हिंदी साहित्य में जो मुख्य विमर्श शुरु हुए उन का दौर गत सदी के नौवेँदशक के प्रारंभ से माना जाता है जहां मुख्यतः हाशिए को मुखर होने काअवसर प्रदान हुआ बात दलित साहित्य की कि जाए तो यहां चूँकि चेतना के अवसर अत्यंत सीमित थे और इस वर्ग ने अपने मनुष्य होने के अस्तित्व को ही लगभग भुला दिया था साथ ही शिक्षा यहाँ किसी स्वप्न की भाँति थी तो ज़ाहिर है कि जागृति और अधिक देर से हुई। अगर चेतना के बीज की बात करेँ तो बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने इस वर्ग हेतु अपने अनेक समाज सुधारक कार्यों और प्रगतिशील सोच से एक नवीन क्रांति का सूत्रपात किया यह कहना अतिश्योक्ति नहीँ होगी।
दलित लेखन , स्त्री लेखन आदिवासी लेखन आदि घेरे बंदियो में रखकर जब साहित्य को वर्गीकृत करने की चेष्टा की जाती है तो मेरा पाठक मन इन घेरेबंदियो को तोड़ केवल उस रचना की तलाश में लग जाता हे जहाँ कुछ अलग कहने का प्रयास किया गया हो जहाँ किसी वर्गीकरण के तहतस्वंय को प्रचारित करने के प्रयास नहीँ किया गया हो वरन् कभी आत्मानुभूति से तो कभी परदुख अवलोक कर समष्टि से जुडने का प्रयासकिया गया हो । साहित्य सही मायने मेँ वही हे जो सीधे दिल को छू जाए।यह छूना कभी व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश भरना भी हो सकता हे ,कभीप्राकृतिक आपदाओं से हुई क्षतियों से उपजा मानसिक, उद्वेलन भी हो सकता है तो कभी प्रकृति को सखा मानते हुए उस अलौकिक सत्ता से जोड़ने का प्रयास भी हो सकता है। दलित साहित्य से मेरा पहला साक्षात्कार मराठी की दलित रचनाओं से ही हुआ था हिंदी मेँ दलित सरोकारोँ का उत्थान ज्वार जो हम अब देख रहे हें वह तब प्रारंभ भी नहीँहुआ था । हिंदी के हाल के साहित्य में जिन रचनाकरों ने अपनी रचनाओं से प्रभावित किया है उनमे ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय,सूरज पाल सिंह चोहान ,अंजलि काजल ,भगवानदास मोरवाल ,जय प्रकाश कर्दम ,सुशीला टाकभौरे ,अजय नावरिया ,श्यौराज सिंह बेचैन,अनीता भारती आदि लेखकोँ के नाम कौन से है कौंधते हैँ जिन्हें कई बार अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं मेँ पढ़ा है और दलित आंदोलनों पर ,सरोकारों पर अपनी आवाज उठाते हुए देखा है।
दलित संदर्भों युक्त रचनाओं के अध्ययन करने पर प्रथमतया जो बात ऊभर कर सामने आती है वो यह है कि यह सूचनात्मक है परंतु साथ ही यह स्वानुभूति से उपजा मौलिक साहित्य है। सूचनात्मक होने का अर्थ है किइस साहित्य में उन कई अनछूए पहलुओं को उकेरा गया है जिसका पतासवर्ण समाज या आम व्यक्ति को नहीँ होता है। इस तरह यह साहित्य एक अपरिचित समाज खंड के वास्तविक जीवन की झांकी को सामने लाने का प्रयास है और इस प्रयास मेँ शामिल हैँ उस वर्ग की पीडा, हताशा और समाज से लड़ते रहने की प्रवृत्ति, कभी थक कर बैठना तो कभी गिर कर उठने की जद्दोजहद । “पर जिन परिस्थितियो का चित्रण है उन्हें हिंदी साहित्य के पाठक के लिए इससे पहले भी सर्वथा अपरिचित नहीँ माना जा सकता, उन परिस्थितियोँ मेँ जीवित रहने के अनुभव को लेकर ज़रुर प्रमाणिकता की बात की जा सकती हे लेकिन साहित्यिक कृति की प्रमाणिकता की इस बात से सिद्ध नहीँ होती कि लेखक उसे खुद जीकर झील कर देखने का प्रमाण पत्र दे। वह रचना द्वारा अर्जित की जाती हे उसकी विश्वसनीयता भी अर्जित होने से ही आती हे। ” 1
