स्मृतियों में बने रहेंगें खुशनुमा खुशवंत सिंह
बहुत कम लोग होते हैं जिनके हर्फों में जादूई करिश्मा होता है और उनका प्रभाव भी उतना ही असरकारी होता है। ऐसे व्यक्ति अपने मने मुताबिक जीते हैं और अपनी जीवन शैली और व्यक्तित्व के माध्यम से ऐसा चित्र उकेरने का सामर्थ्य रखते हैं जो कि काल की अनवरत यात्रा में भी कभी धूमिल नहीं होता। ‘डेथ एट माई डोरस्टेप’ लिखने वाले खुशवंत ऐसे ही लेखक है जो भारतीय पाठक के जनमानस को सदैव गुदगुदाते रहेंगे। खुशवंत सिंह नाम है एक जिंदादिल इंसान का ,खुद पर हँसने का सामर्थ्य रखने वाले रचनाकार का,लेखक , पत्रकार और इतिहासकार का जो कि अपनी बेबाक जीवनशैली के लिए सदैव याद किए जाएँगें। वे अपनी रचनाओं में दिल परोसते थे , संवेदनाओं का इन्द्रधनु रचते थे और पाठक को वो सब पढने पर मजबूर करते थे जो कहीं ना कहीं उसी के अन्तरमन में छुपा होता था। एक प्रतिबद्ध पत्रकार के रूप में वे चाहते थे कि अधिक से अधिक सूचनाएँ पाठकों तक पहुँचनी चाहिए। लिखा गया ऐसा होना चाहिए जो एक चौंक और उत्तेजना पाठकों में भर दे । कमोबेश यही कारण था कि पाठक उनकी और आकर्षित होते थे। खुशवंत मशहूर पत्रिका योजना के संस्थापक संपादक थे इसके साथ ही वे इलस्ट्रेडेट वीकली,द नेशनल हेराल्ड और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे महत्वपूर्ण अखबारों से जुड़े रहे। वे अपने लिखे से सदैव सुर्खियों में बने रहे। वे एक बहस के घेरे को सदैव अपने इर्द गिर्द रखते थे और जब कभी ऐसा नहीं होता तो वो खुद ही कह पड़ते कि शायद कुछ गड़बड़ लिख रहा हूँ कहीं से कोई शिकायत नहीं मिली इन दिनों। उनका लिखा ही उनकी जीवटता का दस्तावेज़ है यही कारण है कि वे अपने अंतिम वर्षों में भी लेखन से जुड़े रहे और कहते रहे ‘ हिकायतें हस्ती सुनी ,तो दरमियां से सुनी, न इब्तिदा की खबर है न इन्तहां मालूम’। उनका जीवन एक ऐसा कैनवास था जिस पर रंग बिखर कर अपनी पूर्णता को प्राप्त करते थे। वे किसी भी धर्म के प्रति कट्टर नहीं थे और अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना जानते थे। उन्होनें पत्रकारिता को रोचक बनाते हुए उसे किस्सागोई से जोड़ा। प्रयोगधर्मी पत्रकार के रूप में पहचाने जाने वाले खुशवंत युवाओं को आगे बढ़ाने में विश्वास रखते थे। ‘खुशवंतनामा :मेरे जीवन के सबक’ किताब में वे बड़े ही बेबाकी से अपनी दास्तां सुनाते हुए वे हर व्यक्ति को एक खुशनुमा जीवन जीने की नसीहत भी देते हुए दिखाई देते हैं। इस किताब में उन्होंने अपने जिए को गढ़ा है तथा बढ़ती उम्र, मौत के डर, यौनाचार के सुख,सेवानिवृत्ति के बाद सुखी रहने के उपाय और कविता का सुख जैसे विषयों पर अपने विचार रखे हैं। अपने कमियों को स्वीकार करना सबसे बड़े साहस का काम है और खुशवंत ने इसे खुशी खुशी किया था। वे आम पाठक के दिल को जानते थे इसीलिए वे कभी किस्सागोई के माध्यम से तो कभी सेक्स पर बेबाक लेखन के माध्यम से तो कभी चुटकुलों के माध्यम से हर व्यक्ति के दिल के करीब पहुँच जाते हैं। उनमें वे सब करने की काबिलियत थी जो आम संपादक सोच भी नहीं