सुधीजन के हितार्थ-परसाई के सरोकारी व्यंग्यों के निहितार्थ
हरिशंकर परसाई का साहित्य संसार विस्तृत है और व्यंग्य के क्षेत्र में वेसर्वस्वीकृति के साथ अप्रतिम हैं। हिन्दी साहित्य में व्यंग्य को वाग्विलाससे हटाकर गहन और प्रभावी विधा के रूप में स्थापित करने में उनकामहनीय योगदान है। परसाई के व्यंग्य, निबंध और साहित्य किस हद तक प्रासंगिक बने हुए हैं,यह उनके साहित्य को पढ़ने तथा भारतीय समाज औरराजनीति के हर दौर के परिदृश्य को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। उनका व्यंग्य, उनका कहन किसी एक शिल्प में बँधा नहीं है। वे अपनीअभिव्यक्ति में मुखर हैं, वैचारिकी में तटस्थ हैं और उनके सर्जन में सुखदभविष्य के संधान की विविध दिशाएँ हैं। वे लेखक विरले ही होते हैं, जोअपने रचाव द्वारा दूसरा जीवन पाते हैं,और इसीलिए कालजयी कहलातेहैं, परसाई का लेखन उसी श्रेणी का है ;क्योंकि उनके लेखन का वर्तमानदीर्घजीवी है, और पाठक को एक नयी समझ और दीठ देने वाला है;प्रश्नांकित और साथ ही आश्वस्ति प्रदान करने वाला है। हमारे समाज और परिवेश की यह अटल विडम्बना रही है कि सत्य सदैव अपदस्थ होता हैऔर आम जीवन में लाचारियों -वर्जनाओं और असंतोष की अनगिनत परतों का स्थायी निवास है। साथ ही तात्कालिकता के बढ़ते ख़तरों नेसहजता को कृत्रिम और संघर्ष को सघन बना दिया है। विडम्बना यह हैकि इन सब को हमने मुदित मन से स्वीकार कर लिया है। परसाई अपनेलिखे में आम आदमी की इसी ‘चक्करघिन्नी’ और ‘शुतरमुर्गी’मानसिकता पर खुला संवाद करते हैं।
‘तब की बात ओर थी’, ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, ‘पगडंडियों का ज़माना’, ‘सदाचार का ताबीज़’, ‘वैष्णव की फिसलन’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘माटी कहे कुम्हार से’ , ‘शिकायत मुझे भी है’, ‘और अंत में’, ‘हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं’, ‘अपनी-अपनी बीमारी’, ‘प्रेमचंद के फटे जूते’, ‘काग भगोड़ा’, ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’, ‘ऐसा भीसोचा जाता है’, ‘तुलसीदास चंदन घिसै’, उनके प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं।वैसे उनके व्यंग्य और पैनी दृष्टि का व्याप उनके कहानी संग्रहों औरउपन्यासों में भी स्पष्ट देखा जा सकता है, जो बार-बार यह सोचने परमज़बूर करता है कि, व्यंग्य शैली है या विधा । ‘हँसते हैं रोते हैं’, ‘जैसेउनके दिन फिरे’, ‘भोलाराम का जीव’, उनके कहानी संग्रह हैं ; तो रानीनागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल उपन्यास हैं और‘तिरछी रेखाएँ’ संग्रह में उनके लिखे संस्मरण हैं। दरअसल इन सभीविधाओं में परसाई की व्यंग्य शैली आत्मस्थ है, उनकी भाषा-शैली मेंदादी-नानी के कथा-कहन का अपनापा है। वे शब्दों को चतुराई से पिरोकर कान उमेठने की शैली में और पाठ की परिणति पर पाठक को विचारोंऔर प्रश्नों के घटाटोप में छोड़कर चल देने में, सिद्धहस्त हैं। परसाईबहुश्रुत हैं, प्रचंड अध्येता हैं और बारीक समझ के धनी हैं । उनके व्यंग्य कीभाषा के विषय में यदि यह कहा जाए कि वे कबीर की ही तरह भाषा केडिक्टेटर हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । उनके व्यंग्य अपनी प्राभाविकताकी दृष्टि से आक्रामक, मिज़ाज की दृष्टि से वैचारिक होकर भी अपनीशैली में प्रभावी और सहज हैं । चेतना सम्पन्न दृष्टि के धनी परसाई केव्यंग्यों में करुणा और मानवीय संवेदना है, जो पाठक को सोचने परमज़बूर कर देती है। राजनीति जो हर दौर में अपनी प्रतिबद्धता में कमज़ोरदिखाई देती रही है, उस पर वे परिपक्व रचनाकार की तरह आम आदमी केहक़ूक में प्रहार करते हैं। गौरतलब है कि कथा-तत्त्व में लिपटे, बतकही कीशैली में पिरोये ये व्यंग्य कोरे आक्षेप की तरह या अवसरवादी नहीं नज़रआते वरन् पाठक को वर्तमान जीवन की विसंगतियों-अन्तर्विरोधों के बहुतसे पक्षों से रूबरू कराने की चेतना से सराबोर करने की अतिरिक्त योग्यतारखते हैं। वे हर आम और ख़ास को हर साल और हर बात पर यहसोचने पर मज़बूर करते हैं कि साल-भर में कितने बढ़े या उस बात का क्यापरिणाम होगा । वे लिखते हैं- “हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैंसोचना हूँ, कि साल भर में कितना बढ़े । न सोचूँ तो भी काम चलेगा, बल्किज़्यादा आराम से चलेगा । सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं औरस्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।”1 दरअसल वे हनुमान की अपनी शक्ति-विस्मृति कीही तरह हर आम को उसके अधिकार और कर्तव्यों की याद दिलाना चाहतेहैं जो ग़लत का प्रतिकार करना भूल गया है। बकौल परसाई- “भुखमरीऔर भ्रष्टाचार हमारी राष्ट्रीय एकता के सबसे ताक़तवर तत्त्व बन गए हैं।धर्म, संस्कृति दर्शन कमज़ोर पड़ गए हैं।”2
