Sunday, October 9, 2022

मूर्त-अमूर्त, हाल-माज़ी के तटबंधों के बीच लहलहाता किस्सों का रेत समुद्र ‘रेत समाधि’

 


 

रेत समाधि, उपन्यास का शिल्प, कथानक, पात्र, संवाद और उनकी विविध भंगिमाएँ जाने कितनी सांस्कृतिकियों में बँधा है, इसका कथानक जाने कितनी धारणाओं और औपनिवेशिक मानसिकता में कसमसाता  तो कहीं  जाग्रत चेतना में रचा-बसा नज़र आता है है। कई-कई साँचों-खाँचों को यह किताब एक ज़िल्द में तोड़ती-बुहारती नज़र आती है। सघन गद्य और संवेदनात्मक स्तरों की अनेक तहों के बीच इस उपन्यास के क़िरदार अपने होने और न होने को तय करते हैं। यह उपन्यास भाषा के बियाबान में अपनी मनमर्जी से नई पगडंडियाँ बनाता है, चौड़े-सपाट रास्तों पर कलकल बहना इस उपन्यास की भाषा को मंज़ूर नहीं, ऐसा  संक्षेप में कहा जा सकता है। 

 

बहरहाल अकादमिक जगत् की आलोचना इस भाषा को नकारती है,और इसी के चलते वे गीतांजलि श्री को हिन्दी व्याकरण सीखने की सीख तक दे डालते हैं। गीतांजलि श्री सरीखे लेखकों को पढ़ने के लिए भाषिक और साहित्यिक खाँचों से बाहर आना पड़ता है। दिल और दिमाग़ को खुला छोड़ना पड़ता है तब जाकर आप लेखिका की उँगली पकड़ उसके साथ कथानक को देखने का सामर्थ्य हासिल कर पाते है। रेत समाधि दरअसल संवेदनात्मक लेखन की एक नई ज़मीन है जो मुझे कुछ-कुछ कमलेश्वर के कितने पाकिस्तान के क़रीब जान पड़ता है। यह उपन्यास कथा-साहित्य की नयी ज़मीन की गवाही देता है। उपन्यास का कथानक यदि किसी सादा प्रविधि में कहा गया होता तो यह उतना  प्रभावी नहीं होता जितना कि अपने वास्तविक कलेवर में है। उपन्यास कई ज़गह बेतुकेपन के गलियारों से गुज़रता है जो इस बात की मिसाल है कि जीवन में भी कहाँ सब कुछ सिलसिलेवार होता है। वस्तुतः रेत समाधि एक भाविक कृति है जो भावों के अनुरूप ही अपना व्याकरण तय करती है और जिसे गद्य के साँचें में ढालकर लेखिका ने रख दिया है । 

 

तो फिलहाल रेत समाधि के शिल्प और भावजगत् पर लौटते हैं । कहानी एक वृद्धा की है और उस वृद्धा की जो हमारे घरों  या कि अड़ोस-पड़ोस में एक दीवार की तरह मौज़ूद है, जिसकी चुप आँखें दीवार के पार देखने के प्रयास में थकी सी नज़र आती है । जो पल-पल अपने जीवन को समाधि में तब्दील होते देखती है और उसकी इस उलझन को घर का दरवाज़ा ठीक-ठीक जानता है। इस गाथा में कभी स्मृति तो कभी विस्मृति के गलियारों में भटकती यह वृद्धा आपको कब अपनी ओर खींच लेती है , पाठक वह क्षण पकड़ ही नहीं पाता । कहा गया है कि उपन्यास में सरहद का ज़िक्र है और उपन्यास अनेक सरहदों को तोड़ता भी है । लेखिका उपन्यास के प्रारम्भ में ही भावप्रवण वाक्य गठन से इस सरहदी गाथा का परिचय इस प्रकार कराती है। दिलचस्प कहानी है । उसमें सरहद हैं और औरतें, जो आती हैं, जाती हैं, आरम्पार ।” (पृ.9, रेत-समाधि) अगला वाक्य जीवन-दर्शन  है और एक यथार्थ सूक्त कथन भी कि,  औरत और सरहद का साथ हो तो ख़ुदबख़ुद कहानी बन जाती है ।” (पृ.9, रेत-समाधि) तो  यह कहानी और इसका ओर-छोर एक औरत के गिर्द है । औरतें जो आती है जाती है आरम्पार । औरत के लिए सरहदें कई हैं और जो वो उसमें से गुज़र जाए तो ज़िंदगी का असल हासिल कर लेती है। कहानी है सुगबुगी से भरी । फिर जो हवा चलती है उसमें कहानी उड़ती है। जो घास उगती है, हवा की दिशा में देह को उकसाती, उसमें भी, और डूबता सूरज भी कहानी के ढेरों कंदील जलाकर  बादलों पर टाँग देता है और ये सब गाथा में जुड़ते जाते हैं।” (पृ.9, रेत-समाधि) कहानी दो औरतों की है । एक बेटी बनती माँ और एक माँ बनती बेटी की । माँ जो जीवन की ओर लौटती है, कभी अपनी छड़ी से तितलियाँ आज़ाद करती तो कभी उससे बादल को हटा कर इन्द्रधनुष बनाती ।