सकते थे। कभी खालिस्तान के पैरोकारो की खुली आलोचना तो कभी ,द सैटेनिक वर्सेज का विरोध उनके अपने निर्णय थे जिनके माध्यम से वे अपनी स्वतंत्र सोच का उदाहरण रखते हैं। खुद को धार्मिक नहीं सांस्कृतिक कहने वाला यह सिख धर्म और धर्मनिरपेक्षता पर अपनी निरपेक्ष राय रखना जानता था। अपनी जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से सीख लेने वाले इस कर्मशील व्यक्तित्व ने 1951 में आकाशवाणी से अपना सफर शुरू किया । उन्होंने कुछ समय अमेरिका में तुलनात्मक धर्म और समकालीन विषय पर अध्यापन भी किया । 1969 में उन्होंनें इलस्ट्रेटेड वीकली की कमान संभाली और उसे सूचना दो, चौंकाओं और उत्तेजित करो के मंत्र से नयीं ऊँचाईयाँ प्रदान की। पत्र पत्रिकाओं को एक नया अवतार प्रदान करते हुए उन्होने साहित्य को उसमें व्यापक फलक पर विस्तार प्रदान किया। कार्टून और व्यंग्य को भी उन्होंने भरपूर तवज्जो प्रदान कर हर व्यक्ति को खुश रखने का प्रयास किया।
उन्होंने अपने जीवन में अनेक आलोचनाओं का सामना किया। कभी पियक्कड़ और कभी अय्याश की उपमाओं से उन्हे नवाज़ा गया परन्तु वे अनवरत लिखते गए ।एक पत्रकार, उपन्यासकार , इतिहासकार , स्तम्भकार और लगभग 80 की संख्या के आसपास लिखा उनका रचनात्मक लेखन उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता का प्रमाण है। उन्होंने कई उपन्यास और कथासंग्रह लिखे हैं जिनमें, 'ट्रेन टू पाकिस्तान', 'आई शैल नॉट हियर द नाइटएंगल' और 'दिल्ली' प्रमुख हैं। 95 साल की उम्र में उन्होंने 'द सनसेट क्लब' जैसा उपन्यास लिखा। उन्होंने अपनी आत्मकथा ट्रूथ, लव एंड ए लिटिल मैलिस लिखी, जिसे पेंग्विन बुक्स ने 2002 में प्रकाशित किया ।खुशवंत 1980 से लेकर 1986 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे हैं । काम अपनी ज़मीन खुद तलाशता है और यही कारण है कि उन्हें साहित्य और पत्रकारिता में उल्लेखनीय कामों के लिए 1974 में पद्म भूषण सम्मान से नवाज़ा गया हालांकि जिसे उन्होंने सरकार को 1984 में लौटा दिया। वस्तुतः यहाँ उनका विरोध स्वर्ण मदिर में सेना को घुसने को लेकर था। बाद में सरकार ने 2007 में उन्हें पुनः पद्म विभूषण से नवाजा।
अद्भुत व्यक्तित्व के धनी और बिंदास जीवनशैली के प्रस्तोता खुशवंत के लेखन में जीवन सांसे लेता था। आम जीवन की पगडंडियों से घूमता हुआ उनका लेखन हर व्यक्ति को अपनी ही कहानी जान पड़ता था। उनके लेखन में मासूमियत और वैचारिकता का अद्भुत सामंजस्य था। हँसी किस सलीके से आमजन तक पहुँचायी जाती है इसके वो उस्ताद थे। हर महीने का रोमांच और प्रेम का अल्लहड़पन उनकी रचनाओं की जीवनीशक्ति थी। लेखनी के इस जादूगर की लेखन शैली का ही कमाल था जो कि उनकी हर पुस्तक को बेस्ट सेलर के तमगे से नवाज़ती थी। उनका लिखा गुदगुदाता है ,एक शरारत भरी मुस्कुराहट को थिकरन देता है और खुद को कामुक कहने का होंसला भी रखता है। इन्हीं शब्दों के साथ ज़िंदादिली से भरपूर औऱ पत्रकारिता को ह्यूमर प्रदान करने वाले इस 99 वें की उम्र में भी जवां रहने वाले लेखक को विनम्र आदरांजलि..
