Monday, May 9, 2022

 कस्तूरबा की रहस्यमय डायरी (उपन्यास)

लेखिका: नीलिमा डालमिया आधार
अनुवादिका: शुचिता मीतल
प्रकाशक: वेस्टलैण्ड बुक्स

दिल्ली

कुछ किताबें महज़ अपने नाम से एक पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखती हैं. संभव है, इस प्रकार के नाम रखे ही इस कारण जाते हों ! जो भी हो, 550 पृष्ठ की इस किताब ने मेरा ध्यान भी अपनी ओर खींचा, लेकिन नाम के कारण उतना नहीं, जितना गाँधी के बारे में कुछ अतिरिक्त जानने कीसहज़ जिज्ञासा के कारण. 
इस किताब के विषय में मैं इसकी लेखिका श्रीमती नीलिमा डालमिया आधार से कलम कार्यक्रम में बात करने का मौक़ा मिला और पुस्तक के बारे में बहुत कुछ सुना-जाना।
मूलतः किताब अंग्रेजी भाषा में लिखी गई है, जिसका शुचिता मीतल जी ने सुन्दर अनुवाद किया है, जिसके लिए वे बधाई की पात्रा हैं.
यूँ तो इस किताब को कस्तूरबा की डायरी कहा गया है, लेकिन मूलतः इसे उपन्यास की शैली मे ही लिखा गया है. यह तो सर्वविदित है कि कस्तूरबा ने कभी कोई डायरी नहीं लिखी, अतः यह स्वीकार करना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यह किताब लेखिका की कल्पनिक उड़ान का ही प्रतिफल है. इसे इतिहास अथवा एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में भी नहीं लिया जा सकता. आगे की पंक्तियों में मैं इसे उपन्यास कहना ही पसंद करूँगा.
संभवतः यह पहला प्रयास है, जब कस्तूरबा कीदृष्टि से गाँधी को देखने, समझने का प्रयास किया गया है. एक पत्नी अपने पति की न केवल जीवन संगिनी होती है, वरन वह अपने पति के उन भेदों को भी बखूबी जानती है, जो अन्य लोगों की निगाहों में नहीं आ पाते. यही एकमात्र कारण है, जो इस किताब को विशिष्ट बनाता है. यूँ तो गाँधी ने तमाम उम्र अपना जीवन पारदर्शी बनाए रखा, यहाँ तक कि अपने निजी यौन व्यवहार को भी वे अन्त तक सार्वजनिक करने से नहीं चूके. यह उनका ही अदम्य नैतिक साहस था, जो उन्हें एक खुली किताब के रूप में   स्वयं को प्रस्तुत करने से रोक नहीं सका. विरले ही होते हैं वेे लोग, जो ऐसा कर पाने का ंअदभुत साहस रखते हैं. जिस विषय के बारे में सब लोग सब कुछ जानते हों, वह पाप कैसे हो सकता है ?
उपन्यास के मुख्य पृष्ठ पर कस्तूरबा का गरिमामय चित्र है, पतले किनार वाली सफेद साड़ी पहने हुए, जो उनकी सादगी का द्योतक भी है. यह सादगी उन्हें गाँधी के सानिध्य से प्राप्त हुई थी, जिसे उन्होंने अपने जीवन की अन्तिम साँस तक मजबूरन निभाया भी, जैसा कि यह उपन्यास हमें बताता है. 
वहीं दूसरी ओर किताब का अन्तिम पृष्ठ इस किताब के विषय में एक वक्तव्य जैसा है, काले बोल्ड अक्षरों में गाँधी के काले पक्ष को उजागर करते उनके स्वयं के लिखे, तुलनात्मक रूप से कम प्रचलित पत्र की एक पंक्ति है, ”मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर कैसा राक्षस बसा है, मेरे अन्दर एक तरह की निर्ममता है जो मुझे खुश करने के लिए लोगों को असाध्य काम करने पर मजबूर करती है.“ यहीं लेखिका यह स्वीकार करती है कि यूँ तो गाँधी का दुनिया एक शांतिदूत की तरह सम्मान करती है, लेकिन वे उन्हें एक ”कामुक, आत्मतुष्ट और अहंकारी पति“ के रूप में ही देख पाई थीं. 
