बातचीत
वरिष्ठ साहित्यकार श्री गोपाल माथुर से
विमलेश शर्मा की
1 सितम्बर, 1949 को जन्मे गोपाल माथुर भारतीय साहित्यिक फलक में एक बड़ा नाम हैं। वे अनेक विधाओं में लिखते हैं और समसामयिक विषयों और रचनाओं पर पैनी नज़र भी रखते हैं। उनकी अनेक कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, अनुवाद और संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी ख़ूबी है कि वे संजीदा लेखक होने से पहले एक गंभीर पाठक हैं। संवेदनशील मन के धनी गोपाल माथुर को भाविक मन का तारल्य भाता है, और यही रंग उनकी रचनाओं में भी मुखर है। विजयदान देथा के सान्निध्य में उन्होंने कहानियों की बुनावट को जाना- समझा है और निर्मल वर्मा के पाठक के तौर पर वे जीवन के एकांत को शाब्दिक अर्थवत्ता प्रदान करना बख़ूबी जानते हैं। प्रकृति उनके जीवन का राग और प्रारम्भिक जीवनानुभवों का संस्कार है। गोपाल माथुर को उनके संग-साथ के लोग दादा कहकर बुलाते हैं। जो सौम्यता और सहजता उनके व्यक्तित्व में है, वह ही उनके लेखन में भी उतरकर आई है। रचना लिखने के बाद प्रकाशन की अवधि और उसके पश्चात् पाठक के हाथ में रचना के आने की प्रक्रिया तक का समय, दादा के लिए एक परीक्षार्थी के मन-सा भयाकुल होता है; मानो कोई बालमन अपना परिणाम जानने के लिए पाठक का मुँह एकटक ताक रहा हो। निःसंदेह यह सहजता, स्वयं को लगातर तराशने की ज़िद और विनम्रता ही एक लेखक को बड़ा बनाती है। गोपाल माथुर अपनी शैली और विषय के साथ प्रयोग के नाविन्य के लिए जाने जाते हैं। शब्द- प्रयोग में वे बेजोड़ हैं और कथ्य को नज़ाकत के साथ बाना पहनाने में सिद्ध-हस्त, यह वैशिष्ट्य ही उन्हें लेखकों की भीड़ में अलग भी खड़ा करता है। उनके विषय अनूठे हैं और मन के बियाबान और संवेदनाओं की खोह में चुपचाप उतरते हैं। किसी मन के एकांत की परतों को जानना हो तो गोपाल माथुर के लिखे को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है।
उनकी रचनाओं में, ‘तुम’ ( काव्य संग्रह,2009), ‘लौटता नहीं कोई’ (उपन्यास,2010), ‘आस है कि छूटती नहीं’ (नाटक,2010),’बीच में कहीं’ (कहानियाँ,2011), ‘लम्बे दिन की यात्राः रात में’ (अंग्रेजी नाटक का हिन्दी अनुवाद,2012), , ‘धुँधले अतीत की आहटें’ (उपन्यास,2016), ‘जहाँ ईश्वर नहीं था’(कहानी संग्रह,2020), ‘ढलती शाम के लम्बे साये’ (उपन्यास, 2022), और ‘उदास मौसम का गीत’ (उपन्यास, 2023) प्रमुख हैं। उनकी कहानियाँ, लेख एवं संस्मरण प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रहे हैं। इस रचाव की ख़ूबी है कि यह पाठक के मौन से संवाद करता है, लेखक का अबोलापन शब्दों के माध्यम से पाठक में घुलता है और पाठक उस रचना से एकाकार हो जाता है। इन रचनाओं में कहीं झरती शाख का दुःख है तो कहीं ढलती शाम का अकेलापन , गोया कोई उदास मन को सलीके से तरतीब दे रहा हो। एक मुखर मौन इन रचनाओं की ख़ूबी है ।गोपाल माथुर की रचनाएँ जीवन को ‘तथाता’भाव से देखती हैं, इसलिए काल्पनिक नहीं होकर, यथार्थ के निकट हैं; और रचनाओं का यही रूप और जीवट को फिर-फिर उरेहने का दर्शन ही पाठक की संवेदना को प्रभावी रूप से स्पर्श करता है। जीवन की घटनाओं की अंतर्ध्वनि, अनुपस्थित को उपस्थित (वातावरण-विधान) करने की रीति, समकालीन संदर्भों की विवेचना, गोपाल माथुर की रचनाओं की पीठिका है । इन विषिष्टताओं से परे लेखक में किसी विलक्षण को रचने का दंभ नहीं है, उनकी रचनाएँ उनके जीवट का पर्याय है और लेखन की निरन्तरता उनकी सतत साधना।
... उनके इस जीवट और शब्दों की अनवरत साधना को बारम्बार प्रणाम!
साक्षात्कार-
विमलेश शर्मा- राजस्थान साहित्य अकादमी के ‘विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’ के लिए बहुत बधाई। पुरस्कार स्वीकार्यता का सुख देते हैं, आप इसे पाकर कैसा महसूस कर रहे हैं ?
