सब ताज़ पड़े बेसुध होकर
हम अपने हाक़िम ख़ुद होंगे !
आज़ादी का दौर अलग दौर था। उस दौर में सिरफिरे लोग बसते थे, जो वतनपरस्ती को अपना खुदा मानते थे; वतन के लिए अपना प्रेम तलवार की धार पर रख देते थे। जिन्हें अपना सम्मान प्रिय था, जो वतन के ख़ातिर अंग्रेज़ी अफ़सरों के आगे सर उठा कर और सीना ठोककर चलने की हिम्मत रखते थे। ऐसे काफ़िरों में आदमी-औरत का भेद नहीं था, इनमें पेशे-जाति-धर्म की कोई होड़ नहीं थी, इन सिरफिरों पर तो बस एक धुन सवार थी और वह धुन थी आज़ादी की। आज़ादी की यह लड़ाई हर घर से लड़ी गई थी और यह सच भी था कि आज़ादी का यह संग्राम चंद लोगों के भरोसे लड़ा भी नहीं जा सकता था, ना ही यह प्रभावशाली वर्ग या पूँजीपतियों या नवाबों की ही लड़ाई थी। इस लड़ाई में तो हर वर्ग, हर शख़्स अपना योग दे रहा था। इसी योग में एक जोड़ था उन स्त्रियों का जो ग़ज़ब की फ़नकार थीं। जिनके पास राजा-महाराजा और नवाब अपनी संततियों को इल्म-तहज़ीब और नफ़ासत सीखने भेजा करते थे; जिन्हें कहीं तवायफ़, कहीं बाजी, कहीं गणिका-नायिका और स्वयं ब्रितानी लोग जिन्हें नौच गर्ल्स कहकर पुकारते रहें हैं। जिनकी हाथों की लकीरों में अधूरी मुहब्बतें और मुक्क़मल दर्द लिखा है, जिनकी क़िस्मत में टूटते ख़्वाब ज़्यादा हैं। इतिहास की इन नायिकाओं का बौद्धिक और सांस्कृतिक योगदान तो रहा ही है परन्तु आज़ादी का तिलस्म रचने में भी ये रानियाँ कहीं पीछे नहीं रहीं हैं। अंज़ीज़ुंबाई हो या गौहर जान ये नाम इतिहास की मुख्यधारा में दर्ज ही नहीं हो पाए हैं, जिन्होंने अपनी रईसी लुटाकर आज़ाद हिन्दुस्तान की मज़बूत नींव बनने में अपना योगदान दिया । इतिहास के पन्नों पर उतरा ऐसा ही एक वक्फ़ा लाहौर जिसे अमृतसर का जुड़वा शागिर्द कहा जाता है की मल्लिकाओं के हिस्से दर्ज़ है, जिसे इस समाज ने उसकी फ़ितरत के अनुरूप ही लगभग भुला दिया है ।इसी लाहौर को जहाँ रावी के तट पर नेहरु ने पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की थी को संजय लीला भंसाली मोईन बेग की कहानी के माध्यम से सामने लाते हैं। यह शृंखला जिस पर अतिभव्यता का दोष कई समीक्षकों ने लगाया है, स्त्री हक़ूक की लड़ाई और उसकी आज़ादी की ईमानदार समझ के लिए ही सही, अनेक कमियों के बावज़ूद देखी जानी चाहिए।
हीरामंडी-द डायमंड बाज़ार शीर्षक से भंसाली भव्यता का ऐसा तिलिस्म रचते हैं जिसमें ऐश्वर्य आज़ादी की चमक-धमक के आगे अपना सर झुकाता सा जान पड़ता है। नवाबी तबीयत से रचा-रंगा लाहौर नवाबों की रंगीनियों और अहमक़ाना अंदाज़ से बुना इस कहानी का कथानक गुलाम हिन्दुस्तान का वास्तविक चित्र खींचता है। वे नवाब जो अपनी कब्र भी औरों से ऊँची बनाने में विश्वास करते हैं।