 

 कहानी में दो मौतों का ज़िक्र है  । एक जो माँ के पति थे और बेटी के पिता थे की और दूसरी माँ की, जो आसमान की तरफ़ मुँह करके ज़मीन पर गिरना जानती थी । कहानी दाम्पत्य जीवन से अकेली छूटी माँ से शुरू होती हैं । उपन्यास में जिस कमरे और सर्दी-गर्मी के मौसम का चित्रण है वह हमारे अनगिनत घरों का दृश्य है, जिसमें खूँटी पर टँगी छड़ी है, ऊनी कनटोप है, गिलाफ़ वाली मोटी रज़ाई, नकली दाँत निकालने की प्याली बिस्तर के किनारे एक तिपाई पर रखी है । उपन्यास में अम्मा के दीवार होते जाने का ज़िक्र है। और प्रतीकात्मक रूप से यह ज़िक्र दीवार और दरवाज़ों के रूप में बार-बार आया है। बस सीधी सी, सादी भी, ईंट सीमेंट की, पिलियाहट लिए, सफ़ेद पुती मध्यवर्गीय दीवार थी । छत, फर्श, खिड़की, दरवाज़े को सँभाले, पानी के पाइप, बिजली के तार, केबल-शेबल का जाल भीतर बिछाए, पूरे घर को दीवारी लिफ़ाफ़े में तहा के सहेजने वाली ।  ऐसी दीवार, जिसकी तरफ़ अभी अस्सी के इस तरफ़ की माँ, सूत दर सूत बढ़ती जा रही थी। ... जो कभी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता वह ये कि दीवार का उसे अपनी तरफ़ ऐंचना ज़्यादा दम रखता था, या परिवार को पीठ दिखाने की उसकी चाह ?  बस माँ दीवार की ओर होती गयी और उसकी पीठ अंधी बहरी होती गयी और ख़ुद एक दीवार बन गयी और ख़ुद एक दीवार बन गयी, उन्हें अलगाती जो उस कमरे में आते उसे उकसाने फुसलाने कि उठो अम्मा ।” (पृ.12, रेत-समाधिअकेली माँ और उसका मन बहलाने के जतन करता परिवार, इन दृश्यों को गीतांजलि श्री बहुत ही काव्यात्मक और तरल गद्य में पाठक के सामने रखती है। तो लब्बोलुबाब यह है कि कविता की रूह से सजी-धजी  कथा की नायिका चंद्रप्रभा देवी उर्फ़ अम्मा पति के निधन के बाद एक चुप ओढ़ लेती है, पलंग पकड़ लेती है और दीवार की तरफ़ मुँह किए दीवार हो जाती है।  समूचा घर-भर , बेटा-बहू पोता अम्मा को उठाने का जतन करते हैं पर अम्मा  है कि किसी उकसाने-फुसलाने में नहीं आती और हर किसी से इस तरह कह देती  है कि, नहीं, मैं नहीं उठूँगी । गठरी लिहाफ में ढुकी बुदबुदा देती । नहीं अब तो मैं नहीं उठूँगी। ” (पृ.14, रेत-समाधियह ज़िद अम्मा के मन की ज़िद है जो किसी ओर की नहीं सोचता । इस तरह अम्मा के कहे के कुछ भाव थे, तो उन्हें सुनने वालों के अग भाव जो उन्हें कभी अम्मा के प्रति दुष्चिंता से भर देते तो कभी अतिरिक्त संवेदना और सहानुभूति से । इन्हीं अम्मा की मुख्यकथा और अनेक अवांतर कथाओं के साथ रेतसमाधि की गाथा बढ़ती है।  उपन्यास कथा के बँधे-बधाए तटबंधों को तोड़ता है और कई गलियारों से सरहद तक पहुँचता है, जैसे कोई उन्मादी नदी कथा की बुनावट  को तटबंधों तक पहुँचाने का उल्लासयुक्त प्रयास कर रही हो।  इस कथा में लेखिका बहुत से समसामयिक मुद्दों , सरोकारों  और बहसों पर भी बात करती चलती है। समय के साथ प्रकृति, इंसानी मानसिकता में आ रही गफ़लत और बदलावों सब पर लेखिका तुलनात्मक विमर्श करती है । एक वक़्त था, कहते हैं, जब सब निर्धारित था, और कोई हेर का फेर नहीं,  ऐसा कहा जाता है, माना जाए या नहीं, ये आप हम तय करें । कि कभी ऐसा था कि एक-एक इंसान अपनी भूमिका में रचा-बसा था और जानता था कि किसके संग क्या सलूक करें । मसलन जापानी जानता था या जानती  थी कि सलामी में कमर किस कोण तक झुकाएँ और फ़लाना मोड़ पे अदृश्य हो गया है तो भी कितने पल, जस का तस झुके रहें। बड़ा जानता था कि कहने के पहले बस आँख उठाने भर। पर छोटा तपाक उठेगा और आज्ञापालन कर देगा । पेड़ जानता था बूँद गिरी, अब फल पका के गिराओ । इत्यादि । ” (पृ.64, रेत-समाधिउपन्यास में इस तरह के वाक्यों जो कि अपने आप में एक कथा का बोध कराते हैं के माध्यम से लेखिका ने कहीं पहचान का संकट ज़ाहिर करने की कोशिश की है, तो कहीं परिस्थितियों की गुंजलकों के बीच मनुष्य की भूमिकाओं की आवाज़ाही और रिश्तों के उलटन -पलटन का उल्लेख किया  है। लेखिका कथा सूत्रों के महीन रेशों के बीच लोकतंत्र में लापता होते लोक को भी चिह्नित करती है।