गोपाल माथुर- इसमें कोई संदेह नहीं कि जब आपके काम की सराहना की जाती है और उसे सार्वजनिक पहचान मिलती है तो लेखक को भला ही महसूस होता है। मैं अपवाद नहीं हूँ. लेखक होने से पहले एक सामान्य व्यक्ति हूँ और उन्हीं की तरह सामान्य भावनाओं से संचालित भी होता हूँ। मैं भी खुश हूँ। मेरी ख़ुशी का एक अतिरिक्त कारण यह भी है कि इस सम्मान के लिए न तो मैंने अपनी कोई किताब भेजी थी और न ही अकादमी को निवेदन किया था। मुझे यह सम्मान देना अकादमी का अपना निर्णय है, जिसके लिए मैं अकादमी का आभारी हूँ।
विमलेश शर्मा- आपका जन्म माउन्ट आबू में हुआ है। क्या बचपन की स्मृतियाँ आपके लेखन को प्रभावित करती हैं, उन दिनों के बारे में कुछ बताइए।
गोपाल माथुर- जब इस दुनिया में आँख खुली, स्वयं को पहाड़ों से घिरा पाया। लगातार बरसते बादल, कोहरा, ऊँची नीची सड़कें, अर्बुदा देवी के मंदिर से आती घन्टियों की आवाज़ें, नक्की लेक की बोटिंग, गुरूशिखर की दुर्गम चढ़ाई...ये कुछ ऐसे चित्र हैं, जो मन के एक कोने में स्थाई रूप से बस गए हैं। घर से स्कूल बहुत दूर था और पिता के ऑफिस की जीप हम बच्चों को स्कूल तक छोड़ने और लेने आया जाया करती थी। माँ वहीं एक क्रिश्चियन स्कूल में संगीत सिखाया करती थीं। वहीं मैंने पहली बार चर्च, सिमिट्री और गले में क्रोस पहने हुए सफेद कपड़ों में फादर को देखा था। कुछ था, जो मेरे बाल मन को गहरे छू गया था। वह अनूठा अहसास आज भी हॉन्ट करता है। तब नहीं जानता था कि आने वाले कल में ये सब मेरी कहानियों में प्रतीक बनकर उभरेंगे। कहीं पढ़ा था कि आपको अपना बचपन पहाड़ों पर नहीं गुजारना चाहिए. वे फिर उम्र भर आपका पीछा नहीं छोड़ते। मेरे साथ भी ठीक यही घटित हुआ। मेरे लेखन में प्रकृति बार बार चली आती है।
अपने स्कूली दिनों में मैंने पहली बार “ईदगाह” कहानी पढ़ी, जो उन दिनों कोर्स में हुआ करती थी। कहानी ने मेरे बाल मन पर गहरा असर डाला था और कई दिनों तक मैं उसके आसन्न प्रभाव में यहाँ वहाँ भटकता रहा। माँ अपने स्कूल से बच्चों की पत्रिकाएँ ले आतीं और मैं उन्हें चाट डालता था। इतना ही नहीं, अपने से बड़े बच्चों के हिन्दी गद्य पद्य संग्रह भी मैंने पढ़ डाले थे। उनमें से ही एक थी - “पंच परमेश्वर”,इस कहानी ने मुझे हिलाकर रख दिया था। कहानियाँ पढ़ने का बीज मैंने वहीं स्वयं में रोपित किया था। आने वाले वर्षों में मैंने इस बीज को पल्लवित और पुष्पित होते देखा। तेरह वर्ष की वय होने तक मैं आबू में ही रहा।
विमलेश शर्मा- लगातार सृजन का सुख उठाने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। आप लगातार लिख रहे हैं, आपकी कहानियाँ, उपन्यास प्रकाशित हो रहे हैं। अपनी लेखन यात्रा को आप किस तरह देखते हैं ?
गोपाल माथुर- एक रचनाकार का पैशन ही उसकी प्राणवायु होता है। इसे आप मेरा जुनून ही समझिए जो लगातार मुझे रचते रहने के लिए बाध्य करता रहता है। यह जुनून मुझमें कैसे आ बैठा, इसे समझने के लिए एक बार फिर पीछे अतीत में जाना होगा। राजस्थान विश्वविद्यालय में अपने स्नात्कोत्तर अघ्ययन के दौरान वर्ष 1972-74 के दिनों में मैंने साहित्य पढ़ना शुरू किया, जो देखते ही देखते कब पैशन में बदल गया, मुझे पता ही नहीं चला. देर रात तक वहाँ की लाइब्रेरी में किताबें पढ़ते हुए समय व्यतीत होने लगा था. उन्हीं दिनों चैखव, गोर्की, सैम्युअल बैकेट, हरमन हैस्से, वर्जीनिया वुल्फ, कामू, काफ़्का, यान ओत्चेनाशेक आदि विश्व प्रसिद्ध लेखकों को ही नहीं; अज्ञेय, टैगोर, मोहन राकेश, ऊषा प्रियम्वदा, अश्क, कृष्ण चन्दर, मंटो, अमृता प्रीतम आदि देशज लेखकों की किताबों से भी परिचय हुआ। पर सबसे ऊपर थे रामकुमार और निर्मल वर्मा। कालान्तर में ये दोनों मेरे आदर्श बने। बड़े लेखकों में यह कूव्वत होती है कि वे अपने लेखन से मन की अनसुलझी गाँठें खोल देते हैं और आपको उस सच के सामना करने का साहस देते हैं, जो आपको परेशान कर रहा होता है. इन दोनों ने यही किया। जब भी मैं अपरिचित और अँधेरी तंग गलियों से गुजरने लगता हूँ, ये मुझे हमेशा उस स्थान पर ले जाते हैं, जहाँ लेखन का उजाला मेरे स्वागत में खड़ा होता है.... पर यह बहुत बाद की घटना है।
सच तो यह है कि तब मेरे मन में किंचित मात्र भी यह ख्याल नहीं आया था कि मुझे भी लिखना चाहिए, हालांकि प्रेम और प्रकृति पर कुछ कविताएँ अवश्य लिखी थीं, जो 35 साल बाद वर्ष 2009 में “तुम” शीर्षक से प्रकाशित भी हुईं। यह मेरी पहली किताब थी, किन्तु शीघ्र मुझे अहसास हुआ कि मैं स्वयं को कविताओं में ठीक ढंग से अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ...फिर एक दिन मैंने स्वयं को गद्य से अपने हाथ मिलाते पाया...और एक बार निर्णय ले लेने के बाद, बहुत से अन्तर्द्वंद्व स्वतः ही समाप्त हो गए। बस, तभी से कहानियाँ और उपन्यास लिख रहा हूँ। लगभग बारह साल पहले इस यात्रा की शुरूआत हुई थी और आज भी अनवरत जारी है।
विमलेश शर्मा- आपकी रचनाओं में मन के भाव आकार पाते हैं। संवाद, पात्र अपने भीतर के दुःख की बाँह पकड़ डूबते-उतरते हैं। वहाँ घटनाक्रम या परिवेश उतना हावी नहीं होता। यह आपके लेखन की तासीर है या विशेष शैली ? आप इस बुनावट को किस तरह देखते हैं ?