शायद सजग साहित्याकार के पास वो दीठ होती है, जो आने वाले समयको भाप लेती है । परसाई आदमी को एक पूर्ण इकाई के रूप में देखने केआकांक्षी हैं, वे भीड़ और झुंड को लोकतंत्र का पर्याय नहीं मानते हैं।सरकारी व्यवस्था और प्रशासन अकसर अवसर, ज़रूरत, विचारधारा, पूर्वाग्रह या दबाव के चलते अपने ही नागरिकों के प्रति निर्मम हो जाती है ।अवसरवादी तमाम विसंगतियों को दरकिनार कर प्रभाव को प्रणाम करतेहुए सत्ता की शरण में पहुँच जाते हैं; परन्तु परसाई ‘श्रद्धेय’ होने से घबरातेहैं । परसाई फ़ासीवाद के बहुत से रूपों और उसके आसन्न ख़तरों सेपरिचित हैं, इसीलिए वे जनता में प्रतिरोध का साहस पैदा करने का प्रयासकरते हैं । “और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा । श्रद्धा पुराने अख़बार कीतरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया है।इतिहास में शायद किसी भी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीननहीं किया गया होगा।” एक दूसरे के शील हनन करने वाले औरउतावलेपन के शाश्वत घोर राजनीतिक दौर में वे श्रद्धालुओं की भीड़ सेकहना चाहते हैं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है।मारो एक लात और क्रान्तिकारी बन जाओ।”3
व्यंग्य की कैफ़ियत – ‘कौन तार से बीनी चदरिया’
व्यंग्य गहन तभी होता है जब वह गुणवत्ता की दृष्टि से उत्कृष्ट हो। यहश्रेष्ठता उसे सामाजिक सरोकारों और सामूहिक चेतना पर पड़ने वालेप्रभावों से मिलती है। समाज जितनी तेज़ी से बदल रहा है उतनी ही तेज़ी सेवह अपना वास्तविक मिज़ाज़ और संवेदना भी खो रहा है। इस समाज को इसके व्यस्ततम समय में अनेक विकृतियाँ मिली हैं। असुरक्षाबोध, यांत्रिकता, एकाकीपन, द्वेष, ईर्ष्या, हिंसा आदि से जूझते समाज को कोरेशब्द नहीं उत्साहित करते वरन् उनका सटीक और ज़रूरी, पड़्यौ कलेजाछेक सरीखा, लेखन असर डालता है। परसाई का व्यंग्य लेखन विसंगतियोंऔर विद्रूपताओं को समर्थता से उद्घाटित करता है। व्यंग्य एक समझदार, सुशिक्षित और सुलझे हुए मस्तिष्क की उपज है । यह विधा प्रत्युत्पन्नमति, वैचारिक सजगता और चुटीलेपन की सामूहिक प्रस्तुति है। परसाई इन विचारों को व्यवहार की आँख से देखते हैं, इसीलिए उनका लेखन अधिकविश्वसनीय हो जाता है।
परसाई के व्यंग्य-जलधि में गोते लगाने से पहले व्यंग्य का पारिभाषिकज्ञान हमारे आचार्यों से ले लेना ज़रूरी-सा जान पड़ता है- आचार्यहज़ारीप्रसाद द्विवेदी का मानना है कि, ‘व्यंग्य वह है, जहाँ कहने वालाअधरोष्ठ में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो और फिर भीकहने वाले को ज़वाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना होजाता है।’ वहीं परसाई कहते हैं, “ज़िंदगी बहुत जटिल चीज़ है। इसमेंख़ालिस हँसना या ख़ालिस रोना-जैसी चीज़ नहीं होती। बहुत सी हास्यरचनाओं में करुणा की अन्तर्धारा होती है।”4 परसाई व्यंग्य को एकसोद्देश्य कर्म मानते हुए लिखते हैं, “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियो-मिथ्याचारों और पाखंडों कापर्दाफाश करता है।”5 शरद जोशी व्यक्ति के जीवट को व्यंग्य का पर्यायमानते हैं । इसी क्रम में शरद जोशी का मानना है कि , “सेंस ऑफ ह्यूमर हीअन्याय, अत्याचार और निराशा के विरुद्ध होने से व्यंग में अभिव्यक्त होताहै ।”6 लेखक की यह जाग प्रहारात्मक हो तभी सार्थक होती है । इसी कोलक्षित करते हुए नरेन्द्र कोहली लिखते हैं, “कुछ अनुचित, अन्यायपूर्णअथवा ग़लत होते देखकर जो आक्रोश जागता है, वह यदि काम में परिणतहो सकता है तो अपनी असहायता में वक्र होकर जब अपनी तथा दूसरों कीपीड़ा पर हँसने लगता है तो वह विकट व्यंग्य होता है, पाठक के मन कोचुभाता, सहलाता नहीं, कोड़े लगाता है, अतः सार्थक और सशक्त व्यंग्यकहलाता है।”