चटख रंग उल्लासों का ,अबीर और गुलालों का,मिट्टी सी सोंधी महक लिए ,फिर आया है फाग निकट......मौसम फिर फगुना रहा है। धरती से आकाश तक तरुणाई अपने चरम पर
है और चहुंदिश राग और रंग छाया हुआ है। फाल्गुन वस्तुतः वसंत के प्रेमिल आनंद का उत्कर्ष है। यह पर्व है अपने रंग को भूलाकर दूसरे के रंग
में रंग जाने का। यह पर्व जुड़ा है राधा के कृष्ण प्रेम में डूबे होने की स्मृति
का और यह पर्व है उस केसरिया रंग का जो भक्त और भगवान को, प्रेमीजनों को और सम्पूर्ण सृष्टि को एक रंग में रंग देता है। रंग
जीवन का सौन्दर्य है और वस्तुतः जीवन रंगों का ही ताना-बाना है। प्रकृति में
मनुष्य की हर भावावस्था के अनुसार रंगों का अनोखा तालमेल उपलब्ध है। जब हर्ष और
उल्लास के चटख रंगों से हृदय का आंचल भीगता है तो व्यक्ति का जीवन सतरंगी हो जाता
है। जीवन की आपाधापी से थककर मानस पटल पर जब मलिनता आने लगती है तो ये रंग ही जीवन
में उत्सव की सौगात लाते हैं। ये उत्सव हमारे संवेदनाओं को सहलाकर उन्हें पोषित कर
देते हैं और यादों तथा खुशियों के सान्निध्य में जीवन को फिर चैतन्य कर देते हैं । वर्तमान में जीवन के ये रंग कोहरे की चादरों में लिपटे हुए
हैं इसलिए उत्सवों की सनानत परम्परा ही एकमेव उपाय है जिससे हम मन को उल्लासों के
अबीर से रंग सकते है और हमारा जीवन फाल्गुनी हो सकता है।
हमारा मन प्रतिपल
बदलता है इसीलिए मानव व्यवहार के अनुसार ही यहां प्रकृति में भी हर रंग उपलब्ध है।
हम अगर उदाहरण देखना चाहें तो प्रकृति के हर उपादान में बिखरे पडे हैं। फूलों की
ही बात करें तो प्रकृति में उपलब्ध कोई भी फूल एक रंग का नहीं है। मनुष्य के भावों के ही अनुसार प्रकृति में अनेक रंग बिखरे पड़े हैं। यही रंग होली पर खुल
कर बरसते हैं। मन की माटी को अबीरों और गुल्लालों से सराबोर करने के लिए ही होली
का पर्व कहीं रंगपंचमी, कहीं धुलंडी,
कहीं फगमा तो कहीं होला-महोल्ला के नाम से
मनाया जाता रहा है । नव संवत का प्रतीक यह पर्व होली होलाका के साथ ही बसंत के चरम पर मनाए जाने के
कारण बसंतोत्सव व मदनोत्सव भी कहलाता है। भारत के सबसे पुराने पर्वों में से एक पर्व होली आनंदोल्लास तथा भाईचारे का
त्यौहार है। यों तो रंगो के इस पर्व होली के पीछे अनेक धार्मिक मान्यताएँ, ऐतिहासिक घटनाएँ और मिथक छिपे हुए हैं परन्तु
अंततः इसका उद्देश्य मानव कल्याण ही है। होली हमें सभी प्रकार के मतभेदों को भुलाकर एक
दूसरे को दिल से अपनाने की प्रेरणा प्रदान करता है। उत्तर-पूर्व भारत मे होलिका
दहन भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस के रूप में तो दक्षिण में कामदेव
के शिव प्रकोप से मुक्त हो पुर्नर्जीवित होने के संदर्भ का प्रतीक है। इसी क्रम
में यह महान पर्व होलिका के विनाश तथा भक्त प्रहलाद की अटूट भक्ति एवं निष्ठा के
प्रसंग की भी याद दिलाता है। वस्तुतः होलिकादहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का
प्रतीक है।
मन की दहलीज पर एक बार फिर
बसंत आ धमका है और इसी का चरमोत्कर्ष है बसंतोत्सव यानि होली का त्योंहार। इस ऋतु
में प्रकृति चहुं और सृजन में व्यस्त है। पौधों की उलंग, ठूँठ और म्लान शाखाओं पर
रंगों की गांठें खिल रही है। यह पर्व प्रकृति के पुनर्नवा होने का पर्व है,
मंजरियों का रस छलकने का पर्व है, भ्रमरों के प्रेम में पगने का पर्व है और पतझड़
के वसंत होने का पर्व है। बसंती हवा के
आगमन के साथ ही फाग विधिवत प्रारम्भ हो जाता है। आम पर फूल आने लगते हैं और कोयलें
गाने लगती है। खेतों मे सरसों लहलहाने लगती है और व्यक्ति मात्र का मन टेसू सा खिल
जाता है। ऐसे ही बसंत और फगुनाहट को हमने जिया है जहाँ मन कनुप्रिया सा, बृज में कृष्ण के साथ प्रेम में पगा हुआ गुलाल
सा हो जाता था। आज का बचपन और युवा दोनों ही इन अहसासों से दूर हैं केवल कल्पना
में ही वे इन अहसासों को जीते हैं। न फागुन में यहाँ कन्हाई है और न ही कुंजों में
लुपती छिपती राधा है आज तो रंग और गुलाल भी मेक-अप की भाँति चन्द लम्हें तसवीरों
मे कैद करने के लिए लगाया जाते हैं। आज न कोयल की कूक सुनने के लिए किसी के पास
समय है ओर न ही टेसू को खिलते हुए देखने का, हाँ एक बात जरूर समान है कि मन अब भी पलास सा दहकता हुलसता
रहता है पूर्व मे किसी के प्रेम में पड़कर तो अब परिवेशगत विसंगतियों को लेकर।
बसंत के ये दिन
मौसम के बदलाव की आहट होते हैं । परन्तु
आज समय के साथ साथ बहुत कुछ बदल गया है। बात चाहे कस्बाई परिवेश
की हो या महानगरीय परिवेश की अब इस फाग का मिजाज भी बदला सा नजर आता है है। इस पर्व से यों तो अनेक कथाएँ जुड़ी है पर
आधुनिक युवा मन के करीब है तो बस इसकी
अल्हड़ता और इसका आह्लाद । अब ना तो रिश्तों में वो आत्मीयता है ना ही सहजता वरन्
अब तो ये पर्व महज औपचारिकता का पर्याय बन गए हैं। होली प्रकृति के साथ आनंदित
होने का उत्सव है, उसका आभार अभिव्यक्त करने का अवसर है पर अब यह उत्सव जैसे चुकने
लगा है। कुछ लोग इसे बेहूदा तरीके से खेलकर भी इसका मजा बिगाड़ देते हैं। अब होली
व्यर्थ पानी की बर्बादी और हुड़दंग अधिक हो गया है। इसी क्रम में अगर बुद्धिजीवी
वर्ग की बात की जाए तो आधुनिक समय में हर एक व्यक्ति ने अपना एक सीमित खोल बना
लिया है। अब बच्चों से लेकर व्यस्क तक हर कोई
गंभीर हो चला है । आधुनिक युवा पीढ़ी तो टेसू ,पलाश और अबीर सरीखे शब्दों
से भी अनभिज्ञ है। वे फागुन की उस गंध से अनभिज्ञ हैं जिसके चलते भीतर स्नेह का
कोई निर्झर फूटता है, भावों की थिरकन होती है और प्रेम औऱ अपनत्व की मिसरी होठों
पर बरबस ही घुल जाती है। आज लोक जीवन से होली और उसका हास परिहास छूट रहा है।
आधुनिक संस्कृति फाग गीतों के वो मनोहर बोल बिसरा चुकी है जिनकी राग रागिनियों से
मन के सातों तार झंकृत हो उठते थे। कुछ मामलों में तो होली मात्र दिखावे और
अनावश्यक हुड़दंग का पर्याय बन चुकी है।
आज आवश्यकता है युवा मन को एप्स के
एकातिंक बियांबान और आभासी मायाजाल से
खींचकर ब्रज की उस रसमयी धरा पर लाने की जहां मन मयूर हो नाचने लगता है, जहां ढोल
मजीरो के साथ रंगो की स्वरलहरियां हवाओं में गूंजती हो। अब हमें इस पर्व के मूल
उद्देश्य को समझने एवं इसे पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है । इस त्योहार की
तमाम अठखेलिय़ों को सहेजने की और उस शालीनता को लौटा लाने की आवश्य़कता है जिसमें लड़के और लड़कियां सखा भाव से होली के
रंग में डूब सके और मन की चूनर फिर प्रीत
पगी बातों में भीग सके । हमें इस सृजन काल में अपने अंतर्मन के मौसम को भी बादलों
के उन तमाम घेरों से बाहर निकालने की आवश्यकता है जहां उदासी और भावनाओं का पतझड़ है ताकि बसंत की इस सुखद बयार
के साथ हर मन ऊर्जा और स्फूर्ति को महसूस कर सके और यही गा सके... “धानी आँचल है
धरती का, टेसू भी हे सूर्ख अधिक, रंगों से भिगोने कोरे मन को फिर आया है फाग निकट.”
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