करते हुए भले तुम्हारा नाम सबसे ऊँचे मुकाम पर ना टैग करे पर कोई ना कोई मुकाम सभी के लिए तय होता है,, इन मुकामों की दौड़ में उलझने के बजाय हर एक दौड़ को दिल से दौड़ने की ख़्वाहिश सदा जीवित रखना...वो तुम्हें भी रस देगी ..ठीक वैसे ही जैसे बारिश की बूँदे हर मन को भीगो देती है...
उसके फिसलते बाल बार बार उसके कोमल गालों पर आ रहे थे और एक बीती याद की याद दिला रहे थे..ध्रुव की आवाज़ उसे फ़िर से वर्तमान में लौटाती थी...
माँ! चुप क्यों हो जाती हो कहते –कहते ..कहो ना मुझे तुम्हारे बोल बहुत भाते हैं...और वो अचानक कह उठी थी ध्रुव तुम ऐसे ही रहना इतने ही मासूम ...कुछ बचा पाओ तो बचा लेना अपना यह भोलापन...अपनी यह मासूमियत औऱ अपनी मानवता...मैं जानती हूँ कई बार अकेला मन निराश हो जाता है पर तुम आस की डोर कभी ना हारना...मैं बाँहें फैलाए सदा सदा तुम्हारा इंतजार करती रहूँगी..दिल के कोने मैं झाँकना औऱ मेरी मुस्कुराहट तुम्हारी उदासी को हर लेगी.. सोचो जरा..हमारे यह अहसास ही जीने की खुराक होती हैं औऱ हर जिंदगी के अपने मायने होते हैं ..
बातों का सिलसिला तोड़ते हुए उसने उसके शून्य में ताकते चेहरे को हाथ से अपनी ओर” करते हुए कहा, माँ! पर दुनिया की सबसे अजीब चीजें हमारे साथ ही क्यों होती है..अरे बुद्धु बक्से, बताया तो कि हम स्पेशल हैं...और ध्रुव अजीब जैसा कुछ नहीं हैं बस हर जीवन का अपना एक अलग राग है..हर जीवन के अपने आँसू है औऱ अपनी हँसी...होता यह है कि हम बस उजली हँसी को देख पाते हैं उसके पीछे छिपे आँसूओं की नमी को हम अपनी ईर्ष्या से छिपा देते हैं...
अब तुम गौर करना हर एक के जीवन को अगर यह बात फिर कभी तुम्हारे मन में आए तो...अच्छा देखो, वो प्रेस वाले अंकल का लड़का बुधिया है ना उसे ही देखो तुमसे चार साल ही तो बड़ा है ..माँ नहीं है ना उसके पास जिसे तुम जीवन की पहली ज़रूरत मानते हो..और वो तुम्हारी मंदिर वाली नानी जिसकी नाती श्रुति तुम्हें नकचढ़ी लगती है उसने हाल ही में एक रोड एक्सीडेंट में अपने माता-पिता को खोया है...ध्रुव उससे वो यादें, वो शहर भी छूट गया जहाँ वो किसी शहजादी की तरह पल रही थी...यह तो कुछ दुख भरी मिसालें है बेटू ..जीवन वाकई कठोर होता है, बस हमारे जीने का तरीका उसे आसां बना देता है...और जीतता वही है जो चलता रहता है, लगातार...
चलना जीतने की निशानी है..और यह जो हँसी है ना जिससे तुम्हारे चेहरे पर एक नूर आ जाता है वो होता है जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार...मालूम! कहीँ नीली चप्पलों को पैर नहीं नसीब होते और कहीं पैरों को वो नीली चप्पलें... जो शिखर पर है वो धराशयी हो सकता है औऱ जो रेत की खाक छान रहा होता है वो सर माथे पर चमक सकता है ...कुछ भी तो स्थायी नही...इसलिए नहीं सोचो कि कोई तुमसे बात नहीं करता...कभी कोई बात खुद ही आगे से कर लो...कभी किसी नम आँख को देखो तो उसे मुस्कुराने की एक छोटी सी वज़ह दे दो... कभी किसी खेल को खुद ही शुरू कर दो ...देखना कारवां बन जाएगा...देर बस शुरू करने की होती है...देर बस खुद से बाहर निकलने की होती है...
ओ माँ आज देर हो गई मैं पौधों को पानी नहीं दे पा रहा आप दे देना...और मेरा टिफिन रख दो सिर्फ पन्द्रह मिनट है मेरे पास..ध्रुव की आँखों में एक चमकीली रोशनी थी....वो टिफिन थमाते हुए उसके चेहरे पर घिर आए बालों को देख रही थी तो कभी खुशी से दमकते चेहरे को..माँ मैं यह खट्टा आम दो एक्सट्रा ले जा रहा हूँ गले में अपनी बाँहे डालते हुए कह रहा था.... किसी की खुशी के लिए.. उसने आँखे बंद करते हुए हामी भर दी थी वह बस उसे देख रही थी औऱ उस की खुशी को जी रही थी...वो गेट से स्कूल बस की औऱ भागते हुए कदमों को दूर तक निहार रही थी...कदम ओझल हो गए थे और उस पगडंडी पर एक बिन्दू उग आया था... आँखों से भावनाएं सब्र का बाँध तोड़ बिखर गयी थी...लौटती पगडंडी से उसके साथ उतर आया था उसका एकांत जो किसी काँधे को खोज रहा था..... काँधे उसी के कहे शब्द थे कि जो अलहदा होता है ना वो अक्सर अकेला छूट जाता है.....