7 इन सभी विचारों से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है किव्यंग्य में यथार्थ की धार होती है, वह कहीं चिंतक की भूमिका में होता है तोकहीं चीरफाड़ कर मवाद निकालते चिकित्सक की भूमिका में, विनोदजन्य उपहास का आश्रय लेकर वह तनिक सदाशय ज़रूर नज़रआता है; परन्तु घाव नावक के तीर की ही तरह करता है। वह कलेवर मेंकथात्मक-संस्मरणात्मक-निबंधात्मक हो सकता है; परन्तु परिणाम मेंआलोचनात्मक और समीक्षात्मक ही होता है। व्यंग्य जनहित में जारी होताहै इसलिए बहुजन हिताय का पक्षधर होता है। “स्वातंत्र्योत्तर परिवेश कीविशिष्ट परिस्थितियों, दोगलेपन की संगठनात्मक संस्कृति ने जब ऐसामाहौल निर्मित किया जिसमें तमाम प्रचलित मान्यता है, और पूर्व स्वीकृतधारणाएँ धराशायी होने लगीं तो साहित्यकार जैसे संवेदनशील व्यक्तियोंको एक विशेष अनुभूति हुई। उस विशेष अनुभूति की विशेष अभिव्यक्तिही साहित्यिक व्यंग्य है।”8
व्यंग्य का कार्य मूलतः आलोचनात्मक है इसलिए इसमें शब्दों का बहुत हीनपा-तुला और संवेदनशीलता के साथ प्रयोग करना होता है और हास्य मेंआक्षेप का कटु स्वर दबाना होता है। व्यंग्य का प्रयोग केवल अभिधा केसहारे संभव नहीं है। शब्दों का बहुआयामी प्रयोग व्यंग्य में धार पैदा करताहै। व्यंग्य विधा है या शैली इसके बारे में आलोचकों और विद्वानों केअलग-अलग मत हैं। यदि व्यंग्य विधा है तो इसके समर्थन में लक्ष्मीकांतवैष्णव लिखते हैं कि, “ व्यंगकार का साध्य होता है प्रहार, जो वह इसविधा के माध्यम से करता है। इसलिए व्यंग्यकार द्वारा लिखी गई कहानी(या अन्य साहित्य विधा) को लोग कहानी न कहकर ‘व्यंग्य’ कहते हैं, नाटक को नाटक न कहकर व्यंग्य कहते हैं।”9 यदि व्यंग्य को शैली कहें तोवह अनेक रूपबंधों में आवाजाही कर सकता है। व्यंग्य वृत्तान्त हो सकता है(गुलीवर ट्रेवल्स) तो कहानी, उपन्यासिका और संस्मरण भी । स्पष्ट है,व्यंग्य एक स्वतंत्र गद्य विधा है जो शैली या विधागत दोनों ही रूप मेंअभिव्यक्त होने का सामर्थ्य रखती है। अपने दोनों ही रूपों में यह यथार्थ, सौद्देश्यपरक एवं वैचारिक रूप में अभिव्यक्त होता है। बौद्धिकता, सजगताऔर वैचारिकता न केवल जाग्रत समाज की अनिवार्य आवश्यकता है वरन्लेखक की भी। लेखक की व्यंग्यीय प्रतिक्रिया हास्य की तरह तात्कालिकहोते हुए भी क्षणिक नहीं होती, प्रत्युत् शाश्वत और स्थायी होती है।परसाई अपने जीवनीपरक आत्मकथ्य में बार-बार एक तटस्थआलोचक की तरह आत्मालोचन करते हैं। उनकी मर्मभेदी और सजगलेखनी ने अपनी कमियों को भी बारंबार उभारा है। वे इन कमियों से आमआदमी को जोड़ते हैं, और इस तरह उनके नितांत निजी प्रसंग भीसाधारणीकृत हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, परसाई निर्भीक होकर अपनेबेटिकट यात्रा करने के संदर्भ में कहते हैं-“एक विद्या मुझे और आ गई थी- बिना टिकट सफर करना. जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, इंदौर, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं, मैं बिना टिकट बेखटकेगाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गई थीं। पकड़ा जाता तोअच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम सेमुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्स हेल्प दि पुअरबॉय।”10
परसाई के व्यंग्य का गुरुत्व और सरोकारी संसार-
हर विधा और साहित्यकार का अपना गुरुत्व है । जहाँ से कुछ सीख मिले, जहाँ ज्ञान और चेतना संप्रेषित हो और पाठक को झकझोर दे तो कृतिस्वतः ही सफल हो जाती है। परसाई कहते हैं साहित्य व्यक्तिगत औरसामाजिक जीवन की आलोचना होता है, और जीवन की आलोचना केलिए उन्होंने सर्वोत्तम तरीका व्यंग्य को ही समझा, और चूँकि वोप्रभावशाली होता है इसीलिए परसाई व्यंग्य को चुनते है। अपनेराजनीतिक व्यंग्यों में परसाई एक सजग और प्रवंचना से पीड़ित नागरिककी भूमिका में दिखाई देते हैं । जो भ्रष्टाचार की बात तो सत्यनारायण कीकथा की तरह सुनता रहता है; परन्तु उससे बचने के लिए अपने गले मेंसदाचार का ताबीज़ पहन लेता है । सबको सम्मति दे भगवान कहता हुआऔर लोग भ्रष्ट हैं यह कहने का तर्क ख़ारिज करते हुए भ्रष्टाचार कीनैतिकता के पक्ष में ही मत रखता है । प्रसंगवश परसाई की ‘सदाचारका ताबीज’ जो कि मूलतः कहानी के रूप में है, आर्थिक सुरक्षा के अभावमें आमजन के भ्रष्टाचार की ओर बढते कदमों की ओर संकेत करती है। परसाई इस कहानी और अपने अन्य व्यंग्यों में यह संकेत करते हैं किव्यवस्था में परिवर्तन और भ्रष्टाचार का खात्मा किए बग़ैर और कर्मचारियों को आर्थिक सुरक्षा दिए बिना,कोरे भाषणों, सर्कुलरों, उपदेशों, सदाचार समितियों के गठन और निगरानी आयोग के द्वारा कोई भी कर्मचारी सदाचारी नहीं होगा। परसाई के व्यंग्य बुर्जुआ समाज में व्याप्तमूल्यगत संक्रमण- विक्रय और स्खलन की स्थिति में नैतिक और सार्थकहस्तक्षेप करते हैं।
