भाषा का प्रयोक्ता हर व्यक्ति होता है लेकिन लेखक सामाजिक सम्पदा के रूप में एक ज़िम्मेदारी के साथ भाषा का प्रयोग और प्रसार करता है। लेखक एवं पाठक दोनों ही साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के भी साक्षी बनते हैं। भाषा एवं उसका साहित्य किसी भी समाज, उसकी प्रगति, उसके प्रश्नांकन, उसकी बेचैनी और समय को दर्ज़ करता है। यही वो माध्यम है जो समय को बदलने की भी कुव्वत रखता है और कई बार समय के बरक्स प्रतिसमय भी रचता है। तकनीक, प्रतिस्पर्धा और लगभग अराजक हो चुके समय में जब हर तरफ कृत्रिम विद्वत्ता का बोलबाला है, ऐसे में सहज और सजग साहित्य की रचना किसी सात्त्विक यज्ञ से कम नहीं है, पर प्रश्न फिर उठता है कि क्या इस अधीर समय में धैर्यवान साहित्य की रचना हो रही है ? अशोक वाजपेयी कभी-कभार में इस पर। पूरी आश्वस्ति के साथ कहते हैं कि, ‘साहित्य सारे झूठों से घिरे रहकर भी यथासंभव सच कहने, सच पर अड़े रहने और अलोकप्रिय हो जाने, अकेले और निहत्थे पड़ जाने तक का जोख़िम उठा रहा है।’ भाषा जब जनसंपर्क का और लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों की साक्षी की भूमिका में है तो उसके साहित्य को भी यह ज़िम्मेदारी तो उठानी ही पड़ेगी, इसलिएवरिष्ठ कवि की साहित्य से यह अपेक्षा ज़रूरी जान पड़ती है।
भारत और फिज़ी की राजभाषा और विश्वभाषाओं की श्रेणी में शुमार हिन्दी अपनी बोलियों और उपबोलियों से एक विशाल शब्दकोश का निर्माण करती है। लोकोक्तियाँ और मुहावरे इसकी आर्थी व्यंजना को प्रभावशाली बनाते हैं तो अरबी-फ़ारसी और तत्सम शब्दों का सम्मिश्रण इसे अद्भुत सर्वसमावेशी कलेवर प्रदान करता है। इसकी देवनागरी लिपिइसे भाषायी पहचान और स्थायीत्व प्रदान करती है तो वही जनसंपर्क में इसकी महती भूमिका के कारण इसके प्रयोक्ता इसे राष्ट्रभाषा की पहचान दिलाने की ज़द्दोज़हद में भी शामिल नज़र आते हैं । हिन्दी का साहित्य पाठक को मानवीय और लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ के साथ-साथ प्रश्नवाचकता एवं सहमति-असहमति के विवेक का ज्ञान भी प्रदान करता है। खुसरो,कबीर, सूर, तुलसी,मीरा, जायसी के पदों से लेकर भारतेन्दु, सरस्वती और आधुनिक पत्रिकाओं तक का सफर इसका गवाह स्वयं है। लघु पत्रिका आंदोलन की बात की जाए या अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्यिक उपक्रमों की तो गंभीर साहित्य का रचाव यह स्वयं बताता है कि उसकी पाठकों के बीच कितनी आवाजाही है, कितनी लोकप्रियता है और वह मानसिक खुराक के लिए कितना ज़रूरी भी है। कबीर वाणी का पुनःपाठ हो यामीरा की साहित्यिक उपस्थिति हो या पद्मावत के प्रतीकात्मक कथानक की सत्यता, सभी विषयों को ही आलोचक एवं अध्येता विविध शोध-प्रविधियों से नयी भंगिमाओं के साथ सामने ला रहे हैं। शोध की ये नवीन दृष्टियाँ समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी नयी अवधारणाओं और स्थापनाओं को सामने लाने का भी अभिनव प्रयास है। साहित्य की यह गतिशीलता शोध की नयी संभावनाओं और विधात्मक प्रयोगों के आग्रह को दर्शाती है। कथेतर विधा का विकास भी साहित्य की इसी गतिशीलता का ही प्रमाण है।
आज की भागदौड़ और प्रतिस्पर्धा के समय में हर भाषा के साथ ही हिन्दी भाषा भी प्रयोग के अतिरिक्त नवाचारों की माँग रखती है और यह कार्य अकादमिक संस्थाओं की ज़िम्मेदारी के द्वारा ही फलीभूत भी हो सकता है। भाषा की ही तरह उसका साहित्य भी उसके अध्ययन-मनन की माँग रखता है अतएव किसी भी भाषा के सौन्दर्य और उसकी चारुता में अभिवृद्धि के लिए शाब्दिक सम्पदा का अधिकाधिक उपयोग और नए तथा शब्दों के पर्यायवाची रूपों का आग्रह, भाषा की सामासिकता तथा अन्य देशज रूपों का अधिकाधिक प्रयोग भाषा को संवर्धित एवं उसे अक्षुण्ण रख सकता है तथा उसके साहित्यिक वितान को भी वैश्विक पहचान दिलाने में महनीय भूमिका अदा कर सकता है।
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