और यही इस उपन्यास का मूल स्वर भी है. एक पाठक सहज ही अनुमान लगा सकता है कि उसे इस किताब में गाँधी का यही नकारात्मक रूप सर्वाधिक देखने को मिलने वाला है. अपने अजमेर वाले कार्यक्रम में लेखिका ने यह स्वीकार भी किया था कि यह उपन्यास उनका अपना नजरिया है, यदि किसी को आपत्ति है तो वह अपनी तरह से दूसरी किताब लिख सकता है.
और वे अपनी जगह गलत भी नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है. इसमें बहुत बड़ा हाथ हमारी अपनी सोच का होता है, सोच ही हमें वैसा बनाती है, जैसे हम होते हैं. यदि नीलिमा जी ने कस्तूरबा को अपने इस उपन्यास कीविषय वस्तु चुना है, तो उन्होंने अवश्य ही कस्तूरबा के जीवन में कुछ ऐसा महत्वपूर्ण महसूस किया होगा, जिसने उनके मन को गहराई से स्पर्श किया होगा. और यह तो स्वीकार करना ही होगा कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से अपने मन की पर्तें खोल कर पाठकों के समक्ष रख दी हैं. एक स्त्री मन की व्यथा एक स्त्री संभवतः बेहतर तरीके से समझ सकती है. नीलिमा जी का स्वयं का जीवन अनेक विडम्बनाओं से भरा रहा है, जिसकी खरौंचें परोक्ष रूप में इस उपन्यास में भी जगह जगह स्पष्ट दिखाई देती हैं. 
यह उपन्यास प्रवाह की दृष्टि से अद्भुत है. नीलिमा जी का शिल्प, शैली और गद्यात्मकता पाठक को पूरी तरह बाँधे  रखती है. उपन्यास पढ़ना शुरू करने के बाद यह उपन्यास स्वतः ही पाठक को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और पाठक लगभग सम्मोहित सा इसे पूरा पढ़े बिना नहीं रह सकता. एक तरफ़ चरित्र ऐतिहासिक  और कालखण्ड की सीमाओं को तोड़ता हुआ वैश्विक आभामंडल  में रचता-बसता है तो दूसरी और कस्पातू उतनी ही सादा ।  यहाँ घटनाएँ, संदर्भ  , किरदार और प्रसंग इतने सच्चे हैं कि पाठक जब  इसे पढ़ नहीं रहा होता, तब भी यह उपन्यास उसका पीछा नहीं छोड़ता, उसे लगातार हाॅन्ट करता रहता है और पूरी तरह उसे अकेले नहीं होने देता. इसे मैं एक सफल उपन्यास की विशेषता मानती  हूँ कि वह अपने पाठक को गिरफ्त में लेने के बाद एक क्षण के लिए भी अकेला नहीं छोड़ता, बल्कि पूरा हो जाने के उपरांत भी, अपने गहन प्रभाव के चलते, एक लम्बे समय तक पाठक के साथ बना रहता है.
इस प्रभाव का एक कारण उपन्यास में स्वयं गांधी  की उपस्थिति भी हो सकता है. गाँधी का व्यक्तित्व इतना बड़ा, इतना वृहद है कि मेरे जैसे सामान्य से पाठक के लिए उनके सम्मोहन में सहज ही आ जाना एक सरल सी प्रक्रिया है. मैं ही क्या, इतिहास गवाह है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय इस देश के लाखों लोग उनका अनुसरण मात्र उनके कहे शब्दों पर विश्वास कर कर रहे थे. जिस व्यक्ति के शब्दों में इतनी ताकत थी, वह व्यक्ति सामान्य तो हो ही नहीं सकता !