पास ही कहीं..दो आँखें बालकनी से एक सूरज को डूबते औऱ एक को उगते जाने कबसे देख रही थी...
माँ! यह सूरज निकलता है तो पंछी कितनी खुशी से मौज में उड़ते हैं ना....क्या इससे पहले वो भी सोते रहते हैं अपनी माँ के पास...?
यह हवा देखो... यह भी उसके निकलते ही कैसी जोर से चलने लगती है...
और.. और.. ये बादल क्यों नहीं रोज ही इन पहाड़ो पर टिके रहते हैं..थोड़ी ही देर में क्यों कहीं दूर चले जाते हैं?
उन दोनों का शगल था रोज सुबह उस पहाड़ी के पीछे के सूरज को निकलते हुए देखना.. और यूँ ही सवाल- जवाब करना...पर आज ध्रुव कुछ उदास था..उसकी निंदासी आँखों की पलके कुछ अधिक भारी थी..
माँ! माँ सुनो ना .. आज स्कूल नहीं जाना..
माँ! आज सच नहीं जाना..
ध्रुव ने बहुत ही मासूमियत से आँचल में दुबकते हुए कहा था...
उसने सहलाते हुए हाथों ने उसका मुँह उठाया और कहा ठीक है नहीं जाना तो हम बिल्कुल नहीं जाएँगें...आज मैं भी नहीं जा रही पर मेरे शहजादे को बताना होगा कि क्या बात है औऱ क्यों नहीं जाना...
माँ! मेरे साथ कोई नहीं खेलता...सब को कॉपी चेक कराते वक्त ए वन मिलता औऱ मुझे कुछ भी नहीं...कोई मुझसे बोलता भी नही...माँ! मुझे बहुत अकेला लगता है जैसे कोई भी मेरे साथ नहीं. औऱ यह सब कहते हुए वे कमल से कोटर डबडबा गए थे..
अरे !अरे! देखूँ तो ज़रा ये मोती मुझे हथेली बीच सहेजने दो कहीं ढुलक ना जाएं...उसने उस नरम फोहे को गोद में उठाया और नाक से नाक सहलाकर बुगली बुगली वुश किया ..दोनों खिलखिला उठे..उसी खिलखिलाहट के बीच नरम हथेलियों को हथेलियों का ताप देते हुए उसने कहा कि देखों उस सूरज को देख रहे हो ना ..वो अकेले डूबता है और अकेला ही उगता है ..रोज..शिकायत उसे भी होती है पर नींद के आगोश में सोते हुए वो खुद को फिर- फिर समझाता है ...औऱ समेट लेता है सारी ऊर्जा अपने ठंडे पड़े अहसासों की...फिर उग आता है..ये पंछी मचलते हैं उसे देखकर औऱ हवाएं कोई अनजाना सुर छेड़ती है जिसे अब तक गाया न गया हो.. । सूरज और चाँद आकाश के छोर पर तेजी से चमकते हुए भी , सबके बीच जीते हुए भी सबसे अकेले होते हैं....तो इसे यूँ समझो कि जो अलहदा होता है वो सबसे जुदा होता है ।
वो कुछ अकेला होता है..क्योंकि वो कुछ अलग सोचता है औऱ यूँ सबके बीच रहता हुआ भी कुछ टूट जाता है..माँ तो मैं भी क्या सूरज और चाँद सा स्पेशल हूँ...
हाँ तुम वैसे हो...
नहीं माँ! मैं उससे भी स्पेशल हूँ क्योंकि मेरे पास तुम हो..
वो हँस दी थी...ध्रुव ध्यान रखना कि जिंदगी अपने इम्तिहान का परिणाम जारी करते हुए भले तुम्हारा नाम सबसे ऊँचे मुकाम पर ना टैग करे पर कोई ना कोई मुकाम सभी के लिए तय होता है,, इन मुकामों की दौड़ में उलझने के बजाय हर एक दौड़ को दिल से दौड़ने की ख़्वाहिश सदा जीवित रखना...वो तुम्हें भी रस देगी ..ठीक वैसे ही जैसे बारिश की बूँदे हर मन को भीगो देती है...
उसके फिसलते बाल बार बार उसके कोमल गालों पर आ रहे थे और एक बीती याद की याद दिला रहे थे..ध्रुव की आवाज़ उसे फ़िर से वर्तमान में लौटाती थी...
