साहित्य विधाओं के भीतर आकार लेता है और विधाएँ विभिन्न मनोभावों और जीवन-यथार्थ के ताने-बाने से आगे बढ़ती है। इन मनोभावों की अभिव्यक्ति में भाषा एक सेतु का कार्य करती है। वस्तुतः ‘कोई भी भाषा संवाद की भाषा होती है और इसी तर्ज़ पर हिन्दी भी अनुवाद की नहीं बल्कि संवाद की भाषा अधिक है। किसी भी अन्य भाषा की तरह हिन्दी भी जन-मानस की और उसकी मौलिक सोच की भाषा है। यदि आम भारतीय से हिन्दी भाषा पर बात करते हैं तो साधारण संवाद में कबीर, सूर ,तुलसी,मीरा और जायसी एकाएक मुखर होकर उभर आते हैं और जब बात उसके साहित्य पर करते हैं तो अतीत के वातायनों से सुखद स्मृतियाँ, प्रबोधित करते हुए नारे, पत्रिकाओं की उपस्थिति और समर्पित सम्पादकों के चेहरे दृश्य-बिम्बों की तरह उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं।
हिन्दी भाषा का सफ़र किसी भी अन्य भाषा की ही तरह सतत विकासशील रहा है। निःसन्देह हिन्दी हमारे मिज़ाज की भाषा है , यह उसका अतरंगीपन और हमारा सांस्कृतिक-मानसिक जुड़ाव ही है कि वो किसी भी भाव को अभिव्यक्त करने में हमें सहूलियत प्रदान करती है। हिन्दी भाषा का विकास यों तो संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश की विकास-सरणियों से होकर गुज़रता है, परन्तु साहित्यिक हिन्दी का प्रसार भारतेन्दु हरीश्चन्द के पदार्पण से प्रारम्भ होता है और हरीश्चन्द्र के साथ ही शुरू होता है दौर लघु पत्रिकाओं का । स्वयं भारतेन्दु कविवचनसुधा के साथ सम्पादकीय परम्परा को प्रारम्भ करते हैं। गद्य के साथ -साथ कालान्तर में हिन्दी पद्य की भी भाषा बनती है। भारतेन्दु व उनके मण्डल की बात करें तो बालकृष्ण भट्ट, हिन्दी प्रदीप (1877ई.) , प्रताप नारायण मिश्र ,ब्राह्मण (1880 ई.), अम्बिकादत्त व्यास (पीयूष प्रवाह), ठाकुर जगमोहन सिंह आदि अनेक पत्रिकाओं का संपादन कर एक प्रतिबद्ध पत्रकारिता व सम्पादकीय परम्परा की नींव रख रहे थे। आज के दौर में लघु पत्रिकाएँ पाठक के भाषिक व सांस्कृतिक विकास का आग्रह लेकर सतत प्रकाशित हो रहीं हैं। यह सुखद है कि लघु पत्रिका दिवस 9 सितम्बर को मनाया जाएगा, इसका निर्णय भी राजस्थान से जुड़ा है। आज के दौर में अनेक पत्रिकाएँ अपने दाय से साहित्यिक प्रतिबद्धता का निर्वहन कर रहीं हैं।
भाषा और साहित्य की आयु मनुष्य की आयु से कई गुना अधिक होती है। और यही कारण है कि हिन्दी भाषा की साहित्यिक यात्रा भी विविध विधाओं , विमर्शों और समतावादी समाज की स्थापना के प्रयासों जैसे महनीय उद्देश्यों को लेकर निर्बाध रूप से आज भी चल रही है। हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाएँ वीणा, बनास जन, हंस, नया ज्ञानोदय , पहल, पक्षधर , वसुधा, पाखी, कथादेश, अनुसंधान, वाङमय, मधुमती आदि पूरी प्रतिबद्धता के साथ अनेक महत्त्वपूर्ण व संग्रहणीय अंक निकाल रही हैं, जिससे हिन्दी की विधाओं, समकालीन लेखन और विविध विमर्शों केन्द्रित रचनाओं का व्याप तो अनवरत बढ़ ही रहा है और साथ ही साथ पाठकों की सांस्कृतिक समझ भी विकसित हो रही है। ऐसे में हिन्दी के लिए लघुपत्रिकाओं का होना एक वरदान है परन्तु वे भी पाठकों की कमी का शिकार हैं। स्तरीय और महत्त्वपूर्ण शोध सामग्री होने के साथ ही वे एक सम्पूर्ण बौद्धिक खुराक देने का सामर्थ्य अपने में रखती है , इसके बावज़ूद पत्रिकाओं की पहुँच उतनी नहीं है, जितनी अपेक्षित है और यही कारण है कि कई पत्रिकाएँ आर्थिक संसाधनों के अभाव में शीघ्र ही काल-कवलित हो जाती हैं।