दलित साहित्य पर स्वानुभूति और सहानुभूति को लेकर बहुत विचारोत्तेजक बहसें सामने आयी है। बार बार यह कहा भी गया है कि सहानुभूतिपरक साहित्य दलित साहित्य नहीं हो सकता क्योंकि गैर दलित उस पीड़ा और वेदना को उतनी गहराई से नहीं महसूस सकते जितना कि कोई दलित उसे महसूसता है, उसे हर सांस में जीता है। दलित चिंतक इस बात से असहमत है कि गैर दलितों ने दलितों के मुद्दे पर जो भी लिखा है उसे दलित लेखन में शामिल किया जाए या नहीं। अगर राय असहमहति की है तो इस मंतव्य का सीधा सीधा अर्थ होगा कि हर लेखक केवल अपने समानधर्माओं के संबंध में ही बेहतर और प्रामाणिक लिख सकता है। “एक हद तक यह ठीक भी है क्योंकि किसी भी रचनाकार के लिए अपने प्रारंभिक संस्कारो से पूरी तरह मुक्त हो सकना असंभवप्रायः ही है। यह भी कि हर रचनाकार को कच्चा माल और रचनात्मक ऊर्जा अपने जीवन के आरंभिक दौर से ही प्राप्त होती रहती हे। इसी लिए स्वाभाविक हे कि दलितों के बारे मेँ भी दलित ही सबसे अच्छा लिख सकते हें लेकिन यह कहना कि कोई गैर दलित दलितोँ के बारे मेँ कोई प्रभाव प्रद या प्रामाणिक रचना लिख ही नहीँ सकता ,लेखकीय सहानुभूति और कल्पनाशीलता का जबरदस्त अवमूल्यन करना है।”2
अगर विस्तृत परिप्रेक्ष्य मेँ देखेँ तो दायरों में बँधा लेखन कभी आरक्षण केखांचों की भांति ही साहित्य को भी बाँट देने का प्रयास भर लगता हे फिर चाहे वह स्त्री लेखन हो या दलित लेखन । किसी एक परिधि मेँ आंकना,बांधना ठीक नहीँ परन्तु हाँ उस साहित्य , वर्ग विशेष को प्रकाश में लाने हेतुयह साधना एक सहायक सिद्ध हो सकती है। अगर दलित और गैर दलित के आधार पर हम लेखन का मूल्यांकन करने लगे तो यह केवल एकांगी होगा। ऐसे में अगर आलोचना का मुद्दा केवल यही बनाया जाए कि अमुक रचना दलित ने लिखी है और अमुक गैर दलित ने तो यह वर्गीकरण ठीक नहीं और इस आधार पर कृति की प्रामाणिकता अथवा अप्रामाणिकता का निर्णय करना उचित नहीँ । इस विषय मेँ आलोचनाके समय भी आलोचक को विशेष सावधानियाँ बरतनी होंगी । किसी कृति के मूल्यांकन के समय यह भी बताना होगा कि “कैसे यह वास्तविक दलित अनुभव से भिन्न है, ऐसी किसी भी टिप्पणी मेँ यह धारणा भी शामिल है कि दुनिया भर के दलितो का सोचने और महसूस करने का तरीका एक सा ही है और इससे भिन्न हुआ तो वह दलित अनुभव नहीँ होगा बजाए इसके कि दलितोँ के नाम से जो भी अनुभव रचना के भीतर है वह इसी रुप मेँ संप्रेषित हो पाता हे या नहीँ।”3
