बाबा साहेब को बहुजन राजनीति विचारक,विधिवेता
और भारतीय संविधान के वास्तुकार के रूप में भलिभांति जाना जाता है। आज जिस दलितोत्थान की बात
हम करते हैं उसके लिए उन्होंने ही सर्वप्रथम दलितों और
अन्य धार्मिक सम्प्रदायों के प्रति पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की ।
वे जीवन पर्यन्त दलित वर्ग में शिक्षा के प्रसार और उनके उत्थान के लिए काम करते
रहे। हमारा समाज आज अनेक सामाजिक और
राजनैतिक विसंगतियों के विषम दौर से गुजर रहा है और इसी कारण मानव जीवन एक विचित्र
स्थिति में आ पहुँचा है। निरन्तर असंतोष तथा नैराश्य स्त्री पुरूषों के मन में फैल
रहे हैं। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में जीवन मूल्य आज हाशिए पर पहुँच गए हैं। हर
व्यक्ति अपने कर्म क्षेत्र से मुँह मोड़ कर स्वछंद हो गया है। निस्संदेह
नैतिक प्रमापों के प्रति यही अनास्था का भाव हमारे समाज में फैल रहे अनेक
अपराधों के लिए भी पूर्णतः उत्तरदायी है। वर्तमान में नैतिक मूल्यों में हो रहे
विचलन को समझने औऱ उसके निराकरण के
लिए डॉ अम्बेडकर का नैतिक दर्शन उपयोगी साबित हो सकता है।
आम्बेडकर सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। वे हिन्दू
धर्म के खिलाफ़ नहीं थे वरन् वे इस धर्म की बुराईयों को तथा असमतावादी विचारों को दूर करना चाहते थे।
वे लिखते हैं कि जब मैं ब्राह्मणवाद की बात कह रहा होता हूँ तो मेरा मंतव्य
ब्राह्मण जाति की शक्ति , विशेषाधिकारों या लाभों से नहीं है वरन् मेरे
मुतल्लिक उसका अर्थ है- स्वतंत्रता, समता
और भ्रातृत्व को नकारना। यह तत्व हर वर्ग के लोगों में मौजूद है तथा जातिप्रथा को
नष्ट करने के लिए धर्म पर, अंधविश्वासों पर और धार्मिक पाखंडों पर प्रहार करना
होगा। वे मानते थे कि धर्म परिवर्तन संबंधी
विचारधारा दलितों की मुक्ति का विकल्प नहीं हो सकती। स्त्री मुक्ति की बात और उसे शिक्षा का अधिकार
प्रदान करने की बात भी आम्बेडकर ही पहले पहल करते हैं। इसी संदर्भ में निसंदेह सन् 2016 भी स्त्री मुक्ति का एक नया
अध्याय लिखेगा जब सुप्रीम कोर्ट अनेक मंदिर ट्रस्टों से यह सवाल करता है कि क्या
लिंग के आधार पर किसी को मंदिर के प्रवेश से वंचित किया जा सकता है।
वर्तमान में राजनीति हर पक्ष पर हावी है ऐसे में अगर वह गैर
बराबर समाज व्यवस्था को बदलने में कामयाब होती है तो समाज व्यवस्था के जातिगत
ढाँचे की ढहने की कल्पना की जा सकती है और सही मायने में केवल औऱ केवल तब ही डॉ बाबा साहेब आंबेडकर ने जिस जनतांत्रिक
समाजवादी व्यवस्था का स्वप्न देखा था वो सही मायने में साकार भी हो सकेगा। आज दलित
चेतना के विकास में जिसमें स्त्री भी शामिल है के व्यापक प्रसार की आवश्यकता है ।
इस चेतना के व्यापक प्रसार में अस्मितावादी आंदोलन और साहित्य सतत रूप से योगदान
कर रहा है। आंबेडकर की वैचारिकी को केन्द्र में रखकर रचा साहित्य ऐसे फलक की चाहना
रखता है जो असीम औऱ पंख पसार उड़ने के अवसर प्रदान करता हो। नकार औऱ विद्रोह इस
साहित्य के मूल स्वर है। वर्तमान में अनेक
संदर्भों में मनुस्मृति के तालिबानी
विस्तार को रोकने के लिए नीली रोशनी के प्रसार की सतत आवश्यकता है जिसके लिए
आंबेडकर औऱ फूले के चिंतन को व्यावहारिक स्तर पर अपनाना होगा।
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