जैसा कि मैंने कहा कि यद्यपि इस किताब को ”डायरी” की संज्ञा दी गई है, लेकिन यह मूलतः लिखा उपन्यास शैली में ही है. संवाद हालांकि कम हैं, लेकिन संवादों का कम होना उपन्यास की पठनीयता में बिल्कुल भी बाधा नहीं डालता. लेखिका ने कस्तूरबाकी पीड़ा और अकेलापन शब्द दर शब्द प्रभावी तरीके से उद्घाटित की है. जैसे जैसे पाठक आगे पढ़ता जाता है, वह कस्तूरबा की पीड़ा का भागीदार बनने लगता है, कस्तूरबा का अकेलापन पृष्ठ दर पृष्ठ अपनी सम्पूर्ण यन्त्रणा के साथ उसे महसूस होने लगता है. यह उपन्यास कस्तूरबा के अकेलेपन के संत्रास की व्यथा-कथा है. 
लेखिका ने इस उपन्यास को सत्तर अध्यायों में बांट कर पूरा किया है. अध्याय छोटे छोटे हैं, और अपने कन्टेन्ट्स को पूरी तरह जस्टीफाई भी करते हैं. नीलिमा जी गांधी  जी के उन अतिरिक्त विवरणों से बची हैं, जो कस्तूरबा से सीधे जुड़े हुए नहीं हैं. यह उनका उद्देश्य था भी, जिसमें वे सफल रही हैं.
उपन्यास का आरम्भ पुणे के आगा खां महल से होता है, जहाँ कस्तूरबा जेल भुगतते हुए गाँधी के साथ अपने जीवन की अन्तिम साँसें ले रही हैं. इसे भूमिका कहा गया है. शेष उपन्यास जैसे कस्तूरबा की स्मृतियाँ हैं, जो उन्हें उनके अन्तिम समय में एक एक कर याद आ रही हैं, एक चलचित्र की तरह, जिसकी कभी वे स्वयं भोक्ता रही थीं.
पहला खण्ड अद्भुत है, जब कस्तूरबा और गांधी  के जन्म से पूर्व अनुभवों को लेखिका ने सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है. अपने शुरूआती पृष्ठों में ही वे अपनी लेखकीय प्रतिभा का परिचय दे देती हैं. परिचयात्मक रूप मे लिखा गया यह खण्ड इस डायरी को एक उपन्यास की तरह स्वीकार करने में महत भूमिका निभाता है.
धीरे-धीरे  कथा कस्तूरबा के चश्में से आगे बढ़ने लगती है और गाँधी से उनके विवाह के साथ गति प्राप्त करती है. गाँधी का बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए विदेश जाने और फिर वकालात के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका जाने के साथ साथ गाँधी और कस्तूरबा के सम्बंधों पर लेखिका वृहद दृष्टि डालती चलती हैं. पर गाँधी का यौन व्यवहार और उनका अडियल रवैया मुख्य भाव में बना रहता है. इसके साथ ही वे गाँधी के नकारात्मक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करना नहीं भूलतीं. हालांकि उन्होंने यह कहीं नहीं लिखा कि गाँधी अपनी विदेश यात्राओं के दौरान कभी भी यौन उछंकरल हुए हों. 
जैसे जैसे अध्याय आगे बढ़ते जाते हैं, मुझे लगने लगता है कि गाँधी का अवमूल्यन करना इस उपन्यास का मूल उद्देश्य रहा है. बार बार गाँधी के उन अंधेरे पक्षों को गहनता से लिखा गया है, जिनसे उनकी छवि घूमिल होती है. हालांकि लेखिका ने सतर्कता से गाँधी के नैतिक जीवन मूल्यों, उनके आदर्शों और उनकीप्रतिबद्धतता के समर्थन में भी अपनी कलम चलाई है, लेकिन दृढ़ता से नहीं, बल्कि संभवतः मजबूरीवश. क्यों कि गाँधी जैसी शख्सियत का अवमूल्यन करना उतना आसान भी नहीं. जब भी अवसर मिला, गाँधी को एक अडियल पति और गैरजिम्मेदार पिता के रूप में प्रस्तुत किया गया है. इतना ही नहीं, उपन्यास में दो जगह ऐसे प्रकरण हैं, जब गाँधी को यह स्वीकार करते दर्शाया गया है कि यदि कस्तूरबा की मृत्यु भी हो जाती है, तब भी ठीक ही होगा !