हीरामंडी में एक ओर ताज़दार और आलमज़ेब की नवोढ़ा प्रेमकहानी है जो किताबों की बातों-ख़तों की आवाज़ाही से शुरू होकर उन्हीं पर ख़त्म जान पड़ती है तो दूसरी ओर तवायफ़ मल्लिकाजान और बिब्बोजान की ख़ुद्दारी और वतन पर ख़ुद को ख़ाक कर देने की अदम्य इच्छाशक्ति जिनके क़िस्से किताबों में दर्ज़ भी होने की क़िस्मत भी ना हासिल कर पाए। कहानी में नवाबों का सुरा-सुंदरी प्रेम और अय्याशियों का ज़िक्र है तो वहीं अदब और सलीके के लिए जानी जाने वाली तवायफ़ों के एक सांस्कृतिक दौर का पूरा खाका उसके संघर्ष और जीवट के साथ मौज़ूद है। ये औरतें जो पितृसत्ता की बेड़ियों में सीधे-सीधे जकड़ी हैं, अपने स्वाभिमान से मानो उसी पितृसत्ता को लानतें भेजती-सी जान पड़ती हैं। यों पूर्व औपनिवेशिक समय में सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करने वाली इन औरतों का क़द बहुत ऊँचा था। इन्हें भारतीय सौन्दर्य और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतिनिधित्व करने वाली क़ौम तक कहकर नवाज़ा जाता है। कहा जाता है कि इनके चाल-चलन, रहन-सहन का अनुकरण बेगमें और रानियाँ किया करतीं थीं, नवाब इनसे रीति-नीति का प्रशिक्षण लिया करते थे। बहरहाल यह तो इनका सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष था, जिन्हें हर समय, शख़्स और वर्ग अलग-अलग या अपने मिज़ाज के चश्मों से देख-पढ़-समझ सकता है। भंसाली हीरामंडी में इन्हीं औरतों से आज़ादी की बात दमदार तरीक़े से कहलवाते हैं जिन्हें इतिहास में दबा दिया गया है। ये ही वे औरतें हैं जिनके भीतर आज़ादी शब्द का अर्थ रूह के अंदरूनी हिस्से में गहरा धँसा हुआ है। जहाँ एक ओर इस कहानी में चाबियों की जंग में उलझे शीशमहल और ख़्वाबगाह हैं,वहीं दूसरी ओर हुज़ूर और साहिब बनने की भी लड़ाई है पर इन सब पर हावी है असली मुल्क़वालियों की आज़ादी की लड़ाई । इसी आँच में आलमबेग का प्रेम में सना हुआ रुमाल जल कर राख हो जाता है, ताज़दार अपनी जान वतन पर न्योछावर कर देता है, कुत्सिया अपने पोते का सेहरा बनाते-बनाते उसे खो बैठती हैं और कोई साईमा किसी शोषक की आँच में अपने प्रेम की नमी को खो बैठती है।
'हमें देखनी है आज़ादी, हर हाल में हमें देखनी है, मिट जाएगा नाम इस ज़ुल्मत का, लहराएगा परचम मुहब्बत का, हमें सुबह-ए-आज़ादी देखनी है...'ये शब्द इस कहानी की तासीर को इतना गहरा रंग देते हैं कि भंसाली अपनी किसी भी फ़िल्म से ज़्यादा वाहवाही यहाँ ओटीटी पर इस शृंखला के आठ धारावाहिकों से लूट ले जाते हैं। इन शब्दों के आगे ही हीरामंडी के प्रारम्भिक हिस्से धीमे नहीं वरन् ज़रूरी जान पड़ते हैं। कहानी के अंत में दर्शक उन हिस्सों में किसी भी बदलाव या नकारात्मक आलोचना सुनने को भी तैयार नहीं हो पाता क्योंकि अनगिनत कोमल हाथों में थमा और मशालों से निकला स्वर उसे मंत्रमुग्ध कर देता है। हासिल कर लेने की बेचैनी और नूर को खो देने के डर के बीच सजी-धजी , घुँघरू बाँध नाचती नायिकाएँ आज़ाद ख़यालात हैं और पितृसत्ता की जकड़नों को मुँहतोड़ ज़वाब देती सच्चाइयाँ हैं, जिन्हें वे इसी कथा के संवाद की ही बानगी कि जो समाज स्त्रियों को ज़ायदाद में हक़ देने की सहूलियत नहीं देता वह इतिहास के पन्नों पर उसे जगह कैसे दे सकता है, रुपहले पर्दे पर सजीव रूप से चित्रांकित करती हैं।
भंसाली का निर्देशन-रंग संयोजन-संगीत कथानक को रवानगी देने में कहीं भी पीछे नहीं हटता और मँझे हुए चरित्रों की अदायगी इस भव्यता को चार चाँद लगाती जान पड़ती है।
चित्र-गूगल से साभार