परसाई के ‘जैसे उनके दिन फिरे’, (1963) संग्रह में उन्नीस कथाएँ संगृहीतहैं। इनके विषय में रवीन्द्र कालिया लिखते हैं कि-“ये मात्र हास्य-कहानियाँनहीं हैं, यों हँसीं इन्हे पढ़ते-पढ़ते अवश्य आ जाएगी, पर पीछे जो मन मेंबचेगा, वह गुदगुदी नहीं, चुभन होगी। मनोरंजन प्रासंगिक नहीं है, वहलेखन का उद्देश्य नहीं है ; वरन् उद्देश्य है- युग का, समाजका, उसकी बहुविध विसंगतियों, अंतर्विरोधों, विकृतियों और मिथ्याचारोंका उद्घाटन। परसाई जी की इन कहानियों में हँसी से बढ़कर जीवन कीतीखी आलोचना है।”11इन कहानियों की कथावस्तु और शैली, लोक कथाशैली में प्रारंभ होती है । इनके कथानक, योग्य राजा के गुणों (जैसे उनके दिन फिरे), भारतीय भाषाओं में हो रहे शोध कार्यों जिनका उपजीव्यअनुमान है (इति श्री रिसर्चाय), भेड़ें और भेड़ियों के प्रतीकों के माध्यम से लोकतंत्रीय व्यवस्था में सुरक्षा और अधिकार की आश्वस्ति औरअकर्मण्यवादी निष्क्रियता तथा भेडियों और उनकी जयकार करने वालेसियारों में सत्ता-परिवर्तन का भय (भेड़ें और भेड़िया), व्यवस्था को लीलतेभ्रष्टाचारी घुन (सुदामा के चावल), समर्पण और संपन्नता के बीच आकर्षण की चाहना ( मेनका का तपोभंग),किराए के मकान तंत्र औरसाधारण व्यक्ति की निरीह आर्थिक स्थिति (त्रिशंकु बेचारा), शिक्षणसंस्थानों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल,( बैताल की छब्बीसवींकथा),हित साधने हेतु व्यक्तियों के साथ संबंधो का उपयोगितापरक दृष्टिकोण (बैताल की सत्ताईसवीं कथा), संन्यासी का राग-विराग(राग-विराग) , परोपकारी हातिम की क़िस्सेबाजी (वे सुख से नहीं रहे), भविष्य के दृश्य में हमारे पूर्वजों की कल्पना (आमरण-अनशन) जैसेविषयों पर आरुढ होकर रोचक अवसान तक पहुँचकर लोक कथाओं कीउस अंतिम पंक्ति के सूत्र वाक्य पर समाप्त होती है कि ,‘जैसा उनकेसाथ हुआ वैसा किसी ओर के साथ न हो,’ या कि ‘जैसे उनके दिन फिरे, सबके दिन फिरे’, आदि-इत्यादि ।
‘पगडंडियों का ज़माना’, (1966) में परसाई ने शिक्षा के क्षेत्र में सिफारिशों या कि प्रभाव से प्रवेश लेने की रणनीति, पेपर आउट औरपरीक्षा में नंबर बढ़वाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर धारधार व्यंग्य किया है, जोआज के परिवेश पर भी सटीक है। लेखक ने मेहनत, नैतिकता और ईमानदारी के आम रास्ते पर चलने की प्रवृत्ति के कमज़ोर पड़ने और सिफ़ारिश , नकल और बेईमानी के शॉर्टकट( पगडंडियों ) के प्रतिबढ़ते रुझान पर चिंता व्यक्त की है। संग्रह के अन्य निबंधों में ‘प्रजावादी- समाजवादी’, ‘चावल से हीरे तक’ , ‘बेचारा भला आदमी’, ‘आँगन में बैंगन’ तथा ‘अन्न की मौत’, जैसे रोचक निबंध हैं । यहाँ पर भी लेखककी चिंता में भीड़ के खतरे हैं,उसका मनोविज्ञान है;कि ‘सबके साथ होनेमें विशिष्टता मारी जाती है।’ (हम, वे और भीड़)। संग्रह के सभी निबंधचाहे वह ‘प्राइवेट कॉलेज का घोषणा-पत्र’ हो या ‘ग्रीटिंग कार्ड और राशनकार्ड’, सभी इसी इंगित और आज की वास्तविकता पर चलते हैं कि सभीएक हड़बड़ी और ज़ल्दी में हैं, किसी को अब सिद्धान्तों, मूल्यों और सदाचार में रूचि नहीं रह गई है।
