शिक्षा अर्थात् वह तंत्र जो
हमारे चिंतन में बदलाव लाता है , हमें जागरूक बनाता है ,जीवन के प्रति एक
वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करता है और
जिदगी को कुछ आसान बना देता है परन्तु इस महती उद्देश्य को भूल आज यह तंत्र अनेक
विसंगतियों का शिकार हो गया है। निजीकरण , निजी स्वार्थ और दोषपूर्ण राजनीति वे
कारक हैं जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अनावश्यक घुसपैठ कर हमाने भविष्य को
अंधकारमय बनाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी है। आज सामूहिक नकल के मामले हो या
वरीयता सूची में किसी एक संस्थान के छात्रों के स्थान पाने जैसे मामले ये सभी
हमारे शिक्षा तंत्र की कमजोरी को ही बयां करते हैं। आज सरकारी विद्यालयों में
नामांकन निरन्तर गिरता जा रहा है। कहीं पर योग्य शिक्षकों के अभाव में तो कहीं
जागरूकता के अभाव में आज शिक्षा हाशिए पर चली गयी है। एक तरफ निजी तंत्र है जहाँ शिक्षा को केवल सतही रूप से
अपनाकर ट्यूशन संस्थान खड़े करने का व्यवसाय चलाया जा रहा है तो दूसरी तरफ हमारे
श्रेष्ठ मानव संसाधन अनेकानेक समस्याओं और गिरते नामांकन स्तर की परेशानियों को
झेलने हेतु विवश हैं। इसमें कोई दोराय
नहीं है कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा का विस्तार हुआ है परन्तु इसके विकास के
सूचकांक को देखा जाए तो स्थिति चिंतनीय नजर आती है। राजेन्द्र प्रसाद का कथन है
जिसमें ए.पी .जे कलाम के विचार भी समावेशित हैं कि हमें केवल राष्ट्र की अखण्डता ही सुरक्षित नहीं रखनी है वरन् हमें
हमारी सास्कृतिक धरोहर और परम्पराओं को भी शिक्षा के माध्यम से सहेजना है। यह
महनीय और महत्वपूर्ण काम हमारे ही कंधों पर है। इनके साथ ही हम आज 21 वीं सदी में
जी रहें तो हमें विज्ञान औऱ तकनीक के भी साथ चलना होगा। लेकिन बात अगर बुनियादी
शिक्षा की ही करे तो ये सारे ख्वाब दिवास्वप्न से लगते हैं । हमारे देश का विकास आने
वाली पीढ़ी के कंधों पर है और वही जब अपरिपक्व होगी तो देश पिछड़ जाएगा। गरीबी और
अंधविश्वास जैसी समस्याएँ तो है ही पर आज सरकारी तंत्र की विफलता के अनेक
तात्कालिक कारण भी बुनियादी शिक्षा में दीमक की तरह लग गए हैँ औऱ यही कारण है कि
हमारे नोनिहालों का भविष्य अँधेरें में है। आज लगभग सभी प्रकार की मूल्यांकन प्रणाली और
परिक्षाएँ जाँच के घेरे में हैं। आज ऐसे
ऐसे वाकये घटित हो रहे हैं कि मन क्षुब्ध हो उठता है। मूल्यांकन पद्धति और प्रक्रिया से जुड़े हाल ही
के प्रकरण हमारी चिंताओं को बढ़ाने वाले हैं। यह दोषपूर्ण पद्धति हताश नौजवानों की
भीड़ खड़ा कर रही है पर आँकड़े सदा की ही तरह कुछ और बयां करते है।आँकड़ों की बात
करें तो पिछले एक दशक में साक्षरता की दर में हमारे देश ने उल्लेखनीय प्रगति की है
परन्तु महज कागजी आँकड़ों से देश का भविष्य नहीं निर्धारित होता है। आज जो यक्ष
प्रश्न है कि आखिर क्यों बुनियादी शिक्षा उतने प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पा रही
है जितनी की उसे दरकार है। यह प्रश्न केवल शिक्षा और अशिक्षा का ही नहीं है वरन् लाखों वंचितों और शोषकों के सम्मानपूर्वक
जीवनयापन से भी सम्बन्धित है अतः अगर हमारा लोकतंत्र शिक्षा के गिरते स्तर से
आँखें मूँदे रखता है तो यह निश्चय ही संवेदनाहीन और आत्मघाती होगा। बुनियादी
शिक्षा की नींव कमजोर रहने से छात्र माध्यमिक औऱ उच्च माध्यमिक स्तर पर भी बेहतर
प्रदर्शन नहीं कर पाते है । अभिभावकों की अपेक्षाओँ पर खरा नहीं उतरते हुए और