माँ! चुप क्यों हो जाती हो कहते –कहते ..कहो ना मुझे तुम्हारे बोल बहुत भाते हैं...और वो अचानक कह उठी थी ध्रुव तुम ऐसे ही रहना इतने ही मासूम ...कुछ बचा पाओ तो बचा लेना अपना यह भोलापन...अपनी यह मासूमियत औऱ अपनी मानवता...मैं जानती हूँ कई बार अकेला मन निराश हो जाता है पर तुम आस की डोर कभी ना हारना...मैं बाँहें फैलाए सदा सदा तुम्हारा इंतजार करती रहूँगी..दिल के कोने मैं झाँकना औऱ मेरी मुस्कुराहट तुम्हारी उदासी को हर लेगी.. सोचो जरा..हमारे यह अहसास ही जीने की खुराक होती हैं औऱ हर जिंदगी के अपने मायने होते हैं ..
बातों का सिलसिला तोड़ते हुए उसने उसके शून्य में ताकते चेहरे को हाथ से अपनी ओर” करते हुए कहा, माँ! पर दुनिया की सबसे अजीब चीजें हमारे साथ ही क्यों होती है..अरे बुद्धु बक्से, बताया तो कि हम स्पेशल हैं...और ध्रुव अजीब जैसा कुछ नहीं हैं बस हर जीवन का अपना एक अलग राग है..हर जीवन के अपने आँसू है औऱ अपनी हँसी...होता यह है कि हम बस उजली हँसी को देख पाते हैं उसके पीछे छिपे आँसूओं की नमी को हम अपनी ईर्ष्या से छिपा देते हैं...
अब तुम गौर करना हर एक के जीवन को अगर यह बात फिर कभी तुम्हारे मन में आए तो...अच्छा देखो, वो प्रेस वाले अंकल का लड़का बुधिया है ना उसे ही देखो तुमसे चार साल ही तो बड़ा है ..माँ नहीं है ना उसके पास जिसे तुम जीवन की पहली ज़रूरत मानते हो..और वो तुम्हारी मंदिर वाली नानी जिसकी नाती श्रुति तुम्हें नकचढ़ी लगती है उसने हाल ही में एक रोड एक्सीडेंट में अपने माता-पिता को खोया है...ध्रुव उससे वो यादें, वो शहर भी छूट गया जहाँ वो किसी शहजादी की तरह पल रही थी...यह तो कुछ दुख भरी मिसालें है बेटू ..जीवन वाकई कठोर होता है, बस हमारे जीने का तरीका उसे आसां बना देता है...और जीतता वही है जो चलता रहता है, लगातार...
चलना जीतने की निशानी है..और यह जो हँसी है ना जिससे तुम्हारे चेहरे पर एक नूर आ जाता है वो होता है जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार...मालूम! कहीँ नीली चप्पलों को पैर नहीं नसीब होते और कहीं पैरों को वो नीली चप्पलें... जो शिखर पर है वो धराशयी हो सकता है औऱ जो रेत की खाक छान रहा होता है वो सर माथे पर चमक सकता है ...कुछ भी तो स्थायी नही...इसलिए नहीं सोचो कि कोई तुमसे बात नहीं करता...कभी कोई बात खुद ही आगे से कर लो...कभी किसी नम आँख को देखो तो उसे मुस्कुराने की एक छोटी सी वज़ह दे दो... कभी किसी खेल को खुद ही शुरू कर दो ...देखना कारवां बन जाएगा...देर बस शुरू करने की होती है...देर बस खुद से बाहर निकलने की होती है...
ओ माँ आज देर हो गई मैं पौधों को पानी नहीं दे पा रहा आप दे देना...और मेरा टिफिन रख दो सिर्फ पन्द्रह मिनट है मेरे पास..ध्रुव की आँखों में एक चमकीली रोशनी थी....वो टिफिन थमाते हुए उसके चेहरे पर घिर आए बालों को देख रही थी तो कभी खुशी से दमकते चेहरे को..माँ मैं यह खट्टा आम दो एक्सट्रा ले जा रहा हूँ गले में अपनी बाँहे डालते हुए कह रहा था.... किसी की खुशी के लिए.. उसने आँखे बंद करते हुए हामी भर दी थी वह बस उसे देख रही थी औऱ उस की खुशी को जी रही थी...वो गेट से स्कूल बस की औऱ भागते हुए कदमों को दूर तक निहार रही थी...कदम ओझल हो गए थे और उस पगडंडी पर एक बिन्दू उग आया था... आँखों से भावनाएं सब्र का बाँध तोड़ बिखर गयी थी...लौटती पगडंडी से उसके साथ उतर आया था उसका एकांत जो किसी काँधे को खोज रहा था..... काँधे उसी के कहे शब्द थे कि जो अलहदा होता है ना वो अक्सर अकेला छूट जाता है.....
पास ही कहीं..दो आँखें बालकनी से एक सूरज को डूबते औऱ एक को उगते जाने कबसे देख रही थी...
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