उपन्यास के लगभग 350 पृष्ठ गांधी  के जन्म, बचपन, शिक्षा, विवाह सहित उन तेईस वर्षों के हैं, जो गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका मे रह कर आन्दोलन करते हुए बिताए थे. शेष 200 पृष्ठ उन तैंतीस वर्षों के, जब भारत लौट कर उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया. दक्षिण अफ्रीका में बिताए इन वर्षों के विषय में लोग तुलनात्मक रूप से कम ही जानते हैं. सत्ता की क्रूरता  के विरुद्ध विद्रोह की भावना, सत्य के प्रति उनकी अप्रमित निष्ठा, उनके मानवीय सरोकार और जनहित में अपना सर्वस्व न्योछावर  करने की उनकीअदम्य इच्छा कैसे उनके मन में आहिस्ता आहिस्ता बलवती होती जाती है, यह सब इन पृष्ठों को पढ़ कर थोड़ा बहुत जाना जा सकता है. डायरी के अनुसार कस्तूरबा को गाँधी का सनकी स्वभाव, उनकी जिदों, उनके आग्रहों और उनकी प्रतिबद्धतता की भारी कीमत चुकानी पड़ी. बिना कस्तूरबा से विमर्श किए ब्रह्मचर्य का व्रत लेना और एकाधिबार अलग अलग विषयों पर स्वयं निर्णय लेकर कस्तूरबा पर थोपना जैसी घटनाएँ गांधी  का एक अलग ही रूप प्रस्तुत करती हैं. 
कस्तूरबा की अपनी कथा के साथ साथ एक समानान्तर कथा भी और भी चलती रहती है, जिसे उपन्यास में एक प्रमुख स्थान प्राप्त है. वह कथा है, उनके सबसे बड़े पुत्र हरिलाल की.  किताब का एक बहुत बड़ा हिस्सा गांधी  के सबसे बड़े पुत्र हरिलाल कीपीड़ा पर केन्द्रित है, जिसे लेखिका के अनुसार, उसे उसका जायज हक़ गांधी  ने कभी नहीं दिया. गांधी ने ऐसा क्यों किया, इस पर भी वे विस्तार और दृढ़ता से प्रकाश नहीं डालती,  केवल संकेत देकर आगे बढ़ जाती हैं. कस्तूरबा के चरित्र पर हरिलाल की पीड़ा समूचे उपन्यास में हावी रही है. एक पिता अपने पुत्र के प्रति यूँ ही वैमनस्यपूर्ण नहीं हो जाता, इसकी पड़ताल बहुत ही सामान्य तरीके से की गई है, जिसे एक सजग पाठक को पंक्तियों के बीच में पढ़ना पड़ता है. 