प्रतिस्पर्धा के युग में स्वयं को पिछड़ा हुआ पाकर कई बालक अपना आत्म विश्वास खो बैठते हैं। एक अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों
में आत्महत्या की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। यह स्थिति अत्यन्त शोचनीय
है।
आज विद्यार्थी के समक्ष
बहुत चुनौतियाँ है। अभिभावकों की असीमित इच्छाओँ का बोझ उन पर है औऱ इस बोझ तले
उनका बचपन कहीं खो गया है। वास्तविक प्रतिभा आज हाशिए पर पड़ी है क्योंकि उसकी
मेहनत का प्रतिफल निजी स्वार्थों की भेंट चढ़ रहा है। यही बालक उच्च शिक्षा में
पहुँचकर बिल्कुल टूट जाते है। क्योंकि वहाँ कि स्थितियाँ औऱ भी अधिक विकट है। जहाँ
फर्जी डिग्रीयाँ रोजगार मुहैया की साधन बनती है वहाँ प्रतिभा की पूछ स्वतः ही गौण
हो जाती है। ऐसे विसंगतियों से उपजे वाकये
मन को खिन्न कर देते हैं। हालांकि स्थितियाँ सब और ऐसी नहीं है। आज भी
सरकारी क्षेत्रों में कई ऐसे शिक्षक मौजूद है जो पूरे समर्पण और निष्ठा के साथ
अपनी कर्मठता के साथ छात्रों का भविष्य संवारनें में लगे हैं परन्तु उनका प्रतिशत
बहुत कम है।
भातीय चिंतन कभी भी केवल
बौद्धिक व्यायाम भर नहीं रहा है। यहाँ के गुरूकुल जीवन के गहन सूत्रों को
व्याख्यायित करने वाली प्रयोगशालाएँ रही हैं। परन्तु आज के संदर्भ में देखा जाए तो
जहां एक ओर शहरी बालक केवल और केवल किताबी ज्ञान को रट रहा है औऱ तकनीक का गुलाम
बन रहा है वहीं ग्रामीण विद्यार्थी हर तरह की सुविधाओं से वंचित रहकर अपना भविष्य
गुमनामी में धकेलने को अभिशप्त है। यह कटु सच है कि कई विद्यालयों में अब भी
शैक्षणिक गतिविधियाँ नहीं के बराबर है ,पाठ्यक्रम में अरसे से कोई बदलाव नहीं हुआ है,
राजनीतिक हस्तक्षेपों से नियुक्तियाँ प्रभावित हो रही हैं और परिणाम तय हो रहे हैं।
ये सभी ही वे वास्तविक कारक हैं जो शिक्षा के स्तर को गिरा रहे हैं। बढ़ता निजीकरण
शिक्षा की सहजता को निगल रहा है। ग्रेड सिस्टम गला काट प्रतिस्पर्धा को जन्म दे
रहा है तो वहीं पक्षपाती परिणाम प्रतिभा का हनन कर रहा है। सामूहिक नकल जैसे
मामलों में अभिभावक भी उतने ही दोषी है जितना की स्कूल प्रशाशन। लोकतंत्र के समक्ष
शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की अनेक चुनौतियाँ है । आज आवश्यकता है रोजगारपरक
शिक्षा के साथ साथ ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जो उच्च मानवीय गुणों की व्यवस्था की स्थापना कर सके। इस हेतु
सरकारी तंत्र में आमूलचूल बदलाव लाने होंगें। कागजी कार्यवाही और दिखावी अभियानों
के परे वास्तविकता के धरातल पर उतरकर
जमीनी आवश्यकताओँ की पूर्ति करनी होगी। बेहतर संसाधन उपलब्ध करवाने होंगें आज भी
ऐसे विद्यालय है जहाँ पीने का साफ पानी, बैठने की सुविधाएँ और शौचालय जैसी मूलभूत
सुविधाएँ नहीं उपलब्ध है। कहीं विद्यार्थी
हैं तो कहीं शिक्षक नहीं जैसी स्थितियों ने शिक्षा का मजाक बना कर रख दिया है। आज दरकार है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीतियाँ शिक्षा की व्यावहारिकता पर काम करें । वे किसी विचार धारा से प्रभावित ना होकर मानवीय
विश्वासों की पुनर्स्थापना का प्रयास करें तो यह सभी के हित में होगा।
आज सरकारी और निजी दोनों ही
महकमों को जागरुक बनने की आवश्यकता है , निजी स्वार्थों से उपर उठने की आवश्यकता
है क्योंकि सवाल किसी एक पीढ़ी का नहीं सवाल आने वाली नस्लों का है। सवाल एक
सृष्टि के उपजने का है।
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