भोर तमाम प्रतिकूलताओं के बीच कुछ कोमल उग आने की जिजीविषा है.. वस्तुतः यह शब्द है ना जिजीविषा.. बस एक खेला भर है जीवन..बात चाहे खुद को सँभालने की हो या फिर दूसरे पिघलते मनों को सँभालने की, इसके इर्द-गिर्द ताना बाना बुने बिना जीवन अधीर हो उठता है। कभी पाण्डु सा पीत और भीत मन हो तो मन की दीवार को सींचना नेह से क्योंकि सबसे अधिक आप ही को आपकी ज़रूरत है। ओस की नम बूँदे अगर आस जगाने में कामयाब हो तो थाम लेना उन्हें रात्रि के अंतिम पहर में कि कहीं कोई सपनों का सौदागर उन्हें छीन ना ले। सुबह-सुबह एक युवक अक्सर दिखाई देता है, जो बड़ा सा नीला थैला काँधे पर लटकाए घूमता है।कुछ बोरी नुमा है वह थैला जिसमें आदमकद की कोई वस्तु भी आसानी से छिप सकती है। वय से युवा है परन्तु ढ़ाढी फकीरों सी बढ़ा रखी है, कहने को निस्पृह दिखाई देता है परन्तु ना जाने क्या क्या बीन कर अपने चौगे के हवाले कर देता है। किसी एक अलसायी सुबह में जब मैंने उसे पहले पहल देखा था तो मैंने उसे सपनों का सौदागर नाम दे दिया था। इतने अँधेरे में कोई क्या बीन सकता है और भला। उस दिन से मैं कुछ और सचेत हो गयी थी। माँ कहा करती है कि सुबह के सपने सच होते हैं, इन्हीं सपनों को सच करने के लिए जाने मैं कितनी बार रात्रि के अंतिम पहर में सोयी हूँ और कोई यूँ मेरे ख्वाबों को चुरा ले यह कतई गवारां नहीं मुझे। इसीलिए जागती आँखों से सपने बुनना शुरू किया है अब। कोई नहीं चुरा सकता इन आस के मोतियों को वो नीली थैली वाला सौदागर भी नहीं... सचेत रहती हूँ और सभी को करती हूँ क्योंकि अब ऐसे सौदागर इधर बहुत हो गए हैं...
ये सौदागर बहुत शातिर होते हैं जिस तरह कोई चुप्पी के वस्त्र को सुई से छेदता है ठीक वैसे ही ये नींद में दख़ल देते हैं चुप से और चुरा लेते हैं उन मोतियों को जो आँखों में अभी अभी जन्में थे। जब काँधों पर गगन बैठा हो ये ठीक उन पलों में दाखिल होते हैं और जब आँख खुलती है तो हम बिन पंखों के आसमां में डूबते उतराने लगते हैं..
ख़्वाब देखिए इस साल कुछ और ज़्यादा.. इतने कि अगर कोई सौदागर सौदा भी करे तो उसका वो आदमकद झोला भी छोटा पड़ जाए..
अनेकानेक दुआएँ.. शुभकामनाएँ..
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