परसाई विषय वैविध्य के साथ-साथ शैलीगत नाविन्य के भी आग्रही रहें हैं।जाति और वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करते हुए साथ ही व्यंग्य को हाशिए पररखे जाने के विधान को रेखांकित करते हुए वे सम्पादक के नाम पत्र केरूप में, ‘और अंत में’(1968) संग्रह लिखते हैं। “साहित्यिक पत्रिकाएँ ब्राह्मण होती हैं, व्यंग्य शूद्र वर्ण का माना गया है। उसने कभी ब्राह्मण कोनहीं छुआ।”12 परसाई का कहना है कि, ‘और अंत में’, शीर्षक के तले उन्होंने ये पत्र संपादक को लिखे थे, लेकिन इनमें मुख्यतः साहित्यिक और साधारणतः सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों की गतिविधियों पर व्यंग्य हैं ,विचारों का फैलाव है, इसीलिए वे आशान्वित हैं कि यह संकलन पाठकों को सदाचारी बनाने, सुधीजन का हाज़मा ठीक करने और उनके दिमागको तरावट देने में कारगर होगा। परसाई उन लेखकों में शामिल हैं, जिनकामन वर्तमान व्यवस्था फिर चाहे वह राजनीतिक हो या सामाजिक को लेकर विक्षुब्ध है । निबंधकार या व्यंग्यकार होने के नाते ही नहीं वरन् एकसामान्य नागरिक की हैसियत और ज़िम्मेदारी के तहत भी वे निरन्तर इसचिंता को रेखांकित करते रहे हैं । एक ‘क्षण-साधक’, ‘पारिश्रमिकाभिलाषी’, ‘नव आंचलिक’, आदि संज्ञाओं से स्वयं कोनवाज़ते हुए वे साहित्यिक-सामाजिक उठा-पठक और तमाम तरह की ईर्ष्याओं, हृदयगत सिकुड़नों पर तिलमिला देने वाले विचार, अनेकानेक प्रसंगों का ब्यौरा देते हुए रखते हैं ।
परसाई के व्यंग्यों में विवादास्पद मृत्यु की कामना करना, सत्य साधकमण्डल का सदस्य बनना, सहानुभूति के रंग में रंगना और मौका मिलते हीअपनी सहानुभूति में बहादुरी का रंग घोल देना जैसे विषयों का प्रयोग,व्यष्टिगत और समष्टिगत वैचारिक आपात् काल के सूचक हैं। इसीलिएपरसाई शिकायत करते हैं। ‘शिकायत मुझे भी है’(1970), संकलन मेंशीर्षक व्यंग्य के साथ ही,’वह जो आदमी है न’, ‘राम की लुगाई औरग़रीब की लुगाई’, ‘एक और जन्म-दिन’, ‘परमात्मा का लोटा’, ‘करकमल हो गए’, ‘चुनाव और सुशील लेखक’, ‘ग़ालिब की परसाई’, ‘इनामऔर ईमान’, जैसे विषयों को समाहित करते दो दर्ज़न व्यंग्य हैं। उनकायह लेखन सोद्देश्य है, इनके पीछे लेखक का अध्यवसाय और सुलझी हुईजीवन-दृष्टि है और विसंगतियों के धुँधलके में जुगनु सरीखे अनगिन प्रश्नहैं। ‘एक दीक्षान्त भाषण’ में वे मंत्री के भाषण से राजनेताओं की प्रकृतिऔर आचरणगत विद्रूपता को निर्ममता से प्रकट करते हैं। इन लेखों में एकप्रतिबद्ध लेखक का आत्म-संघर्ष हर शब्द में महसूस किया जा सकता है।जनता की शुतुरमुर्गी सोच पर प्रहार करते हुए उन्होंने ‘प्रेम-पत्र औरहेडमास्टर’ शीर्षक व्यंग्य में मनुष्य की शाश्वत पलायनवादी औरसुरक्षात्मक प्रवृत्ति की ओर इशारा किया है। इंसान बार-बार इस सोच काअनुसरण करता है कि हम अहिंसावादी-दयालु-मानवतावादी लोग हैं ; हमबुद्ध,महावीर और गांधी के देश के लोग हैं, क्रांति को भूल जाते हैं । परसाईबुद्धिजीवियों और सुधारकों के इसी अन्तर्विरोध पर चोट करते हैं। प्रायःमनुष्य वही करता है जिसे करने के लिए उसे मना किया जाता है । आदमने सेब इसलिए खा लिया कि उसे खाने की मनाही थी। परसाई इसी बातपर कहते हैं कि अगर उसे साँप खाने के लिए मना किया गया होता तो वहसाँप भी खा लेता। इस संकलन के निबंध कहन और शिल्प की दृष्टि सेसादा हैं; परन्तु हर निबंध आज की जटिल परिस्थिति चाहे वह कोरोना काल की समस्याएँ हों, बुलडोजर मानसिकता हो; को समझने की एक अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है।
‘वैष्णव की फिसलन’(1976), संग्रह में परसाई ‘अकाल-उत्सव’, ‘तीसरेदर्ज़े के श्रद्धेय’, ‘शव-यात्रा का तौलिया’, ‘एक अशुद्ध बेवकूफ़, ‘राजनीति का बँटवारा’और ‘शर्म की बात पर ताली पीटना’ जैसे गंभीरऔर विचारणीय व्यंग्य लिखते हैं ; परन्तु वे बतौर लेखक इन लेखों में एकबुद्धिजीवी की तरह सोचते नज़र आते हैं। दूसरी ओर ‘वैष्णव कीफिसलन’, ‘चूहा और मैं’, ‘धोबन को नहीं दीन्हीं चदरिया’,’दो नाक वालेलोग’ और ‘शव-यात्रा का तौलिया’ आदि व्यंग्यों में जीवन के मनोविज्ञानकी टोह लेते और आम आदमी की दैननन्दिन आदतों की परख करते जानपड़ते हैं। समाज से संलग्न लेखकीय दायित्व निभाते हुए वे संरक्षण औरअसहमति पर बात करते हैं। उन्होंने लिखा है कि “इस संग्रह में कुछरचनाएँ हैं जिन्हें पढ़कर पाठक को लगेगा कि लेखक अधिक उग्र हो रहा है;शायद अतिवादी हो रहा है-सोचने में। इस संग्रह की कहानी‘अकाल-उत्सव’ पढ़कर कई लोगों ने मुझसे कहा कि संसदीय लोकतंत्रपर से आपका विश्वास उठ रहा है, आप सोचते हैं शायद कि संसदीयलोकतंत्र से न्यायपूर्ण, समतावादी समाज की स्थापना नहीं होगी? तभीआप उस कहानी में भूखे लोगों को संसद भवन के पत्थर उखाड़करखिलवाते हैं। ज़वाब में अभी नहीं दूँगा। इतिहास एक हद तक समय देताहै। मेरा ख़याल है हमें तीन सालों से ज्यादा समय नहीं है।”13 आमजीवन की सार्थकता और स्वार्थपरता पर तंज कसते हुए वे लिखते हैं किसमाज ख़ुश इसलिए है कि साधारण आदमी नौकरी , बीवी और बच्चों मेंजीवन की सार्थकता ढूँढ लेते हैं। ऐसे सामाजिक न राग-द्वेष से पीड़ित होतेहैं, न विशिष्टता के रोग से, न समाज में यश की कामना से ; परन्तु मुसीबतवहाँ खड़ी होती है, जो विशिष्ट हुए बिना जी नहीं सकता। ‘ शव-यात्रा कातौलिया’, व्यंग्य इसी यश की सार्थकता पर जीने के लिए मौत-मट्टी कर्ममें भी सकारात्मक खोज स्वयं को सार्थक सिद्ध करने वाले, मौत प्रेमीव्यक्ति की जीवन गाथा है । “जीवन से ऐसा द्वेष और मृत्यु से ऐसा प्रेम- क्या कहा जाए ? मनुष्य के भीतर रहस्य की कई परतें होती हैं। कहाँ तककोई परतें खोलेगा?”14 कबीर अपने सरोकारों और विचारों से एककालजयी लकीर खींचते हैं और वह कालजयी इस परिप्रेक्ष्य में हो जातेहैं कि उस पर नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिए की ही तर्ज़ परप्रासंगिकता का रंग चढ़ता जाता है। वे खरे हैं पर अपने खरेपन मेंस्वाभाविक हैं और परसाई भी अपनी इसी भंगिमा में कबीर की परम्परा में खड़े नज़र आते हैं। संग्रह के ही ‘कबीर समारोह क्यों नहीं’, लेख में परसाईमध्ययुगीन कवियों की सामाजिक चेतना की बात और वर्तमान परिवेश कीमनोवृत्ति की तुलना करते हैं। “कबीर ने जीवन को आर-पार देखा था।समाज व्यवस्था के पाखंड और अंतर्विरोधों को समझा था, पाखंड कोसमझा था और तिलमिला देने वाली चोट की थी। वह हिंदू- मुस्लिम, ब्राह्मण- शुद्र के भेद का शत्रु था। मुझे आश्चर्य है कि कबीर को ज़िंदा कैसेरहने दिया गया? चार -पाँच सौ साल पहले किसी की गर्दन उतार लेनाआसान काम था। मुझे लगता है कबीर अपने ज़माने का बड़ा गुंडा भी रहाहोगा और उसके हज़ारों लड़ाकू चेले उसकी रक्षा करते होंगे। वह केवल कबीर था जो आज भी मॉडर्न है और भारतीय समाज का सच्चा प्रतिनिधि कवि है।”15 ‘कहाँ है भारत भाग्य विधाता’, में परसाई जी लोकतंत्र औरराजनैतिक तंत्र के फ़ासले और तासीर पर चुटकी लेते हुए लिखते हैं, “ हुआ यह है कि लोकतंत्र के रास्ते पर आम आदमी तो आगे बढ़ गयाक्योंकि उसका ध्यान चलने पर ही है , मगर नेता पीछे रह गए। वे एक-दूसरेको लत्ती मारकर गिराते हैं , फिर उठते हैं , हाथ-पाँव की चोट सहलाते हैं , एक दूसरे पर थूकते हैं , फिर लात मार गिरते -गिराते हैं , धूल चाटते हैं-गोया वहीं लड़ते -झगड़ते भाड़ झोंक रहें हैं और जनता आगे निकल गई है। वे जहाँ एक ओर तुलसीदास चंदन घिसै सरीखे व्यंग्य लिखकर बुद्धिजीवियों का परिचय अपनी क्लासिक परंपरा से करवाते हैं वहीं भेड़तंत्र औऱ झुंड तंत्र की बात करके आधुनिक आश्रित संस्कृति की ओरइशारा करते हैं । वे लिखते हैं, “मेरी एक नयी मुसीबत पैदा हो गई है।जब मैं ऐसी बात करता हूँ जिस पर शर्म आनी चाहिए, तब उस पर लोगहँसकर ताली पीटने लगते हैं ।”16
हर व्यक्ति हेय को दूसरों पर लाद देता है और श्रेय खुद ओढ़े रखता है ।दूसरों पर लदे रहने के इस सुभीते पर परसाई का कहना है कि, “शरीर जबतक दूसरों पर लदा है, तब तक मुटाता है। जब अपने ही ऊपर चढ़ जाताहै, तब दुबलाने लगता है। जिन्हें मोटे रहना है, वे दूसरों पर लदे रहने का सुभीता कर लेते हैं- नेता जनता पर लदा है, साधू भक्तों पर, आचार्य महत्त्वाकांक्षी छात्रों पर, और बड़ा साहब जूनियरों पर ।” सामाजिक विसंगतियों का जड़ यही अहंवाद है, कोरा स्वार्थ है। जनता के सामने यों अनेक संकट हैं पर सबसे बड़ा संकट आस्था का संकट है। परसाईआवारा भीड़ के ख़तरे बताते हुए लिखते हैं, “दिशाहीन, बेकार, हताश,नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ ख़तरनाक होती है।इसका उपयोग महत्त्वाकांक्षी ख़तरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति औरसमूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर औरमुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगतीहै। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्मादऔर तनाव पैदा कर दे। फिर इसी भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकतेहैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारेराष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिएकरवाया जा सकता है।” (आवारा भीड़ के ख़तरे, व्यंग्य से उद्धृत) इस व्यंग्य की ही बानगी लें तो युवा ऊर्जा एवं उत्साह को कभी भी भ्रमित किया जा सकता है। युवाओं की ज़िद और अहं ब्रह्मस्मि समझने की मानसिकताभी शाश्वत रही है। और पीढ़ियों के अंतराल को देखें तो प्रतिवाद करने कीहिम्मत भी अधिक बढ़ी हुई ही नज़र आती है। वे सिद्धान्तों की व्यर्थता कीबात करते हैं, और उस व्यर्थता में आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच कीबारीकियों को भी समझाते हैं।
परसाई जी से एक बार उनके हास्य-व्यंग्य पर छपे एक सधे हुए और तनिक कठोर लेख पर किसी ने लिखा कि- ऐसा मालूम होता है कि आप हँसने के खिलाफ़ हैं। आदमी के हास- परिहास से आपको क्यों एतराज है? इसका जवाब देते हुए वे लिखते हैं कि, “मुझे कैफियत यह देनी है कि मैं व्यंग्य इसीलिए लिखता रहा हूँ, कि स्वस्थ स्थितियाँ बनें, कि हर आदमी हँसता हुआ दिखे। कोई मनहूस, चिंतित या रोनी सूरत का नहीं हो।हँसना बहुत अच्छी बात है। प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा है जिसे हँसने कीक्षमता प्रकृति ने दी है।...हँसना सबसे प्रभावी मानवीकरण करता है।”(वनमानुष नहीं हँसता व्यंग्य से) परसाई निर्मल हास की बात करते हैं।वनमानुष और लकड़बग्घे के हास से परे वे निर्मम परिस्थिगत विसंगतियोंपर हँसने की बात कहते हैं। और यहाँ पर वे शमशेर से सहमत होते नज़रआते हैं कि -
“दुनिया में हैं एक से एक काबिल शमशेर
है काम ये शायर का नहीं दिल शमशेर
हँसते-हँसते उठाना एक उम्र का बोझ
कहना आसान करना मुश्किल शमशेर ।”
परसाई का मानना है कि कसमसाना और विशेषकर समाज काकसमसाना प्रगति का लक्षण है, परिवर्तन का लक्षण है। जो समाज कसमसाता नहीं वह जड़ रह जाता है। “इस कसमसाहट के कारण इक्का-दुक्का घटनाएँ होती हैं। ये प्रतीक हैं-व्यापक परिवर्तन और विकासकी इच्छा की । ये घटनाएँ अच्छी भी होती हैं और दुखदायी भी।”(हरिजन,मन्दिर,अग्निवेश – व्यंग्य से)
राजनीति एक शाश्वत दम्भ का परचम लेकर चलती है और मनुष्य, मनुष्य को सशंकित दृष्टि से देखने का आदी हो गया है। इन सब परिस्थियों मेंदेश की सामाजिकी कस तरह टूटकर अश्रद्धेय हो जाती है; ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’(1981),व्यंग्य इन्हीं स्थितियों और चुनौतियों पर एक चुहल के साथ चिंता ज़ाहिर करता है । साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त यहकृति और इसका प्रत्येक व्यंग्य अपनी सहजता और पैनेपन में अनूठा है।यह संग्रह लिखा ज़रूर 1975-1979 तक की अवधि में लिखी रचनाओं काहै; पर ये रचनाएँ समय के साथ चलती हुई सी प्रतीत होती हैं। परसाईका लिखा वह दौर आज भी जस का तस है। वर्तमान समाज पराकाष्ठा केदर्ज़े तक असहिष्णु हो गया है। “इस दौर में चरित्रहनन भी बहुत हुआ।वास्तव में यह दौर राजनीतिक गिरावट का था। इतना झूठ, फ़रेब,छलपहले कभी नहीं देखा। दग़ाबाजी संस्कृति हो गयी थी। दो मुँहापन नीति।बहुत बड़े-बड़े व्यक्तित्व बौने हो गए। श्रद्धा सब कहीं से टूट गयी।आत्म-पवित्रता के दंभ के इस राजनीतिक दौर में देश के सामाजिक जीवनमें सबकुछ टूट-सा गया । भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति ने अपना असर सबकहीं डाला। किसी का किसी पर विश्वास नहीं रह गया था- न व्यक्ति पर, न संस्था पर। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का नंगापनप्रकट हो गया। श्रद्धा कहीं नहीं रह गई। यह विकलांग श्रद्धा का दौर था। ”17 या कि...है ? इन लेखों में जो निबंध के रूपबंध में किस्सागोई की रवानगी से आप्लावित हैं, में व्यक्ति के अव्यक्ति हो जाने की इच्छा है, बेईमानी के सौन्दर्यशास्त्र पर चर्चा है और पवित्रता की निर्दोष व्याख्या है।ग़ौरतलब है कि पवित्रता का दौरा हर दौर के व्यक्ति को पड़ता रहता हैजैसे कि यह मनुष्यता का शाश्वत पैमाना हो । “पवित्रता ऐसी कायर चीज़है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है। अपनेपवित्र होने का अहसास आदमी को ऐसा मदमाता बनाता है कि वह उठेहुए सांड की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों कोरगेदता है। पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता हैजिसके पाँव में घुँघरू बाँध दिए गए हों। वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गंदीनाली के किनारे की दुकान पर रखी है। यह इत्र गंदगी के डर से शीशी मेंही बंद रहता है।”18 ये निबंध मौज़ूदा दौर के अभिव्यक्ति के ख़तरों की ओरभी इशारा करते हैं। परसाई एक सजग चिंतक की तरह परिस्थितियों; फिर चाहे वे राजनीतिक हो या सामाजिक, बेलाग टिप्पणी करते हैं, क्यायह सहनशीलता आज के दौर में संभव है। निसंदेह नहीं, इसीलिए परसाईके लेख यह चिंतन करने की दृष्टि देते हैं कि यह बदलाव , असहिष्णुताऔर असहमतियों का धुर विरोध कब और कैसे विकसित हुआ, जिसनेसमूचे राष्ट्र को ही अपने ज़द में ले लिया है।