यह तो सर्वविदित है कि हरिलाल का अपने पिता के साथ कभी सामन्जस्य नहीं रहा. यह कथा बताती है कि यूँ तो गाँधी ने अपने पुत्रों को स्वयं शिक्षा देने का प्रयास किया, किन्तु नियमित रूप से स्कूल भेजने में उन्होंने कभी रुचि नहीं ली. हरिलाल, जो बैरिस्टर बनने इंगलैंड जाना चाहता था, अवसर भी था, पर गाँधी ने हरिलाल के स्थान पर एक अन्य लड़के को भेजने का निर्णय लिया, क्यों कि वे नहीं चाहते थे कि लोग यह समझें कि उन्होंने अपनी प्रसिद्धि और ताकत का इस्तमाल अपने परिवार के लाभ के लिए किया. संभवतः यही वह बड़ी घटना थी, जिसने हरिलाल के मन में अपने पिता के प्रति विद्वेश को जन्म दिया. उपन्यास के अनुसार दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटने के बाद भी पिता और पुत्र के बीच की खाई कम होने के बजाय गहरी होती चली गई. हरिलाल को हमेशा अपने पिता का उपेक्षित व्यवहार मिला, जिस कारण वह शराबी, व्यभिचारी और एक नकारा पुत्र के रूप में उभर कर सामने आया है. वह अपनी पत्नी और परिवार के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहा. 
कथा नायिका कस्तूरबा अपने पति के नैतिक मुल्यों को दृढ़ता से प्रस्तुत करने के स्थान पर अपनी सारी सहानुभूति हरिलाल पर उंडेल देती हैं. यहाँ तक कि गाँधी की हत्या के बाद भी कस्तूरबा का स्नेह अपने उपेक्षित पुत्र के प्रति अपने पति की हत्या के दुःख से भी बड़ा जान पड़ता है. लेखिका ने हरिलाल को एक पीड़ित पुत्र की तरह चित्रित किया है, जो जैसा बन गया था, उसका प्रमुख कारण गाँधी रहे थे.
यह उपन्यास दरअसल हरिलाल की पीड़ाओं का दस्तावेज बन कर रह गया है. गाँधी जैसे किसी सहनायक की तरह पृष्ठ में चले गए हैं. ऐसा महसूस होना स्वाभाविक भी है, क्यों कि लेखिका ने गाँधी के उच्चादर्शों का गहन अन्वेषण नहीं किया है. कस्तूरबा आख़िर  गांधी  की पत्नी थीं, उनसे बेहतर यह कौन जान सकता था कि वे क्या कारक थे, जिन्होंने गांधी को गांधी  बनाया. क्यों उन्होंने धन संचय को ग़लत माना, क्यों वे अपने और दूसरों के बच्चों में भेद नहीं रखते थे, क्यों इतना सब होने बावजूद भी सब कुछ त्याग कर केवल एक धोती में रहना स्वीकार किया, क्यों वे तीन बंदरों का दर्शन लेकर आए, ”हिन्द स्वराज“ में अभिभूत कर देने वाली परिकल्पनाएँ कैसे उनके मन में आईं........ और भी बहुत सारे प्रश्न हैं जिन पर लेखिका ने अपनी कलम नहीं चलाई है, जबकि इन सब प्रश्नों से कस्तूरबा को अवश्य ही दो चार होना पड़ा होगा. जब यह कस्तूरबा की डायरी है, तो इन सबके उत्तर तो होने चाहिए थे ! उपन्यास के अन्त तक वे गांधी  के यौन प्रयोगों पर कुछ न कुछ कहती ही रही हैं.
पर लेखिका का यह वक्ततव्य कि जैसा मुझे ठीक लगा, मैंने लिखा, आप अपनी तरह से लिखना चाहें, तो लिखें, कुछ अतिरिक्त टिप्पणी करने से रोकता है, हालांकि यह वक्तव्य अपनी लेखकीय जिम्मेदारी से बचना भर है.   
लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लेखिका का यह एक सराहनीय प्रयास है. इससे एक पाठक को एक स्त्री की दृष्टि से गांधी  को समझने में अवश्य ही मदद मिलती है, विशेषकर एक माँ कीदृष्टि से. और फिर इतने बड़े व्यक्ति पर कलम चलाना कोई छोटी बात नहीं होती. लिखने वाले को अनेक ख़तरों  से जूझते हुए अपनी राह बना कर अपना काम करना होता है. लेखिका ने लिखने से पूर्व जो अनुसंधान किया होगा, जो मेहनत की होगी, उसे सलाम!

No comments: