आज स्त्री दिवस
पर फिर बात होगी स्त्री सशक्तीकण की, स्त्री महिमा की और स्त्री जीवन में आए उन
तमाम बदलावों की जो उसे आधुनिकता की दहलीज तक खींच लाए हैं । वस्तुतः आज समाज में
हमें जो बदलाव दिखाई दे रहे हैं, वे बहुत ऊपरी
हैं। आँकड़े बयां करते
हैं कि बीसवीं शताब्दी में हमारी सामाजिक व्यवस्था में नारी के प्रति चिंतन में
गुणात्मक बदलाव आया है। आंकड़े यह भी कहते हैं कि वर्तमान में स्त्री, समाज की दृढ़
आधारशिला बनकर उभरी है और आज प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है।
परन्तु हम स्त्रियां इन थोपे हुए आँकड़ों को सिरे से नकारती हैं । स्थितियां आज भी
जस की तस है बल्कि कुछ संदर्भों में तो अब पूर्व से भी जटिल है। शिक्षा स्त्री को आज स्वावलम्बी बना रही है
परन्तु अपने बौद्धिक विकास की सामान्य सी चाह में वह एक साथ कितने संघर्षों से दो
चार होती है इसकी कल्पना तक पुरूष समाज नहीं कर सकता। बात सिर्फ बौद्धिक विकास की
ही नहीं है वरन् स्त्री को हर
क्षेत्र में बंधे बंधाए नियत मापदण्डों पर चलना होता है । वर्तमान युवा महिला पीढ़ी
उन खाप पंचायतों व समाज के उन ठेकेदारों के नियमों से संस्कारित हैं जो उसके लिए
खाने- पीने, उठने –बैठने जैसे सामान्य कार्यकलापों के लिए भी विशिष्ट मापदण्ड तय
करती है । ये नियम उसके अन्तर्मन तक पैठे हैं इसीलिए वह अपने निर्णय को सही गलत के
तराजू पर तोलती हैं । अपराध बोध की भावना भी उनमें चरम पर है क्योंकि उनका बचपन
तथाकथित संस्कारों की छांव में गुजरा है और उसे उन संस्कारों की छांव तले यही
शिक्षा गहरे तक दी जाती है कि वो दोयम हैं, कोमल हैं और एडजेस्टमेंट की सबसे बड़ी मिसाल हैं। इसीलिए आज
उसके मन में इसी परिवेश के लिए गुस्सा भी है कि यही परिवेश उस डरपोक, निरीह और बेचारी बनाने के लिए तो दूसरी और
पुरूषों को कठोर, अमानवीय और
स्वछंद बनाने के लिए जिम्मेदार है। इसी परिवेश की ही देन है कि वह अगर स्वयं के
लिए कोई निर्णय समाज की इस तथाकथित
नियमावली से बाहर जाकर होती है तो उसे ग्लानि का अनुभव होता है। उसकी स्वतंत्रता
को आज भी देह के दायरे में रखकर ही सोचा जाता है। कहने मात्र को साहित्यिक ठेकेदार
स्त्री के देह से विदेह तक का सफर तय किया हुआ बताते हैं परन्तु यथास्थिति कुछ और
है। यहां बात एकपक्षीय नहीं की जा रही और ना ही स्त्री की सामाजिक स्थिति का निराशाजनक चित्रण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है वरन् सीधी और सरल बात प्रस्तुत की जा रही है
जिसे एक स्त्री मन ही भली भांति समझ सकता है। स्त्री चाहे कामकाजी हो या घर को संभाल
रही हो दमन और घुटन वह हर कदम पर महसूस करती है। यद्यपि इक्कीसवीं सदी की स्त्री
हर क्षेत्र में पुरूषों से बराबर कदमताल कर रही है परन्तु इस कदमताल के लिए संघर्ष
अभी भी जारी है। वह समर्पिता है,
श्रेष्ठ प्रबंधक है, सहयोगी है, संवेदनशील एवं
जागरूक है परन्तु धर्मक्षेत्र हो या कर्मक्षेत्र वहां वह अब भी पिछड़ी है। सृजन लोक
