सृष्टि आलोकित करने को
मैनें माँगा है उजास
शब्दों से
कुछ लिखने की जद्दोजहद में
उतरती हूँ गहरी खोह में
पथरीले सफर में भी खोजती हूँ
हरियल पगडंडियाँ
देखती हूँ!
बहुत कुछ बिखरा है
कुछ यादें, रिश्तें और मूल्य अनगिनत
वहीं औंधें मुँह गिरी
ख्वाबों की एक पोटली है
रिसता दर्द है
कुछ जज्बातों की खूशबू है
औऱ सिसकती आस है
दूर किसी कोने में
हिंसा के तांडव से सहमी
टूटती कल्पना की साँसें है
इसी टूटन से याद आता है
उसने कहा था
तुम छायावादी हो
तपाक कह उठी थी तब मैं
हाँ! प्रगतिवाद की पृष्ठभूमि हूँ
शायद! उसी को सच करने
खुद को फिर फिर आजमाने
कुछ दरकते हुए को बचाने
अब रंग रही हूँ भावनाओं को
वैचारिकता की स्याही से...
डॉ विमलेश शर्मा
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