 

उपन्यास की नायिका चंदा जो कि अस्सी साला चंद्रप्रभा  की है, जो वृद्ध वय में विस्मृति की पगडंडियों से एक भूली-बिसरी याद तक पहुँचती है । चंदा को बँटवारे से पहले अनवर से प्रेम होता है,दोनों का विवाह होता है और तदनन्नतर बँटवारे के पश्चात् दोनों अलग हो जाते हैं । इस बीच चंदा उर्फ चंद्रप्रभा की शादी होती है, बाल-बच्चे भी और फिर अनवर चंदा की ज़िंदगी से सदा-सदा के लिए अलग हो जाता है। अस्सी साल की उम्र में जब चंदा के पति का देहावसान कुछ साल पहले हो चुका होता है, चंदा की स्मृति में अनवर कौंधता है और वह उस प्रेम के लिए बग़ैर वीज़ा सरहद पार जाकर अनवर को ढूँढ निकालती है। आरम्पार । इससे पहले भी अम्मा अपनी छड़ी के साथ घर से ग़ायब हो जाती है, कई दिनों तक चंदा अनवर को खोजती रहती है, कोई उसे दीवानी कहता है तो कोई पागल और फिर अंततः उन्हें घर लौटना होता है । घर लौटने पर माँ को बेटी और रोजी का सहारा मिलता है और माँ बेटी के साथ अपनी याद का सफर तय करती है। कहानी का कथानक पितृसत्ता की जकड़बंदी को तोड़ता है, एक वृद्धा , विवाहित, भरा-पूरा घर वाली अम्मा अपने प्रेमी अनवर के लिए सरहद, सरकार,फौज़ और संस्कारों की तथाकथिक बेड़ियों को चूर-चूर करने के लिए आमादा हो जाती है। दिखने में यह कथानक सादा हो सकता है लेकिन जिन सरहदी पगडंडियों के सहारे यह कथाक्रम बुना गया है वह न केवल भाषिक बल्कि भाविक दृष्टि से भी अप्रतिम है। 

 