गोपाल माथुर- कहानी केवल तेजी से बदलते घटनाक्रम का नाम नहीं है। घटना कहानी में केवल एक फैक्टर होती है। जब किसी घटना को संवेदना का जामा पहनाया जाता है, कलात्मक शिल्प में उसे व्यक्त किया जाता है, विषय को सलीके से ट्रीट किया जाता है, शब्दों और पंक्तियों के बीच खाली स्पेस को ध्वनित किया जाता है, तब जाकर एक कहानी बनती है। इतना ही नहीं, कहानी संवाद, बिम्ब, टैक्सचर, निर्वाह और अपने कहन से भी कही जाती है। दुःख कहानी का वह धागा होता है, जिसके आसरे कहानी का केन्द्र बिंदु उदघाटित होता है। अतः एक लेखक को सलीके से दुःख कहना आना चाहिए। मैंने भी अपनी कहानियों में इन बातों का ध्यान रखकर उन्हें लिखने का प्रयास किया है। मेरे लिए कहानी में घटना के स्थान पर पात्रों के मन में चल रहे अन्तर्द्वंद्व अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। इसे तासीर नहीं, शैली कहना अधिक उपयुक्त होगा। और अब तो लिखते लिखते यह शैली मेरी पहचान बन गई है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे अधिकतर कहानियों के लिए कथ्य के पास नहीं जाना पड़ता, बल्कि वे स्वयं मेरे सामने प्रकट हुए... सड़क पर चलते समय लगा, जैसे किसी ने पीछे से पुकारा हो, या किसी युवक को झील पर अकेले चुपचाप खड़े देखकर, या किसी शाम आकाश में बदलते रंगों को देखकर, या किसी वृद्ध दंपति को बगीचे में धीरे-धीरे घूमते हुए देखकर एक कौंध सी महसूस होती है। वह कौंध मुझे पकड़ लेती है और मेरे जागने-सोने में शामिल हो जाती है...इनके अतिरिक्त कोई अधूरा संकेत, दूर कहीं पुराना बजता कोई गीत, कुछ ध्वनियाँ, कुछ गंध, कोई धुन...ऐसी ही अनेक संवेदनाएँ कहानी के जन्म का कारण बनती हैं। अधिकतर ये संवेदनाएँ किसी न किसी स्मृति से जुड़ी होती हैं या किसी रिसते घाव से या फिर किसी छूटे हुए स्पर्श से. कहानी में कोई न कोई टीसता घाव अवश्य होता है, जो कहानी लिखने का सबब बनता है।
विमलेश शर्मा- आपकी रचनाओं के कथानक गंभीर होते हैं और शीर्षक उनकी लघु व्याख्या सरीखे। रचनाओं का कथ्य बेहद सादा होता है और घटनाओं का बाहुल्य उसे बोझिल नहीं बनाता । आपके कथानक चुनने की रीति और पात्रों के इस निर्मिति संसार से हमारा परिचय करवाइए।
गोपाल माथुर-कथानकों का गंभीर होना शायद मेरी अपनी वृत्ति से जुड़ा हो। चाहे लेखक हों या पाठक, वे अपने मनानुसार विषय प्राप्त कर ही लेते हैं। मैं भी अलग नहीं हूँ। कहानी की थीम अपनी झलक दिखाकर अदृश्य नहीं होती, हृदय के किसी कोने में अपना घर बनाकर रहने लगती है और किन्ही असावधान क्षणों में वह मुझे पकड़ भी लेती है। मैं तब तक बेचैन रहता हूँ, जब तक कि वह अनुभव शब्दों में अभिव्यक्त नहीं हो जाता। यह अभिव्यक्ति ही कहानी होती है। एक बार कहानी की थीम सुनिश्चित होने के बाद उसका परिवेश, पात्र, शैली, टैक्सचर आदि स्वमेव कपड़े पहनकर उपस्थिति होने लगते हैं. कहानी कहाँ घटित होगी, पात्र क्या संवाद बोलेंगे आदि प्रश्न अपने आप ही तय होते चलते हैं। पात्र अपना संसार खुद गढ़ते हैं। मेरे लिए यह एक सहज प्रक्रिया है, जिसमें कहानी बहते झरने सी स्वयं को लिखवाती चलती है। मेरा मानना है कि कहानी का स्वयं चलकर लेखक के पास आना किसी चमत्कार से कम नहीं है। रही बात शीर्षकों की, तो मैं बताना चाहूँगा कि मुझे व्यक्तिशः काव्यात्मक शीर्षक अच्छे लगते हैं। उनमें एक लय होती है, एक गति होती है, जो कहानी के मूल स्वरूप के समानान्तर प्रतीत होते हैं।
विमलेश शर्मा- आपके लेखन का शिल्प पाठकों को सम्मोहित करता है। क्या आप अपना लेखन पाठकों को केन्द्र में रखकर करते हैं ?