दलित लेखन ,स्त्री लेखन या अन्य किसी की विचारधारा को जब हम एकश्रेणी मेँ बांध कर देखते हैँ या किसी आंदोलन के तहत बांधने का प्रयास करते हैँ तो वस्तुतः थे हम उसे एक खोल में समेट देने का प्रयास करते हैं आंदोलन की विचारधारा किसी समस्या को रेखांकित करती है उसमें रोज नया घटने को कुछ नहीँ होता वहाँ सिर्फ समस्या के समाधान के लिए दृष्टि भर होती है जैसे की कोई दस्तक बंद दरवाजोँ पर देने का प्रयास कर रहे हो परंतु उसके बाद वह सीमा सृजनात्मकता मेँ बाधा उत्पन्न करती है। जब लेखन किसी दायरे में बंध कर किया जाता है तो उसका कथ्य या थीम और बहुत हद तक शिल्प भी तय हो जाता है और ऐसे में सृजनात्मकता का हनन होता है क्योंकि मौलिकता ,सृजनात्मकता तो चौंकाती है, नवोन्मेष शालिनी होती हे । “दलित लेखन के बारे मेँ भी कहना यही है कि एक तात्कालिक आवश्यकता तो है ही लेकिन वहां भी स्त्री विमर्श की ही तरह बल्कि उससे भी अधिक सीमित कथ्य के कारण इतनी जल्दी दोहराव और ऊब की स्थिति बनती जा रही है कि आशंका का समय आ पहुँचा लगता है।”4 आज वस्तुतः लक्षण और मूल्योँ के आधार पर साहित्य की घेरेबंदी की जा रही है। स्पष्ट है कि यदि अस्मिता के लक्षण और मूल्यों के आधार पर किसी साहित्य की घेरेबंदी की जा रही है तो यह निश्चित तौर पर आशंका का समय है और इस साहित्य के अवमूल्यन का समय है। आज आवश्यकता है उदासीनता और ऊब के इन घेरों को तोडकर मौलिक और मुक्त साहित्य को रचने की जिससे रचनात्मक मूल्य जीवित रहें।
साहित्य का अनुशीलन करने पर हम पाते हैँ कि आज स्त्री विमर्श, दलित विमर्श केंद्रित कोई रचना प्रकाश मेँ आती है तो उस पर एक आक्षेपलगाया जाता है कि यह schizophrenia की अवस्था में लिखा गया लेखन है या चकरघिन्नी का लेखन है । दलीले दी जाती हैं की अब हम उत्तर आधुनिक युग मेँ जी रहे हैँ जहाँ इन विमर्शोँ की आवश्यकता ही नहीँहे परंतु गौर करने पर हम पाते हैँ कि आजादी के 67 वर्ष बाद भी हम में से किसी को अपने जीवन अनुभव मेँ कभी महसूस नहीँ हुआ कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था और जाति व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त हो गई हो और ज़ाहिर है यह मौजूद है इसीलिए साहित्य मेँ भी यह धाराएं बह रहीहैं। जिस दिन यह विरोधाभास और प्रतिरोध समाप्त हो जाएगा और येधाराएं भी एक होकर बहने लगेगी । दलित साहित्य के प्रारंभ की बात की जाए तो दलित साहित्य के बीज बुद्ध और अंबेडकर वादी सोच के परिणाम स्वरुप उपजे हैं। दलित साहित्य का उभार और विकास कई स्तरों पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण अनुसार भी हुआ । मराठी साहित्य मेँ अनेक आत्म कथाएँ सामने आयी जो हाशिए के स्वर को अपनी आवाज देते हुए अपना प्रतिरोध दर्ज कर रही थी । दलित साहित्य की इस धमककी अनुगूँज हिंदी साहित्य को भी उद्वेलित करने लगी । दलित लेखन के आगमन पर मेनेजर पांडे कहते हें-“ जहाँ तक सामाजिक ऐतिहासिक दृष्टि का सवाल है मैं कह सकता हूँ भारतीय समाज के सबसे शोषित,दमित ,उत्पीडि़त जन समुदाय की आवाज के रुप मेँ दलित साहित्य का आना मुझे भारतीय समाज की बुनियादी परिवर्तन के लिए जरुरी चेतना के विकास की दिशा मेँ एक महत्वपूर्ण कदम लगा था ।”