की अधिष्ठात्री स्त्री आज भी अपेक्षित बदलाव के लिए निरंतर जूझ रही है।
समाज उन्हें शिक्षित कर रहा है, आत्म निर्भर भी बना रहा है परन्तु जीवन जीने का
सही ढंग, विपरीत समय में सही निर्णय लेने की क्षमता तथा हर परिस्थिति
में स्वयं के लिए एक खिड़की खुली रखना नहीं सिखा पा रहा है। जिससे वह सांस लेकर चैतन्य
हो पुनर्नवा हो जाए। इसके बरक्स समाज उस पर बोझिल परम्परा की आड़ पर नियम ढ़ोता है और
उसके सपने देखने का अधिकार भी उससे छीन
लेना चाहता हे। साहित्य लेखन वह क्षेत्र है जो सदैव समाज के कुछ कदम आगे चलता है।
इसीलिए समाज की मानसिकता में आ रहा बदलाव भी सर्वप्रथम वहीं परिलक्षित होता है।
वर्तमान में आधुनिक स्त्री द्वारा किया गया लेखन केवल आधी दुनिया के सच को ही नहीं
वरन् सम्पूर्ण सामाजिक राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था की विड़म्बना को अपना कथ्य बना रहा
है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने इस संदर्भ में खूब लिखा है- ‘‘जब हम पृथ्वी की आधी आबादी के ऊपर अनचाही विकलांगता मढ़ने के
दोहरे दुष्प्रभावों को देखते हैं तो उनसे एक तरफ उनके जीवन का सबसे सहज स्वाभाविक
और ऊँचे दर्जे का आनंद छिन जाता है और दूसरी तरफ जीवन उनके लिए उकताहट, निराशा और गहरी असंतुष्टि का र्प्याय बन जाता
है ।’’ वस्तुतः
यह उकताहट और निराशा
सामाजिक रीतियों और पुरूषों की बंधनग्रस्त दासता की थोपी हुई है। स्त्री मन के इसी
नैराश्य, वेदना और उकताहट को
साहित्य में वर्तमान में केन्द्रीय स्थान मिला है। यह साहित्य आज देश की उस
सामाजिक संविधान को तोड़ने की पैरवी कर रहा है जिसमें स्त्री को सीमाओं में बांधकर
रखने का चलन है। साहित्य आज बंधे बंधाये मठों पर प्रहार कर स्त्री मुक्ति की आवाज
को शब्द प्रदान कर रहा है। प्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा इस संदर्भ में कहती है
- ‘‘क्यों ताकत जाया करते हो
हमें डराने में, शायद तुमको पता
नहीं है... हम ने डरना छोड़ दिया।’’ हिन्दी साहित्य
में महिला लेखिकाओं ने अपने अनुभवों, नारी की सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक स्थिति तथा इस वर्ग की संवेदनाओं और मनः
स्थितियों को अच्छी तरह जान परख कर उसका सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं
में स्त्री मन की स्वाभाविक इच्छाएं हैं, अपना आसमान खुद चुनने की चाह है, औरतों पर अत्याचार और उनके विरूद्ध होने वाले दारूण
अपराधों के बयान हैं । साथ ही इन सबसे बढ़कर इनमें अपना जीवन अपनी शर्तों से जीने
की चाह है। मन्नु भण्डारी, प्रभा खेतान,
मैत्रेयी पुष्पा, उषा प्रियम्वदा, नासिरा शर्मा, अल्पना मिश्र
जैसे महत्वपूर्ण साहित्यिक हस्ताक्षर इस आधी आबादी के सच को पूरी प्रामाणिकता के
साथ अपनी आवाज प्रदान कर रहे हैं। आज साहित्य में यह प्रश्न पुरजोर तरीके से उठाया
जा रहा है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में
तथाकथित सभी बंधन केवल और केवल स्त्रियों के लिए ही क्यों है?
मैत्रेयी पुष्पा कृत ‘अगनपाखी’ उपन्यास की ‘भुवन’ ऐसा ही चरित्र है जो पारिवारिक दाव पेचों के अन्याय को सहती हुई परिवर्तन के लिए
विद्रोह तक जाने में कभी चार कदम आगे बढ़ाती है तो कभी दो कदम पीछे हटाती है। ‘बेतवा बहती रही’ की ‘मीरा’ एवं ‘उर्वशी पात्र किसी भी ग्रामीण कन्या की व्यथा की कथा को अभिव्यक्त करती है जो
विपन्नता के अभिशाप के ग्रस्त है। जिनके भाग्य में केवल एक ही रेखा खींची है जिस
पर लिखा है शोषण और सनातन संघर्ष । सुधा अरोड़ा, मृदुला गर्ग ऐसी ही स्त्री लेखिकाऐं हैं जो अपने कथ्यों के
माध्यम से यही बात विभिन्न रूपों में बयां करती है कि स्त्री अब पराधीनता से मुक्त
होनी चाहिए। स्त्री अब अधिक समय तक दोयम दर्जे की प्राणी न रहे वरन् उसे वे तमाम
अधिकार प्राप्त हो जाऐं, जो एक पुरूष को
हैं। ‘मन्नू भण्डारी’ आधुनिक स्त्री अस्मिता और अस्तित्ववादी विमर्श
के दौर की श्रेष्ठ लेखिका हैं। वे अपने ‘मैं हार गई’ कहानी संग्रह में
मध्यवर्गीय नारी को उसकी तमाम शक्तियों व कमजोरियों के साथ चित्रित करती है।
आधुनिक महिला साहित्यकार साहित्य के ख्यात नामों पर उनकी रचनाओं में किए गए स्त्री
के एकपक्षीय एवं निरीह चित्रण को लेकर सवालिया निशान लगाती हैं। इतना ही नहीं वे
पुरजोर तरीके से यह मांग भी उठाती हैं कि उन तमाम साहित्यकारों की रचनाओं का नए
सिरे से पुनर्पाठ व मूल्यांकन किया जाना चाहिए जिनमें स्त्री को हाशिए पर रखा गया
है।
वर्तमान में वैश्वीकरण के युग में भारतीय समाजिक
संरचना में अनेक परिवर्तन सामने आए हैं जिनमें स्त्रियों की बदलती दशा भी एक
महत्वपूर्ण आयाम है। इस वैश्वीकरण के स्त्री मुक्ति के संदर्भ में भी अलग-अलग
मायने हैं। वर्तमान में इस बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने विकास की अंधी दौड़ में
स्त्री मुक्ति के नाम पर ऐसा विमर्श खड़ा किया है जिसने स्त्री के विवक और चेतना को
दमित करके ही आगे बढ़ने का, अपनी अस्मिता
बनाने का रास्ता दिखाया है। बाजारवादी दौर में ऐसी झूठी अस्मिताएं कुकुरमुत्ता की
तरह उग आई हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ, शिवानी इन्हीं कथ्यों को लेकर अपनी रचनाएं बुन रही है। राजी सेठ की ‘योगदीक्षा’ तथा ‘निरूपमा सेवती’ की बद्धमुष्टि, तलफलाहट, माँ यह नौकरी छोड़ दो आदि
कहानियों में नौकरीपेशा नारी का दुःख दर्द बहुआयामी स्तर पर अभिव्यक्त हुआ है।
वहीं नवें दशक की कुछ महत्वपूर्ण कहानियां य़था समागम, सांझ वाली,नील गाय की
आँखें(नमिता सिंह) ,ललमुनिया (मैत्रेयी पुष्पा), बूँद (मंजुल भगत) में मुक्त होती
स्त्री का चित्रण सजीव हो उठा है। आधुनिक व्यवस्था
में स्त्री कैसे पग-पग पर छली जाती है, खुलेपन के नाम पर स्त्री अस्मिता से कैसा खिलवाड़ किया जाता है और उसके
अस्तित्व को एक देह के दायरे में बांधकर देखा जाता है इन सभी स्थितियों का बेबाकी
से चित्रण इन आधुनिक महिला कथाकारों ने
किया है।
आधुनिक कथा साहित्य स्त्री अस्मिता
के नवीन किर्तिमान गढ़ रहा है। यह साहित्य कहता है कि स्त्री को सम्मान नहीं
समानता चाहिए तथा समाज को स्त्री का सम्मान करना होगा। वर्तमान में स्त्री समस्याओं को लेकर बड़े-बड़े आंदोलन छेड़ने
की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो बस सिमोन द बॉउर के उस कथन पर ध्यान देने की
कि स्त्री पैदा नहीं होती स्त्री बनायी जाती है। दरकार है उस परिवेश को बदलने की,
उन मान्यताओं की बेड़ियों को तोड़ने की जो स्त्री
को उसके स्त्री होने का भान बहुत छुटपन से करा देती है और उसे यह जता देती है कि
वह सैकण्डरी सेक्स है, दोयम है, निरीह है। जरूरत है इस दकियानूसी समाज की
व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने की ताकि स्त्री को उसके ही लिए, बतौर आधी दुनिया, हमदर्दी मांगने की जरूरत न रहे। स्त्री को अब अपनी जमीन सही
अर्थों में खुद तय करनी होगी। उसे पुरूषसत्ता द्वारा बनाए गए मापदण्डों के अनुसार
अपना मूल्यांकन न कर अपनी सीमाऐं स्वयं निधार्रित करनी होगी और अपने सपनों की इबारत
स्वयं तय करनी होगी।
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