हिन्दी साहित्य में हिन्दी भाषा की स्थिति को देखें तो जहाँ पहले लेखकों का ध्यान इस ओर रहता था कि हिन्दी परिष्कृत और प्रांजल रूप से सामने आए अब साहित्यिक रचनाएँ दैनन्दिन भाषिक प्रयोग पर अधिक जोर दे रही हैं। यह ख़ुशी की बात है कि वे इस बात के आग्रही रहे हैं कि शब्द चाहे संस्कृत से आए या फ़ारसी से या देशज रूप में वे परिष्कृत रूप में साहित्य में प्रयुक्त हों। हिन्दी भाषा के साथ-साथ उसका साहित्य वंचितों और उपेक्षितों को केन्द्र में लाने की परम्परा जो राजेन्द्र यादव ने प्रारम्भ की थी उसकी ओर भी लगातार ध्यान दे रहा है। इस कड़ी में असगर वज़ाहत, मंजूर एहतेशाम, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा , बजरंग तिवाड़ी, मृणाल पांडे, प्रियदर्शन , वंदना राग , सुजाता आदि रचनाकार महत्त्वपूर्ण साहित्यिक अवदान देकर साहित्य , आलोचना और सरोकारों को अपनी आवाज़ दे रहे हैं।
वर्तमान दौर सोशल मीडिया का दौर है। यह सुखद है कि मौज़ूदा दौर में 200 से अधिक हिन्दी की पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही है परन्तु इस से कई गुना अधिक वेब पत्रिकाएँ और ई-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ऐसे में भाषिक सजगता के आग्रहों को लेकर कितनी पत्रिकाएँ संचालित हो रही हैं , कौन प्रतिबद्धता के साथ साहित्यिक सरोकारों पर बात कर रहा है यह विश्लेषण का विषय है। इस दौड़ में शब्दाकंन , समालोचन, कविताकोश , रेख्ता , हिन्दवी आदि ऐसे मंच है जो महत्त्वपूर्ण सामग्री पाठकों तक पहुँचा रहे हैं। शब्दांकन और समालोचन पर सम्पादकों की मेहनत भी स्पष्ट दिखाई देती है जिसे वे रचनाओं के प्रकाशन से लेकर छापने तक में महत्त्वपूर्ण योगदान और समर्पण देते हैं । हिन्दी साहित्य अपने सरोकारों और प्रतिबद्ध लेखन को लेकर निरन्तर प्रगति कर रहा है पर हिन्दी भाषा को लेकर सजगता को लेकर अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।
‘हिन्दी का लेखक वही हो सकता है जिसे हिन्दी की समझ हो’, यदि महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के इस सूत्र वाक्य को वर्तमान हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता अपना लेते हैं तो भाषिक दुराग्रहों और भाषाई अड़चनों से सहज ही बचा जा सकता है। भाषा को लेकर मौज़ूदा लेखक अतिउत्साही हैं, वे शब्द की प्रकृति को जाने बग़ैर ही उस पर आधिकारिक तौर पर लिखने और प्रकाशित होने की बात करते हैं जो हिन्दी के लिए चिंताजनक है। हिन्दी के व्याप और प्रचार-प्रसार के साथ ही यदि हिन्दी का प्रयोक्ता हिन्दी के शुद्ध प्रयोग का यदि आग्रही हो जाता है तो बात कुछ बन सकती है। वर्तमान हिन्दी या आधुनिक हिन्दी में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज और संकर इन पाँच प्रकार के शब्दों का प्रचलन है। इन भिन्न- भिन्न स्वरूप वाले शब्दों की सम्यक् प्रकृति का याथातथ्य ज्ञान ही हमें , हिन्दी के प्रयोग , उसकी शब्द-सम्पदा के माहात्म्य को सुरक्षित व संरक्षित करने में सहायता प्रदान कर सकता है। हिन्दी की पुस्तकों व प्रकाशित सामग्री में अशुद्धि होने का एक प्रधान कारण यह है कि हिन्दी भाषा का सामान्य प्रयोक्ता इस शब्द-विभाजन से अपरिचित है और कहीं का नियम कहीं पर लगा देता है। इसी कारण से हिन्दी भाषा में अशुद्ध शब्दों का प्रचलन निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