5 यह सही बात है कि दलित साहित्य के आगमन से ही उस वर्ग की पीड़ा , यातना और प्रताड़ना की सही सही तसवीर समाज के सामने आई। इस साहित्य ने हीँ अनेक वर्गो के बुद्धिजीवीओं में अंबेडकर, ज्योतिबा फुले और बुद्ध को पढ़ने समझने की ललक पैदा की। दलित साहित्य का पदार्पण केवल साहित्यिक फलक पर घटने वाली कोई घटना भर नहीँ है वरन् यह बुनियादी रुप मेँ व्यापक स्तर पर घट रही सामाजिक और सांस्कृतिकआंदोलनोँ की मुखर अभिव्यक्ति है।
आज दलित सरोकारों की बात जब भी की जाती है तो उसे अंबेडकरवादी दर्शन से जोड़ कर देखा जाता है या इसी संज्ञा से जाना जाता है। इस दर्शन में जातिप्रथा का उन्मूलन, मनुवाद की अवहेलना, बौद्ध के आष्टांगिक मार्ग का पालन, स्वचेतना का विकास, शिक्षा की अनिवार्यता, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध, राजकीय व सामाजिक स्तर पर समाजवाद की स्थापना और लघुमानव की स्थापना जैसे क्रांतिकारी स्वर सुनाई पड़ते हैं। इसी विचारधारा को आज दलित संदर्भों में अम्बेडकरवाद के नाम से जाना जाता है। यह वाद वस्तुतः मानवतावाद पर आधारित है। यह केवल दलित और शोषित वर्ग की ही मुक्ति की कामना नहीं करता वरन् सम्पूर्ण समाज के लिए मुक्ति की कामना करता है। “आम्बेडकरवाद श्रमिक वर्ग के नेतृत्व में सामाजिक क्रांति की संकल्पना प्रस्तुत करके अंतर्राष्ट्रीयतावाद की अवधारणा को भी एक मजबूत आधार प्रदान करता है। आम्बेडकरवाद सामाजिक लोकतंत्र में विश्वास करता है , जिसे संवैधानिक तरीकों से ही प्राप्त किया जा सकता है। आम्बेडकरवाद सम्यक् परिवर्तन पर जोर देता है यानि वह पूर्णतः सामाजिक परिवर्तन चाहता है। आम्बेडकरवाद एक समान रूप से ब्राह्म्णवाद और पूंजीवाद को दलित ,पिछ़ड़े वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन मानता है। आम्बेडकरवाद सम्पूर्ण मानव समाज के लिए उन मूल्यों को स्थापित करना चाहता है जो समता ,स्वतंत्रता औ बंधुत्व पर आधारित है। वह यह भी मानता है कि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व में ही व्यक्ति स्वतंत्रता की भावना निहित है। एक व्यक्ति-एक मूल्य,सामाजिक लोकतंत्र का आधार बिन्दु है इसलिए वह शब्द – प्रमाण और ग्रंथ – प्रमाण की अवधारणा को अस्वीकार करता है। इस तरह आम्बेडकरवाद डॉ अम्बेडकर के विचारों का समुच्चय है। इसलिए आम्बेडकरवाद को सिर्फ जातिप्रथा उन्मूलन तक ही सीमित करके नहीं देखना चाहिए क्योंकि आम्बेडकरवाद एक ऐसा सामाजिक दर्शन है जो समस्त शोषित – पीड़ित और उपेक्षित मानव मुक्ति के लिए प्रयत्न करता है। ” 6 आम्बेडकरवादी साहित्य विचारधारा सापेक्ष है और इस विचारधारा का अंतिम लक्ष्य ऐसे यथार्थवादी लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करना है जिससे समता,स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर सभी को अपनी प्रगति व खुशहाली के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध हो। इसी क्रम में अगर दलित साहित्य की बात की जाए तो डॉ श्योराज सिंह बैचेन के शब्दों में , “ यह उन अछूतों का साहित्य है जिन्हें सामाजिक स्तर पर सम्मान नहीं मिलता। सामाजिक स्तर पर जातिभेद के जो लोग शिकार हुए हैं उनकी छटपटाहट ही शब्दबद्ध होकर दलित साहित्य बन रही है”, और इस साहित्य के मूल में अम्बेडकरवादी दर्शन है।
हिन्दी दलित साहित्य पर मार्क्सवाद का भी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है परन्तु इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव को लेकर पक्ष और विपक्ष दोनों ही मत देखने को मिलते हैं। मार्क्सवाद के समर्थक साहित्यकारों का कहना है कि चूँकि मार्क्सवाद एक वर्गविहिन समाज की कल्पना करता है और इस हेतु संघर्ष की प्रेरणा देता है इसलिए यह दलित साहित्य और सरोकारों का हिमायती है । अतः दलित साहित्यकारों को मार्क्सवादियों के साथ लामबंद होकर संघर्ष करना चाहिए। इसी पक्ष को लेकर डॉ चंद्रकुमार वरठे का मानना है कि- “ मुझे लगता है कि भारतीय समाज के सदियों से घुन खाए ज़ख्मी ज़िस्म का अगर कविता के द्वारा कुछ भी इलाज करने की कुछ भी इच्छा हो ,तो उसे कार्ल मार्क्स और डॉ अंबेडकर के बताए रास्ते से ही जन-जन को परिचित कराना होगा। सच्ची कविता चाहे जन की हो या मन की हो, उसके लिए सही रास्ता यही है।”(अधूरी चिट्ठी रोशनी कीः चन्द्र कुमार वरठे, आत्मकथ्य) इसके विपरीत जो दूसरी विचारधारा है जो कि यह मानती है कि ब्राह्मण ही वर्ग व्यवस्था के नियामक रहे हैं और कम्यूनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व ही सदा इन वर्गों के हाथों में रहा है और वे वर्ण व्यवस्था से छेड़छाड़ किए बिना वर्ग की लड़ाई लड़ते रहे हैं। इस संदर्भ में डॉ जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं कि, “मार्क्स का अपना लक्ष्य है और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके अपने साधन और सिद्धान्त है, जबकि दलितों का अपना लक्ष्य है और उसकी प्राप्ति के लिए उसके अपने साधन और सिद्धान्त हैं। यद्यपि दूसरे विचारों और सिद्धान्तों की तुलना में दलितों का मार्क्सवाद के प्रति ज्यादा सकारात्मक दृष्टिकोण रहा है, क्योंकि मार्क्सवाद का वर्गहीन समाज का लक्ष्य दलितों के जातिहीन समाज और वर्गहीन समाज की स्थापना के व्यापक लक्ष्य का एक आयाम रहा है।इसलिए मार्क्स या मार्क्सवाद से दलितों का कोई विरोध या आपत्ति नहीं है। दलितों को यदि आपत्ति है तो वह मार्क्सवादियों के उस आग्रह से है कि दलित उनके साथ जुड़े। यह आग्रह इस बात को इंगित करता है कि दलित मार्क्सवाद से नहीं जुड़ रहे हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर की भी मार्क्सवाद के साथ कभी पटरी नहीं बैठी थी। इतिहास गवाह है कि बाबा साहेब के विचार या कार्यों का किसी