उपन्यास में स्त्री मन का राग तमाम बंदिशों में मौज़ूद है । स्त्री मन जो सामाजिक वर्जनाओं की ओट में दुबका रहता है, दीवार-सा ठिठका रहता है वह कभी ज़िद्दी अम्मा सा बिस्तर नहीं छोड़ने की ज़िद करता है, कभी अपने मन मुताबिक गाउन या कपड़े पहनने का चुनाव करता है बेटी ने माँ बनकर माँ को बेटी बनाया और उनको उनके ख़्वाब से मिलाने उनकी दिखती आभासी विक्षिप्तता के चलते उनके साथ हो जाती है। इस बीच रोजी या कि रज़ा का उल्लेख है, जो कि तृतीयलिंगी है और समाज की हदबंदियों के बीच कभी रजा बनता है तो कबी रोज़ी । बेटी रोजी को रज़ा बनते देखती है और अम्मा  और उनके बीच होती बेतकल्लुफी पर कुढ़ती भी है। 

 

 

उपन्यास सरहद पर व्यंजना में बात करता है साथ ही सरहद और विभाजन की समस्या पर लिखने वाले सभी साहित्यकारों पर भी फैंटेसी तैयार करता है। सीमा की व्याख्या करती लेखिका कहती हैं, सीमा पर रेत होती है । जैसे रेगिस्तान में । रेत इंतज़ार करती है । रुकी हुई है । रेत का इंतज़ार, रुके का रेगिस्तान । वही है सीमा । कुछ एक तरफ़, बाकी दूसरी तरफ़ । आर-पार कि जा-पार। उपन्यास में राहत अली हैं, मोहन राकेश हैं, कृष्णा सोबती हैं, मंटो हैं, भीष्म साहनी हैं, कृष्ण बलदेव वैद,मंज़ूर एहतेशाम, जोगिंदर पाल, बलवंत सिंह और साथ ही इन लेखकों द्वारा रचे गए चरित्र भी अपनी भूमिकाओं में मौज़ूद हैं  । बिशन सिंह या अन्य किरदार विभाजन की त्रासदी औऱ उससे उपजे नफ़रती माहौल  के कुत्सित रूप की ओऱ हमारा ध्यान खींचते हैं। ये पात्र औऱ साहित्यिकी का ज़िक्र कहानी और गल्प का मिलाजुला असर पैदा करती है । कहानी गल्प स्वप्न होती है जो चलते-चलते अपने मतलब बनाती है। बोर्हेस ऐसा याद दिलाते हैं। सब माया हैं, भी । जो, जैसे सब कुछ भारत में ईज़ाद हुआ है, यहाँ उनके पहले से कहा गया है। स्वप्न पेड़ की तरह है ।” (पृ. 267, रेत-समाधि)

 