बहुत कम लोग होते हैं जिनके हर्फों में जादूई करिश्मा होता है और उनका प्रभाव भी उतना ही असरकारी होता है। ऐसे व्यक्ति अपने मने मुताबिक जीते हैं और अपनी जीवन शैली और व्यक्तित्व के माध्यम से ऐसा चित्र उकेरने का सामर्थ्य रखते हैं जो कि काल की अनवरत यात्रा में भी कभी धूमिल नहीं होता। ‘डेथ एट माई डोरस्टेप’ लिखने वाले खुशवंत ऐसे ही लेखक है जो भारतीय पाठक के जनमानस को सदैव गुदगुदाते रहेंगे। खुशवंत सिंह नाम है एक जिंदादिल इंसान का ,खुद पर हँसने का सामर्थ्य रखने वाले रचनाकार का,लेखक , पत्रकार और इतिहासकार का जो कि अपनी बेबाक जीवनशैली के लिए सदैव याद किए जाएँगें। वे अपनी रचनाओं में दिल परोसते थे , संवेदनाओं का इन्द्रधनु रचते थे और पाठक को वो सब पढने पर मजबूर करते थे जो कहीं ना कहीं उसी के अन्तरमन में छुपा होता था। एक प्रतिबद्ध पत्रकार के रूप में वे चाहते थे कि अधिक से अधिक सूचनाएँ पाठकों तक पहुँचनी चाहिए। लिखा गया ऐसा होना चाहिए जो एक चौंक और उत्तेजना पाठकों में भर दे । कमोबेश यही कारण था कि पाठक उनकी और आकर्षित होते थे। खुशवंत मशहूर पत्रिका योजना के संस्थापक संपादक थे इसके साथ ही वे इलस्ट्रेडेट वीकली,द नेशनल हेराल्ड और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे महत्वपूर्ण अखबारों से जुड़े रहे। वे अपने लिखे से सदैव सुर्खियों में बने रहे। वे एक बहस के घेरे को सदैव अपने इर्द गिर्द रखते थे और जब कभी ऐसा नहीं होता तो वो खुद ही कह पड़ते कि शायद कुछ गड़बड़ लिख रहा हूँ कहीं से कोई शिकायत नहीं मिली इन दिनों। उनका लिखा ही उनकी जीवटता का दस्तावेज़ है यही कारण है कि वे अपने अंतिम वर्षों में भी लेखन से जुड़े रहे और कहते रहे ‘ हिकायतें हस्ती सुनी ,तो दरमियां से सुनी, न इब्तिदा की खबर है न इन्तहां मालूम’। उनका जीवन एक ऐसा कैनवास था जिस पर रंग बिखर कर अपनी पूर्णता को प्राप्त करते थे। वे किसी भी धर्म के प्रति कट्टर नहीं थे और अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना जानते थे। उन्होनें पत्रकारिता को रोचक बनाते हुए उसे किस्सागोई से जोड़ा। प्रयोगधर्मी पत्रकार के रूप में पहचाने जाने वाले खुशवंत युवाओं को आगे बढ़ाने में विश्वास रखते थे। ‘खुशवंतनामा :मेरे जीवन के सबक’ किताब में वे बड़े ही बेबाकी से अपनी दास्तां सुनाते हुए वे हर व्यक्ति को एक खुशनुमा जीवन जीने की नसीहत भी देते हुए दिखाई देते हैं। इस किताब में उन्होंने अपने जिए को गढ़ा है तथा बढ़ती उम्र, मौत के डर, यौनाचार के सुख,सेवानिवृत्ति के बाद सुखी रहने के उपाय और कविता का सुख जैसे विषयों पर अपने विचार रखे हैं। अपने कमियों को स्वीकार करना सबसे बड़े साहस का काम है और खुशवंत ने इसे खुशी खुशी किया था। वे आम पाठक के दिल को जानते थे इसीलिए वे कभी किस्सागोई के माध्यम से तो कभी सेक्स पर बेबाक लेखन के माध्यम से तो कभी चुटकुलों के माध्यम से हर व्यक्ति के दिल के करीब पहुँच जाते हैं। उनमें वे सब करने की काबिलियत थी जो आम संपादक सोच भी नहीं सकते थे। कभी खालिस्तान के पैरोकारो की खुली आलोचना