मार्क्सवादी ने कभी समर्थन या सहयोग नहीं किया था। आज भी दलितों द्वारा सामाजिक समता और स्वाभिमान हेतु किये जा रहे संघर्ष को मार्क्सवादियों का कोई समर्थन नहीं मिल पाता है। दलित जहाँ जाति-विहिन और वर्गविहिन समाज की स्थापना के लिए संघर्षरत है मार्क्सवादी वहीं पुराने केवल वर्गभेद मिटाने के अपने पोथीनिष्ठ सिद्धान्तों पर अडिग है। जाति विरोध से उनका कोई लेना देना नही है। जब तक मार्क्सवादी चिंतक जाति की खिलाफत को अपना एजेण्डा नहीं बनाते, तब तक मार्क्सवादियों को दलितों का हितैषी कैसे स्वीकार किया जा सकता है?”7
दलित कवियों में ऎसे कवि जो मार्क्स और उनके वर्गसंघर्ष में आस्था रखते हॆं वे बदले की प्रवृत्ति और अभद्र भाषा के स्थान पर तमाम कुप्रवृतियों ,धर्मगत विसंगतियों तथा सामाजिक, राजनौतिक, आर्थिक शोषकों के दमन, स्वार्थपूर्ण नीति और उनकी चालाकियों पर तीखे प्रहार करते हॆं । मराठी दलित कविता की बात की जाए जो कि इस साहित्य का उद्गम है तो वहाँ दलित कविता से आशय हॆ दलित कवियों द्वारा लिखी गयी कविता अर्थात् अस्पृश्यता, सामाजिक शोषण, जातिवाद,शोषण ऒर अन्याय के खिलाफ़ विद्रोह के स्वरों से उपजी कविता । मराठी दलित कविता की अनुवाद के माध्यम से अपनी पुस्तक ’रक्त में जलते हुए अनगिनत सूर्य’ (1982) के द्वारा हिन्दी जगत को कदाचित पहली झलक दिखाने वाले कवि दिनकर सोनवलकर के शब्दों में- आगे चलकर दलित कविता दो दिशाओं में विकसित होने लगी- एक, अम्बेडकर, जिस पर बुद्ध के यथार्थवादी मानवतावाद का प्रभाव हॆ ऒर दूसरी, मार्क्सवादी जो समाज के आर्थिक विश्लेषण से प्रेरित हॆ। विद्रोह यहाँ भी हैलेकिन वह फ़ेशनेबिल, सुविधाभोगी, बुद्धिजीवियों का शगल नहीं । जनवाद इसमें भी हॆ लेकिन वह पार्टी-पीड़ित नहीं हॆ ऒर न ही साहित्य में प्रतिष्ठित होने की एक आसान सीढ़ी है और ना ही खेमेबंदियों का वह पोषक है । दलित कविता की ताकत हॆ, आक्रोश, ज़िन्दगी के कड़वे अनुभव, कवियों का दर्द और आंसू, खून, पसीने ऒर उनके गुस्से से लिखी गयीं रचनाएं जिसको पढ़कर वीर रस सा नाद हर शिरा में होने लगता है । उनका नाता दलितों के यथार्थ से हॆ । अपने अनुभवों से वह गहरे से जुड़ी हुई हॆ। अम्बेडकरवादी कविता मार्क्सवाद के विरोध में कतई नहीं हॆ । उसके कथ्य खालिस देसी हॆं ऒर संदर्भ भारतीय ।
साहित्य के कैनवास पर इस चेतना का आगमन अचानक नहीं हुआ बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक और ऐतिहासिक दृष्टि थी। 1933-34 में ही प्रगतिशील लेखक सम्मेलन के दो तीन वर्ष पूर्व ही यह समाजवादी चेतना साहित्य में प्रस्फुटित होना प्रारम्भ हुई थी। 1936 में लिखी गई ‘पूस की रात’ कहानी इसका प्रमाण है। कहानी में अगर कुछ गहरे पैठें तो कहानी के पात्र घीसू और माधव अपनी अमानवीयता के पीछे पूँजीवादी व्यवस्था के दंशों का चिह्न छोड़ते साफ़ नज़र आते है। इस कहानी में एक और जहाँ घीसू और माधव का नैतिक पतन पराकाष्ठा पर है वहीं यह व्यंजना में पूरी सामाजिक व्यवस्था के पतन का सूचक बन जाता है। ठाकुर का कुआँ भी इसी श्रेणी की कहानी है जो सामाजिक व्यवस्था पर करारा प्रहार करती है। यह कहानी वस्तुतः उस सामन्ती व्यवस्था के प्रति तीव्र विद्रोह है जो अपनी अहंजन्यमानसिकता के चलते सर्वहारा वर्ग को पानी से भी वंचित रख देती है।