बहरहाल और बातों को और अनेकानेक भंगिमाओं को छोड़कर बात लैंगिक सरहदों और वज़ूद पर करते हैं, जो इस समाज के लिए सदैव विमर्श और बहस का मुद्दा रहा है।  उपन्यास भी मुख्यतः रोज़ी, रज़ा , चंदा और अनवर की बात करता है । उपन्यास में एक अस्सी साला वृद्धा अपने प्रेमी से मिलने का अभूतपूर्व साहस दिखाती है । स्मृति की हवा में बहती हुई वो बेटे-बेटी -बहू और समाज की फ़िक्र किए बग़ैर अनवर की पेशानी पर कजरी गाती है। बेटी अपनी माँ को देख बौखलायी हुई है, कभी वो इस प्रेम पर न्यौछावर होती है तो कभी अपने प्रेम को उस प्रसंग से तोलने का प्रयास करती है। सवाल यह है कि उपन्यास में चंदा पहले यह हिम्मत क्यों नहीं ज़ज्ब कर पाई। क्यों समाज की संकीर्ण मानसिकता और सरहदें दो प्यार करने वालों को सदा-सदा के लिए दूर कर देती है। इस कथानक को बेहद अज़ीब मगर काव्यात्मक, घुमावदार लेकिन रोचक ढंग से औपन्यासिक साँचे में उतार कर रख दिया है। एक औरत जब उसे अपने बच्चों पर आश्रित हो जाना चाहिए तब वह अपने  रहन-सहन , अपने कपड़ों और अपने उबटन को लेकर सजग हो रही है, यह ज़माने के लिए बेढंगा है पर यह बेढंगा क्यों है, उपन्यास इसी पर अपनी बात करता है।  उपन्यास स्त्री के उस असल को खोजने की पडताल करता है जो सामाजिक वर्जनाओं में कहीं खो जाता है। “ इतनी सी बात, खरी की खरी, कि उलझाव इसी ललक से है, कि हमें जानना है कि पहला, मौलिक, असल रंग क्या और किस गुहा से फूट रहा है, मगर जानो तो कैसे कि किस गुहा से, जब हर समय उस रंग पर आसमान और ज़मीन, पर्वत और पवन, अपने सायों के गेंद फुदका रहे हैं ?  इस पल सफ़ेद, अब काला, हरा , काही, लाल, अभी ख़ुरदुरा, अभी चिकनी छाया, अभी गोलमोल, अब कांटेदार । क्या जानें क्या था वो पहले और अब हो चला है क्या ?  तो हर कथा गाथा गल्प गप्पा में है अबूझ। और बुझौवल का पुट पक्ष, और हर कहानी है ज़िन्दगानी का नंदन चाहे क्रंदन कक्ष । और जब उसकी भूलभुलैया में प्रियजन गुम जाते हैं तो दिल का सारा लुत्फ़ ग़म हो जाता है जिसमें हर रंग खेल जाता है पर मज़ा नहीं आता है । ....माँ जी कहाँ  हैं? अभी यहीं थीं। कोई नारीवादी मन कह सकता है कि पहले भी नहीं थीं, बरसों  से नहीं थी। बाल बच्चों घर की निगरानी में फिरती एक साया थीजिसका असर लापता था। पर कोई कलावादी उलझा सकता है कि असल कौन और साया कौन, किसे कभी पता चला? क्या हर रंग में अलग असल जीवन नहीं हो सकता?” (पृ. 92, रेत-समाधि उपन्यास के इस अंश में अम्मा के ग़ायब होने या कि अपनी इच्छा से ग़ायब होने का ज़िक्र है और साथ ही स्त्री के अबूज मन और उस पर बिखरे सामाजिक दबावों का ज़िक्र है । वे दबाव जिसमें वो अपनी असलियत अपनी ज़िंदगी के मानी भूल जाती है। इस कथा-गाथा में असल ज़िदग़ी और उसके रंग है, इन्हीं बिन्दुओं पर रेत-समाधि विलक्षण बन जाती है। 

 

रोज़ी और रज़ा एक ही हैं पर सामाजिक वर्जनाओं के चलते दुई का शिकार है । क्या गार्ड की आवाज़ में कुछ व्यंग्य है? क्या वो भी सोचता है ये रोज़ी चली आ रही है रज़ा के लिबास में ? या वाक़ई सोचते हैं, एक आती है माता जी की नर्सगीरी वास्ते, दूसरा आता है माँ के कपड़ो की तुरपाई सिलाई करने और सोसाइटी वालों के भी ऑर्डर लेने।  (पृ227 , रेत-समाधिरज़ा धार्मिक संकीर्णता और लैंगिक क्रूरता दोनों का दंश झेलता किरदार है जो पार्श्व में खड़ा होकर भी बहुत कुछ कह जाता है। रोज़ी की कहानी शुरू जाने कैसे और कब होती है लेकिन ख़त्म एक वाक्य में कि रोज़ी मर गई। यह मौत खौंफ़नाक है, विभाजन की त्रासदी की जितनी है खौफनाक जिसका ज़िक्र लेखिका ने बहुत ही नाज़ुक कलम से कियै है। 

 

बहरहाल रेत समाधि हड़बड़ी में पढ़ी जाने वाली रचना नहीं है।  यहँ छोटे-छोटे वाक्यों में जीवन के गहरे कूप है मसलन- सही घड़ी हो तो कोई कुछ बन जाता है। ...रात होती है अगर बाहर अँधेरा हो,  बाहर अँधेरा था क्योंकि रात की बात थी। ....सबकी भन-भन सुननी है तो मच्छर बन जाओ, नम हो जाना है तो बदरा, सींग मारने हैं तो देश का सरदार, नाचना है तो हवा, रोना है तो दुम, नदी होना है तो माँ, चक्कर काटता बंदी जानवर तो बेटी और क़िस्सा रोक देना है तो यहाँ हो जाओ, क्योंकि क़िस्सा ख़त्म तो होता नहीं, रुक जाता है।  उपन्यास में क़िस्से है, क़िस्सों के कई-कई क़िस्से हैं, और यह उपन्यास की दुरूहता नहीं उसे रोचक बनाने वाले अजस्र झरने हैं , बशर्ते कि पाठक को उसे पढने का सलीका आना चाहिए।