तो कभी ,द सैटेनिक वर्सेज का विरोध उनके अपने निर्णय थे जिनके माध्यम से वे अपनी स्वतंत्र सोच का उदाहरण रखते हैं। खुद को धार्मिक नहीं सांस्कृतिक कहने वाला यह सिख धर्म और धर्मनिरपेक्षता पर अपनी निरपेक्ष राय रखना जानता था। अपनी जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से सीख लेने वाले इस कर्मशील व्यक्तित्व ने 1951 में आकाशवाणी से अपना सफर शुरू किया । उन्होंने कुछ समय अमेरिका में तुलनात्मक धर्म और समकालीन विषय पर अध्यापन भी किया । 1969 में उन्होंनें इलस्ट्रेटेड वीकली की कमान संभाली और उसे सूचना दो, चौंकाओं और उत्तेजित करो के मंत्र से नयीं ऊँचाईयाँ प्रदान की। पत्र पत्रिकाओं को एक नया अवतार प्रदान करते हुए उन्होने साहित्य को उसमें व्यापक फलक पर विस्तार प्रदान किया। कार्टून और व्यंग्य को भी उन्होंने भरपूर तवज्जो प्रदान कर हर व्यक्ति को खुश रखने का प्रयास किया।
उन्होंने अपने जीवन में अनेक आलोचनाओं का सामना किया। कभी पियक्कड़ और कभी अय्याश की उपमाओं से उन्हे नवाज़ा गया परन्तु वे अनवरत लिखते गए ।एक पत्रकार, उपन्यासकार , इतिहासकार , स्तम्भकार और लगभग 80 की संख्या के आसपास लिखा उनका रचनात्मक लेखन उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता का प्रमाण है। उन्होंने कई उपन्यास और कथासंग्रह लिखे हैं जिनमें, 'ट्रेन टू पाकिस्तान', 'आई शैल नॉट हियर द नाइटएंगल' और 'दिल्ली' प्रमुख हैं। 95 साल की उम्र में उन्होंने 'द सनसेट क्लब' जैसा उपन्यास लिखा। उन्होंने अपनी आत्मकथा ट्रूथ, लव एंड ए लिटिल मैलिस लिखी, जिसे पेंग्विन बुक्स ने 2002 में प्रकाशित किया ।खुशवंत 1980 से लेकर 1986 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे हैं । काम अपनी ज़मीन खुद तलाशता है और यही कारण है कि उन्हें साहित्य और पत्रकारिता में उल्लेखनीय कामों के लिए 1974 में पद्म भूषण सम्मान से नवाज़ा गया हालांकि जिसे उन्होंने सरकार को 1984 में लौटा दिया। वस्तुतः यहाँ उनका विरोध स्वर्ण मदिर में सेना को घुसने को लेकर था। बाद में सरकार ने 2007 में उन्हें पुनः पद्म विभूषण से नवाजा।
अद्भुत व्यक्तित्व के धनी और बिंदास जीवनशैली के प्रस्तोता खुशवंत के लेखन में जीवन सांसे लेता था। आम जीवन की पगडंडियों से घूमता हुआ उनका लेखन हर व्यक्ति को अपनी ही कहानी जान पड़ता था। उनके लेखन में मासूमियत और वैचारिकता का अद्भुत सामंजस्य था। हँसी किस सलीके से आमजन तक पहुँचायी जाती है इसके वो उस्ताद थे। हर महीने का रोमांच और प्रेम का अल्लहड़पन उनकी रचनाओं की जीवनीशक्ति थी। लेखनी के इस जादूगर की लेखन शैली का ही कमाल था जो कि उनकी हर पुस्तक को बेस्ट सेलर के तमगे से नवाज़ती थी। उनका लिखा गुदगुदाता है ,एक शरारत भरी मुस्कुराहट को थिकरन देता है और खुद को कामुक कहने का होंसला भी रखता है। इन्हीं शब्दों के साथ ज़िंदादिली से भरपूर औऱ पत्रकारिता को ह्यूमर प्रदान करने वाले इस 99 वें की उम्र में भी जवां रहने वाले लेखक को विनम्र आदरांजलि..
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