हिन्दी आज संपर्क भाषा के रूप में संपूर्ण देश में एकता के सूत्र के रूप में जानी जाती है। हिंदी अनेक जन-आंदोलनों की भी भाषा रही है। हिंदी के महत्त्व को गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने बड़े सुंदर रूप में प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा था, ‘भारतीय भाषाएँ नदियाँ हैं और हिंदी महानदी’। हिन्दी में भोजपुरी, राजस्थानी, मराठी आदि बोलियों के शब्द आज लेखन में भी प्रयुक्त हो रहे हैं। हिन्दी के इसी समरसताजन्य महत्त्व, सर्वव्यापी प्रयोग-प्रसार और लोकप्रयिता को देखते हुए आज कम्प्यूटर पर हिन्दी पठन-पाठन-लेखन के अनेक सॉफ्टवेयर ईजाद किए गए हैं।
भाषा का व्यावहारिक पक्ष हो या सैद्धान्तिक पक्ष दोनों को लेकर आज अंतर्जाल पर हिन्दी की अनेक दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध हैं। यू ट्यूब पर भी हिन्दी कविता चैनल, साहित्य जगत् में काफ़ी लोकप्रिय हो रहा है जहाँ कविताएँ अत्यन्त ही प्रभावी अंदाज़ में मौज़ूद हैं। फेसबुक और ट्वीटर पर महत्त्वपूर्ण लेखकों के पेज उपलब्ध है। विविध भारती और आकाशवाणी पर अनेक कार्यक्रम औऱ परिचर्चाएँ हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर आयोजित की जाती हैं। आज लेखक इन सभी मंचों के माध्यम से स्वयं ही प्रकाशित भी हो रहा है और विषय की समझ भी ले रहा है। स्पष्ट है हिन्दी की इस लोकप्रियता का एक बड़ा कारण इस भाषा के प्रयोक्ता, चाहे वह लेखक हो या पाठक, ही तो हैं जिनमें सतत इजाफ़ा हो रहा है। गीतांजली श्री की रेत समाधि का पुरस्कृत होना हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पहचान दिलाता है और साथ ही भाषा के प्रयोक्ताओं और साहित्यकारों के लिए एक ज़िम्मेदारी भी तय करता है।
हिन्दी भाषा के सौन्दर्य को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए और साहित्य को कालजयी बनाने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग और रचनाकारों को चिंतन करना होगा, साहित्य से पहले भाषा पर विचार करना होगा, उसकी व्याकरणिक कोटियों के प्रति सटीक जानकारी प्राथमिक शिक्षा से ही बच्चों को देनी होगी ताकि सटीक प्रार्थना-पत्र और अशुद्धियाँ नहीं लिख पाने का दोष हम युवपीढ़ी को न दे सकें। उसके भाविक और भाषिक प्रयोगों को समृद्ध बनाकर सावचेती से उसका प्रयोग कर ही हम भाषा का सहेजन-संरक्षण और संवर्धन कर सकते हैं।
1 comment:
अति सुंदर आलेख लिखा है आपने इससे रेत की समाधि उपन्यास को एक बार पुनः पढ़ने का मन हो रहा है निश्चित रूप से जब हम किसी महान पुस्तक को बार-बार पढ़ते हैं तब उस में छुपे हुए गूढ़ अर्थों का पता लगता है
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