आज़ादी के बाद के भारत और उसकी समस्याओं को परसाई ने अपनेव्यंग्य संग्रहों में याथातथ्य ज़ाहिर किया है। ‘काग भगोड़ा’ (1983), संग्रहके प्रारम्भिक परिचय में लिखा गया है कि, परसाईं एक ख़तरनाक लेखक हैं, ख़तरनाक इस अर्थ में कि उन्हें पढ़कर हम ठीक वैसे ही नहीं रह जातेजैसे उनको पढ़ने के लिए होते हैं। दरअसल वे हमारेराजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन के यथार्थ के इतिहासकार हैं। स्वतंत्रता केबाद के मानवीय-भारतीय जीवन मूल्यों के विघटन का इतिहास जब भीलिखा जाएगा तो परसाई का साहित्य निसंदेह संदर्भ- सामग्री का कामकरेगा। दुर्भाग्य यह है कि उनकी इंगित की गईं विसंगतियाँ आज भी जसकी तस हैं। परसाई ठीक-ठीक जानते हैं कि सामयिक जीवन कीव्याख्या, उसका विश्लेषण-भर्त्सना-मूल्यांकन एवं विडंबना के लिए व्यंग्यसे बड़ा कारगर हथियार और दूसरा नहीं हो सकता, इसीलिए उन्होंने अपनेलिए व्यंग्य की विधा चुनी ।
‘तुलसीदास चंदन घिसैं’ (1986), संकलन में ‘तुलसीदास चंदन घिसैं’और ‘सुनो भई साधौ’, खंडों में 31 व्यंग्य हैं। इन लेखों में वे अकेलेपन औरनिर्वासन, रामराज्य, संस्कृति की रक्षा, मूल्यों के उलटफेर और लोकतंत्रकी सहेजन जैसे विषयों पर तुलसी के ब्याज से बात करते हैं। संकलन में तुलसी और रामराज्य प्रकारान्तर से हर लेख में मौज़ूद है। तुलसी यहाँभारत भ्रमण पर हैं और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों औररामराज्य का तुलनात्मक अध्ययन कर रहें हैं। “चित्रकूट वह जगह हैं जहाँ राजनीतिक दुर्गति के दिन गुजारे जाते हैं । राम ने वनवास के कुछ दिनयहाँ गुज़ारे थे। अब्दुर्रहीम खानखाना ने भी अपने राजनैतिक दुर्दिन यहाँगुजारे थे- ‘चित्रकूट में बसि रहे रहिमन अवध नरेश, जा पर विपदा पड़त हैसो आवत यहि देश’ ।”19 इस प्रसंग के ब्याज से परसाई तात्कालिकराजनीतिक गतिविधियों और उनके सरोकारों का उल्लेख करते हैं। इनलेखों में विचारों की आड़ में समाजवाद-साम्यवाद और राष्ट्रवाद पर व्यंग्यकसा गया है तो तुलसी और उनके मानस में व्यक्त विचारों का भी सजगपाठ प्रस्तुत किया गया है।तुलसी की सामन्तवादी दृष्टि, जय संबंधी प्रश्न, स्त्री विरोधी और वर्णवादी सोच सरीखे आक्षेपों पर परसाई ने तुलसी से कहलवाया है कि, “भाई हर कवि कुछ हद तक अपने युग के विश्वासों से बँधा होता है। फिर वह क्षमता के अनुसार नवीन चिंतन भी करता है।तुम्हारी शिकायत ठीक है, पर मेरी भी मजबूरी थी। सामंतवाद से दूसरीव्यवस्था की कल्पना भी मेरे समय में संभव नहीं थी तो मैंने एक आदर्श, मर्यादावान, प्रजापालक राजाराम की कल्पना की। पर तुम मेरे दूसरेविचारों को भी तो देखो। किसी संदर्भ में मैंने भाग्यवाद का उल्लेख कियाहै तो कहीं यह भी तो लिखा है- ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करहिं सो तस फल चाखा ।’ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में किसी बात कोनहीं समझेंगे तो सब ग़लत हो जाएगा।”20
परसाई एक विचारक की भूमिका में सर्वत्र नज़र आते हैं । वे व्यवहार और सिद्धांत के माध्यम से तर्क और हास्य के सुगठित ताने-बाने में व्यंग्य को लेकर उपस्थित होते हैं । कमला प्रसाद जी की यह टीप लेख के सार कोप्रस्तुत करती हैं कि,“हरिशंकर परसाई समाज की पटरी से उतरती गाड़ीको सीधे रास्ते में लाने का प्रयत्न करते हैं । भ्रम और शक्तिशाली माया-जाल पर तीखे प्रहार करने का साहस परसाई के लेखन में निरन्तरमौज़ूद है । अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक संदर्भों की पहचान के भरोसे परसाई के निबंधों में लोकव्याप्ति का गुण पाया जाता है । ख़ूबी यह है कि वस्तु और भाषा की सार्थक एकता के लिएपरसाई बेमिसाल हैं ।”21