गोपाल माथुर- शायद ही कोई ऐसा लेखक हो, जो पाठकों को केन्द्र में रखकर अपना रचनाकर्म करता हो ! लेखक प्रायः अपनी अनुभूतियों से संचालित होते है। जिन अहसासों को उसने अपने एकांत क्षणों में खोजा था, केवल वही लेखन के केन्द्र में होते हैं। लिखते हुए लेखक एक दूसरी दुनिया का वासी बन जाता है, एक एलियन, जो यहाँ होते हुए भी उपस्थित नहीं होता. यह कुछ कुछ ऐसा होता है, जैसे वह चन्दामामा की कहानी पढ़ते हुए सहसा ‘गायब’ हो गया हो, किसी दूसरे लोक में चला गया हो।
और यदि पाठक मेरी लेखन शिल्प के कारण सम्मोहित महसूस करते हैं, तो मैं इसे एक बड़ी उपलब्धि कहूँगा। पाठक को सम्मोहित कर पाना एक चमत्कार सा है। मेरी यह शैली अनायास ही मेरे पास नहीं आ गई। इसके पार्श्व में सालों पढ़ने का तज़ुर्बा जुड़ा हुआ है।
विमलेश शर्मा- हिन्दी को उसकी बोलियाँ समृद्ध करती हैं, उर्दू आपको तहज़ीब और अन्दाज़-ए-बयां सिखाती है, तो मातृभाषा संवेदनाओं को पोषित करती है. यह एक दौर का दृश्य रहा है. क्या आज दृश्य बदल रहा है ? मौज़ूदा दौर की साहित्यिकी और उसके भाषिक सरोकारों पर आपका क्या कहना है ?
गोपाल माथुर- भाषा बदलते लोक और समय के प्रवाह का विषय है। प्रत्येक कालखण्ड में वह अपना नया स्वरूप लेकर आती है। यह नया स्वरूप किसी फैक्ट्री में नहीं बनाया जाता, अपितु स्वयं लोक इसे गढ़ता है। यह एक टाइम प्रोसेस है। हिन्दी भी समय द्वारा गढ़ी गई एक ऐसी ही भाषा है। इसका कोई लोक कभी रहा ही नहीं। यह अनेक भाषाओं की शाब्दिक संपदा, संस्कारित अनुभवों और विभिन्न डायलेक्ट्स के समिश्रण का परिणाम है। लेकिन आज हिन्दी को जिस प्रकार पूरे देश में अपना लिया गया है, वह विस्मित कर देता है। दूसरी बात यह भी है कि हमारे यहाँ जो लोक भाषाएँ प्रचलन में रही हैं, उन पर आक्रांताओं का गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसके चलते हमारी भाषा में उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं के शब्द और संस्कार जुड़ते चले गए। हर पन्द्रह कोस पर बोली बदल लेने वाले इस देश में शुद्ध हिन्दी का लोक मानस में बचे रहना संभव ही नहीं रहा है। आज जो हिन्दी प्रचलन में है, वह अनेक शब्दावलियों और भाषानुभवों से उपजी है। ऐसे में हिन्दी की शुद्धता के विषय में बात करने का क्या अर्थ रह जाता है !
लेकिन एक लेखक के लिए उसकी मातृभाषा विशेष अर्थ रखती है, क्योंकि अनुभवों की सशक्त अभिव्यक्ति केवल मातृभाषा में ही संभव हो सकती है। वह संवाद भी मातृभाषा में ही करता है और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वह सपने भी मातृभाषा में ही देखता है। भाषा संस्कार देती है, जिन्हें लेखक अपनी रचनाओं में उंडेलता है। अपनी भाषा के साथ रहना, अपनी बोली में संवाद करना एक बहुत बड़ा सुख होता है। यह अलग बात है कि हम इस सुख को भूले रहते हैं। लेखक से यह सुख कोई भी छीन नहीं सकता...कहीं पढ़ा था कि एक लेखक को यह जानकर गहरा आश्चर्य हुआ ताउम्र वह अपनी ही भाषा में बात करता रहा ! हालांकि इसमें आश्चर्य की कोई विशेष बात नहीं है। कहना न होगा कि लेखक की अपनी मातृभाषा ही वह द्वार होती है, जिसके उस पार संवेदनाओं का महासमुद्र उसके सामने खुलता है।
विमलेश शर्मा- आपने कविता, कहानी और उपन्यास तीनों विधाओं में लिखा है, अनुवाद भी किया है। इनके रचाव पर आप कुछ कहिए।
गोपाल माथुर- कविताओं के विषय में आप बात न करें, तो ही ठीक होगा। अधिकतर लेखक अपने लेखन की शुरूआत कविता से ही करते हैं। मैं भी अपवाद नहीं हूँ. लेकिन अपने पहले कविता संग्रह “तुम” के प्रकाशन के तुरंत बाद मेरा कविता से मोहभंग हो गया था। या यूँ कहिए, कि मैं स्वयं को पहचान गया था कि कविता मेरे बस की विधा नहीं है। अपनी ही कविताओं से गुजरते हुए हर बार मुझे लगता था, कुछ कहा जाना था, पर कहने से छूट गया है। कोई एक शब्द, एक बिंब, एक संवेदना लिखे जाने से रह गई है, जो इन कविताओं को मुकम्मल कर सकती थी। इसी अन्तर्द्वंद्व ने मुझे गद्य का हाथ थामने का हौंसला दिया।
कहानियाँ यूँ ही नहीं कही जातीं। जब तक कोई सूक्ष्म संवेदना, कोई अहसास स्वयं मेरे अन्तर्मन पर दस्तक नहीं देता, मैं लिखना शुरू नहीं कर पाता हूँ. वे पात्रों के रूप में भी हो सकते हैं और सघन अनुभव के रूप में भी। कभी-कभी शाम के समय अपने घर की छत पर खड़े सुरमई रंगों को निहारते हुए कुछ स्मृतियाँ दस्तक देने लगती हैं, तो कभी झील के किनारे खड़ा अकेला व्यक्ति अपने समूचे अनकहे दुःख के साथ मुझमें आ बसता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि तब मैं तुरंत लिखना शुरू कर देता हूँ। लिखने से पहले मुझे अपने पात्रों के साथ दोस्ती करनी पड़ती है। उनसे एकाकार होने के बाद ही कुछ लिख पाना संभव हो पाता है। और यदि एक बार लेखन का प्रवाह स्थपित हो गया, तो फिर अपने अंत पर पहुँच कर ही थमता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरी अधिकतर रचनाओं का अंत क्या होगा, यह मैं लेखन के शुरू में नहीं जान पाया था। कहानियाँ अपने को लिखवाती चलती हैं, जैसे कलम मैंने नहीं, उन्होंने पकड़ रखी हो...कहानी या उपन्यास के पूरा हो जाने के बाद एक लम्बे अरसे तक मैं उसे देखता नहीं। फिर इम्प्रोवाईजेशन के समय स्वमेव ही पता चलता रहता है कि कहाँ-कहाँ और कितनी सुधार की गुंजाइश है।यह एक खेल की तरह है, जिसे मेरे पात्र मुझसे प्रायः खेला करते हैं।
माउन्ट आबू में जन्म लेने के कारण प्रकृति मेरी नस-नस में बसी हुई है। आबू की स्मृतियाँ ठीक वैसी हैं, जैसे कोई बच्चा सबकी आँख बचाकर इकट्ठी की कुछ तितलियाँ अलमारी में बिछे कागज के नीचे छिपा देता है। कालांतर में माउन्ट आबू छूट गया, बचपन पीछे रह गया, बरसती बारिशें पीछे छूट गईं, पुराने दोस्त आज पता नहीं कहाँ चले गए, लेकिन पहाड़ों पर रहने की सांद्र अनुभूतियाँ आज भी बनी हुई हैं। ये अनुभूतियाँ बार-बार मेरी कहानियों में सहज भाव सी चली आती हैं, मानो अपने लिखे जाने की माँग कर रही हों. मेरा उनसे बच पाना मुश्किल है। मुझे उनका ऋण तो चुकाना ही होगा।
कहना यह चाह रहा हूँ कि एक लेखक को सतर्कतापूर्वक अपने अनुभवों, दुश्चिन्ताओं और सपनों को सबसे छुपाकर रखने चाहिएँ. फिर वे अपने आप आपकी कहानियों में चले आएँगे।
विमलेश शर्माः किसी उपन्यास या कहानी को प्रभावी बनाने के लिए एक लेखक किस टेक्नीक को अपना सकता है ?आप अपने उपन्यासों और कहानियों में नयी प्रविधियों और तकनीक का प्रयोग करते हैं। क्या यह जोख़िम पाठकीय संतुष्टि में परिणत हो पाता है ? कृपया अपने अनुभव साझा करें।
गोपाल माथुर: यह लेखक की अपनी विश्लेषण दक्षता और निजी पसंद पर निर्भर करता है। एक कहानी बिना संवादों के भी कही जा सकती है और संवादों के साथ भी। अनेक लेखक कथा कहते हुए बिम्बों, रूपकों, उपमाओं आदि का प्रयोग कर उसे काव्यात्मक बनाना पसंद करते हैं, जबकि कुछ अन्य सीधे सीधे अपनी कहानी लिखते हैं। स्मृति की डोर पकड़ कर भी कथा कही जा सकती है, तो मौन की भी। कहानी का फलक भी कथ्य के अनुसार छोटा बड़ा हो सकता है। कहानी का सहज संप्रेषित होना एक बड़ा गुण होता है। कहानी को प्रभावी बनाने के लिए कोई बना बनाया प्रोटो टाइप फॉर्मूला उपलब्ध नहीं है।
एक लेखक को प्रविधियों और तकनीकी दृष्टियों से जागरूक होना आवश्यक होता है। मैं भी रहा हूँ। यह जागरूकता निरंतर पढ़ने से आती है। नए प्रयोगों का जोखिम उठाते ही मैं अपने बने बनाए खांचे से बाहर आ जाता हूँ, जहाँ खुली हवा है, सुकून है और जहाँ दम घुटने का खतरा न के बराबर है। लेकिन मैं ऐसा एक सीमा तक ही कर पाता हूँ, क्योंकि ऐसा करते ही मुझे अपने लेखन के उस कम्फर्टेबल जॉन बाहर आना होता है, जो मुझे और मेरे पाठकों के लिए सुविधाजनक है. उसे बींधकर नितांत नए जॉन में अवतरित होना अनेक शंकाओं भरा होता है. लेकिन खतरा उठाने से बचना स्वयं को किसी दूसरे खतरे में डालने जैसा होता है. विविध प्रयोग मुझे कूपमंडूक होने से बचाए रखते हैं. मेरी स्मृति में नहीं कि कभी किसी पाठक ने प्रयोगों पर आपत्ति जताई हो !
विमलेश शर्मा: मैं आपके भीतर के पाठक से रूबरू होना चाहती हूँ। आपने बहुत पढ़ा है और आज भी एक उम्दा पाठक हैं। साहित्य के कल और आज को आप किस तरह देखते हैं।
गोपाल माथुर:मैं पहले भी कह चुका हूँ कि एक लेखक को चाहिए कि वह लगातार पाठन से जुड़ा रहे। किताबें पाठक को धनवान बनाती हैं। मैं वर्ष 1972 से लगातार देश विदेश के सभी बड़े लेखकों को पढ़ता रहा हूँ, जबकि लगता है कि अभी बहुत कुछ पढ़ना शेष है। मेरी अपनी पहली किताब वर्ष 2009 में प्रकाशित हुई। पढ़ने और छपने के बीच इस लम्बे अन्तराल ने कुछ न कुछ तो मुझे रिच किया ही होगा ! एक समय था, जब कुछेक लघु पत्रिकाओं के अतिरिक्त सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान जैसी अनेक पत्रिकाएँ घर घर आया करती थीं। लोग उनकी उत्सुकता से प्रतीक्षा किया करते थे और आ जाने पर उसकी अंतिम बूँद तक निचोड़ ड़ालते थे। पर आहिस्ता आहिस्ता समय बदला और पत्र पत्रिकाएँ बंद होनी शुरू हो गई। इससे पठनीयता में कमी आई। जो समय पत्रिकाओं को दिया जाता था, वह सिनेमा, मॉल और सेंसेक्स को दिया जाने लगा।
लेकिन साहित्य अब भी अपनी जगह यथावत बनाए हुए है। मुख्य धारा की पत्रिकाएँ बंद होने के बाद छोटी पत्रिकाएँ प्रचुर मात्रा में छपने लगीं। यह न्यू ओरिएन्टेशन का ट्रान्जीशनल काल था। फिर फेसबुक, सोशल मीडिया और इन्टरनेट क्रांति ने दस्तक दी, जिसने पाठकों की ही नहीं, लेखकों को भी अभिव्यक्ति के नए और सहज माध्यम उपलब्ध कराए। किताबें पहले से कहीं ज्यादा प्रकाशित होने लगीं तथा ऑन लाइन डिलीवरी के कारण किताबें विपुल मात्रा में खरीदी भी जाने लगीं। बीते हुए कल का साहित्यिक परिदृश्य आज नए परिवेश में ढल चुका है.
आज कहानी का सेनेरियो काफी बदल चुका है। कथा शिल्प, कहन और ट्रीटमेन्ट में भी असाधारण बदलाव आया है. नए नए विषयों पर कहानियाँ लिखी जा रही हैं। गद्य लेखन का काव्यात्मक होना एक आम घटना हो चुकी है। यात्रा संस्मरण, शब्द चित्र, स्मृतियाँ, डायरियाँ आदि अनेक पक्षों पर लेखन प्रचुर मात्रा में किया जा रहा है. यह एक संतोषजनक स्थिति है।
विमलेश शर्मा: आपकी रचनाओं में पहाड़ ही नहीं, समुद्र, चर्च, सिमिट्रियाँ, एकांत, मौन आदि भी बार बार चले आते हैं। जैसा कि आपने ऊपर बताया यह नॉस्टेल्जिया ही है या कोई अन्य खास वजह ?
गोपाल माथुर: कुछ बिम्ब, कुछ प्रतीक, कुछ संवेदनाएँ आपको हमेशा पकड़े रहती हैं। इन्हें ढूँढ़ने कहीं बाहर नहीं जाना होता। ये मन के एकांत कोनों में अपना स्थाई घर बनाकर रहने लगती हैं और जब तब कूदकर बाहर आ जाती है. ऐसे में अपनी रचना में इनसे बच पाना संभव नहीं होता. मेरे लिए ये नैसर्गिक स्त्रोत हैं...एकांत का सुनहरा प्रतिफल.
लेकिन मौन की बात सबसे अलग है। एक कहानी में मौन सबसे अधिक मुखर होता है। वह जो भाषा बोलता है, उसके शब्द किसी शब्दकोश में नहीं होते,और आश्चर्य की बात तो यह है कि लेखक ही नहीं, पाठक भी मौन की भाषा पढ़ना जानता है। और यदि नहीं जानता, तो उसे जानना चाहिए। क्योंकि कहानी अनकहे को कहे जाने की अद्भुत विधा है.
विमलेश शर्मा: साहित्य पर सोशल मीडिया के प्रभाव और उसके तात्कालिकता के संदर्भों के विषय में आप क्या सोचते हैं ? कहीं यह हमारी आक्रमकता और आत्ममुग्धता को बढ़ावा देने वाला माध्यम तो नहीं बनता जा रहा ?
गोपाल माथुर: प्रत्येक माध्यम के अपने फायदे और ख़तरे होते हैं। सालों पहले, जब नेट नहीं था, तब एक लेखक के लिए स्वयं का लिखा प्रकाशित कराना बड़ी बात हुआ करता थी। उसे सम्पादकों के रिजेक्शन्स झेलने पड़ते थे। अनेक प्रयासों के बाद उसे कहीं जगह मिल पाती थी. लेकिन आज दृश्य बदल चुका है। जिसका मन करे, वही अपना लिखा पोस्ट करने के लिए स्वतन्त्र है, जो तुरंत लाखों पाठकों तक पहुँच भी जाता है। यह किसी रहस्यलोक में होने जैसा है, जहाँ पलक झपकते ही कुछ भी संभव हो सकता है। इन्टरनेट का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि आज लेखकों को प्रकाशित होने के लिए अनेक प्लेटफॉर्म्स उपलब्ध हो गए हैं। अब उन्हें छपने के लिए उन्हें सम्पादकों का मोहताज नहीं होना पड़ता। इसमें कोई शक नहीं कि इस ओपन प्रिन्टिंग स्पेस की सुविधा से लेखन का स्तर बुरी तरह प्रभावित हुआ है,जिसने अनेक स्यूडो लेखकों को जन्म दे दिया है। स्तरहीन साहित्य पर भी लोग उन्हें शानदार, बेहतरीन, उच्च स्तरीय आदि विशेषणों से नवाजने लगते हैं. अपने स्तरीय होने का भ्रम उनमें आत्ममुग्धता को जन्म देने लगता है।
लेकिन सारे लेखकों को एक ही डंडे से नहीं हाँका जा सकता। आज भी सुरुचिपूर्ण साहित्य गढ़ने वाले लेखकों की कोई कमी नहीं है। बल्कि विगत वर्षों में अच्छे लेखकों की संख्या में बहुस्तरीय इजाफा हुआ है। वे पत्र पत्रिकाओं के अतिरिक्त सोशल मीडिया पर भी लिखना पसंद करते हैं। ऐसे में जब कोई बेहतरीन कविता या कहानी आँखों के सामने से गुजरती है, तो मन अच्छे साहित्य के प्रति आश्वस्त हो जाता है।
विमलेश शर्मा: आपने बहुत कुछ लिखा है. अब आप किस विषय पर लिखना चाहते हैं ?
गोपाल माथुर: मैं विषय तय करके नहीं लिखता,लिख सकता ही नहीं। जब तक मन में घन्टी नहीं बजती, कोई विषय स्वयं ही दस्तक नहीं दे देता, एक पंक्ति भी लिख पाना मुश्किल होता है। मैं हड़बड़ी में नहीं हूँ। हालांकि जीवन का पन्ना भर गया है, केवल अंतिम कुछ पंक्तियाँ शेष बची हैं, पर मैं दो कानों के बीच से लिखने वाला व्यक्ति नहीं हूँ. मेरा लेखन मेरी जेब के नीचे से उपजता है। कम ही लिख पाता हूँ। देखते हैं, कभी तो कोई अहसास दस्तक देगा !
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इधर विविध विषयों पर मेरी कुछ कहानियाँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित अवश्य हुई हैं। ये विगत दो वर्षों में लिखी कहानियाँ हैं, जो अब पत्रिकाओं में स्थान पा रही हैं।
विमलेश शर्मा: आपके लिए लिखना क्या है ?
गोपाल माथुर: बिज्जी मुझसे कहा करते थे कि तूने बहुत देर से लिखना शुरू किया है, इसलिए अब जल्दी जल्दी और खूब सारा लिख। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका। मेरे लिए शीघ्रता से लिखना कभी भी संभव नहीं रहा है। बिज्जी, मुझे इसके लिए क्षमा करना। कहानी हो या उपन्यास, सब अपना समय माँगते हैं और मैं उन्हें यथोचित समय देना पसंद करता हूँ। लिखना मेरे लिए टाइम पास नहीं है और न ही यह कोई शगल है, यह जीने का एक तरीका है। जैसे जीवन में हमारे कई दोस्त होते हैं, परिचित होते हैं, रिश्तेदार होते हैं, उसी तरह मेरे पास लेखन है। देखा जाए तो लेखन मेरा सबसे करीबी दोस्त है, जिसे अपने भेद सौंपकर मैं निश्चिंत हो जाता हूँ। मन की अनेक उलझनें, अन्तर्द्वन्द्व और खामोशी लेखन में ही अपनी अभिव्यक्ति पाती है। किसी किसी शाम सड़क पर चले जा रहे अकेले वृद्ध को देखकर मन में कैसा कैसा होने लगता है, पेड़ के पत्तों से झरती चाँदनी कविता-सी गढ़ती महसूस होती है, किसी घर के दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षारत महिला की उदास आँखें हॉंन्ट करने लगती हैं। इन आधे अधूरे संकेतों को देखकर लगता है कि किसी अदृश्य छाया ने मुझे अपने दायरे में क़ैद कर लिया है। यह वह दायरा होता है, जिसकी चाबी लेखन के सन्दूक में बंद होती है...और फिर मैं स्वयं को लिखने के अपरिमित प्रवाह में झौंक देता हूँ। तब लिखना मुक्ति का कारण बन जाता है, स्वयं से मुक्ति का नहीं, बल्कि उन सूत्रों से मुक्ति का, जो पिछले लम्बे समय से मुझे विचलित किये होते हैं।
विमलेश शर्मा: आपने इतना कुछ रचा है जिनमें कहानियाँ, उपन्यास, स्मृति चित्र, संस्मरण आदि बहुत सी विधाएँ सन्निहित हैं. आप किस रचना को अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानते हैं ?
गोपाल माथुर: एक लेखक के लिए अपनी लिखी अनेक रचनाओं में से किसी एक पर अँगुली रख पाना बहुत कठिन काम होता है। बहुधा मैंने महसूस किया है कि एक कहानी का सच दूसरी से जुड़ा होता है। जब पहली कहानी की स्पेस अपनी बात मुकम्मल तरीके से कहने का अवसर नहीं देती, तो उसे दूसरी या तीसरी कहानी में कहना पड़ता है। इन अर्थों में सब रचनाएँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोकर एक दूसरे की पूरक बन जाती हैं। ऐसे में किसी एक रचना को सर्वश्रेष्ठ बता पाना असंभव हो जाता है. वैसे भी अभी मेरा लेखन समाप्त नहीं हुआ है. हो सकता है आने वाले समय में मैं अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाऊँ !
विमलेश शर्मा- साहित्य और राजनीति के सह-संबंध या परस्पर प्राभाविकता के सिद्धान्त को आप किस तरह देखते हैं?
गोपाल माथुर- बतौर पाठक मैं यह समझता हूँ कि कोई भी रचना अपने समय का ही पुनराख्यान है। लेखक अपने अनुभवों के माध्यम से समय को और उसके विधान को ही शब्द प्रदान करता है। राजनीति राष्ट्र को संचालित करती है अतः परिवेशगम्य होने के कारण समाज और व्यक्ति भी उसके दायरे में आता है। मेरा मानना है कि राजनीति को साहित्य से प्रभावित होना चाहिए न कि साहित्यकार को राजनीति से। साहित्य राजनीति को दृष्टि देने वाला हो, समत्व का आग्रही हो, वैचारिक और भावनात्मक दृष्टि से समृद्ध करता हो और महत्त्वपूर्ण विमर्श केंद्रित हो, तो प्रेरक और उत्प्रेरक स्वयंमेव हो जाता है।
विमलेश शर्मा : आप अपने लेखकीय अनुभवों के आधार पर नए रचनाकारों को क्या सुझाव देना चाहेंगे।
गोपाल माथुर :मैं इतना बड़ा साहित्यकार नहीं हूँ कि कुछ ओथेन्टिक वक्तव्य दे सकूँ। लेकिन अपने कच्चे पक्के अनुभवों की डोर पकड़ कर दो एक शब्द अवश्य कहना चाहूँगा। युवा पीढ़ी को चाहिए कि खूब पढ़े। पढ़कर ही उन्हें पता चलेगा कि कैसे लिखा जाता है। लगातार पठन से उनका शिल्प और शैली संबन्धी ज्ञान बढ़ेगा, नए मुहावरे सामने आएँगे और उसकी दृष्टि विकसित होगी। नए लेखकों को लिखने के बाद छपवाने या फेसबुक पर पोस्ट करने की उतावली नहीं दिखानी चाहिए। कम से कम पन्द्रह दिन उसे आलमारी में बंद कर दें। फिर जब वे कहानी को निकाल कर एक पाठक की तरह पुनः पढ़ें। उन्हें अपने आप पता चल जाएगा कि कहानी कहाँ कहाँ इम्प्रोवाईजेशन की माँग कर रही है। साथ ही अपने लिखे के प्रति आत्ममुग्धता कतई न पालें। अपने लिखे को काटना भी आना भी चाहिए। यह तभी संभव हो पाएगा, जब उनमें अपने लिखे कमजोर अंशों को परखना आ लाएगा। आलोचकों को अपना सच्चा हमदर्द समझें, क्योंकि प्रशंसा करने वाले अधिकतर चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं। कबीर यूँ ही नहीं कह गए कि निन्दक नियरे राखिये...।
विमलेश शर्मा - यदि आप लेखक नहीं होते तो क्या होते ?
गोपाल माथुर : जैसा कि अभी मैंने स्वीकार किया है, मैं पढ़ते पढ़ते लेखक बना हूँ. यदि लेखक नहीं होता, तो अवश्य एक सजग पाठक के रूप में ही जाना जाता और जाना जाना पसंद करता।
000
No comments:
Post a Comment