यहीं से साहित्य में सम्भवतः प्रथमतया दलित चेतना का सूत्रपात माना जाता है । यूँ हीराडोम की कविता का पदार्पण पहले हो चुका है परन्तु गद्य के क्षेत्र में इसका श्रेय प्रेमचंद को ही है। हिन्दी की दलित कविता बौद्ध साहित्य,लोक साहित्य और संत साहित्य से निसृत हुई जान पड़ती है। स्वतंत्रता पूर्व की कविताओं का जिक्र करें तो हीराडोम की कविता “अछूत की शिकायत ”सरस्वती मासिक के सितम्बर ,1914 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इस काल के दूसरे महत्वपूर्ण कवि अछूतानंद हरिहर हैं जिन्होंने दलित जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी काव्यकृति ‘आदिवंश का डंका ’ को काफी ख्याति मिली है। “यह काव्यसंग्रह गीत ,गजल,कव्वाली, भजन, रसिया और जयमंगलगान आदि लोकछंदों की एक अनूठी कृति है। लोकप्रियता के कारण यह पुस्तक सन् 1983 तक ग्यारह बार प्रकाशित हो चुकी है। इस पुस्तक में 21 कविताएं हैं।”8 उनकी कविता में अतिशय संवेदनशीलता और अपने वर्ग की पीड़ा के यथार्थ दर्शन होते है-“मैं अछूत हूँ छूत न मुझमें क्यों जग ठुकराता है। छूने में भी पाप मानता, छाया से घबराता है।” इसी कविता में आगे बतलाया गया है कि जब तक दलित दलित रहता है उसे हेय समझा जाता है ,उसे सामाजिक कटघरों के माध्यम से यातनाएं दी जाती है परन्तु जैसे ही वह धर्म परिवर्तन कर मुसलमान या ईसाई बन जाता है उसकी घर वापसी हो जाती है। वह इस परिवर्तन से चौंकता है इसीलिए यह सवाल भी सवर्ण से करता है-“ क्या कारण है इस परिवर्तन का एक सवर्ण बतला दे तू। क्यूँ ना तजूँ इस अधर्म धर्म को, इसे जरा जतला दे तू।”9
1985 में राष्ट्रीय अम्बेडकर पुरस्कार से सम्मानित श्री बिहारी लाल ‘हरित’अछूतानंद परम्परा के ही कवि हैं। उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं में भीमायण(महाकाव्य),जगजीवन ज्योति( चम्पू काव्य) सहित लगभग 30 काव्य ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। उनकी ‘चमार हूँ मैं’ लम्बी कविता भी काफी ख्याति को प्राप्त हुई जिसमें स्वानुभूत की पीड़ा को व्यष्टि से समष्टि स्तर पर फैलाने का प्रयास किया गया है- ‘ चाम से ही चाम का अब कर रहा प्रचार हूँ मैं, व्यंग्यकश मुझको न छेड़े, जानते हो चमार हूँ मैं।’ इसी क्रम में श्री बाबू लाल सुमन कृत अम्बेडकर महाकाव्य ग्यारह सर्गों में लिखा गया एक सुरूचिपूर्ण ग्रंथ है। इस महाकाव्य में अम्बेडकर के जीवन चरित, विद्रोही व्यक्तित्व, जन सरोकारों से युक्त प्रयासों एवं साहित्यिक सृजन को उकेरने का प्रयास भी किया गया है। “अम्बेडकर अब तक के लिखे गए सभी दलित काव्य संकलनों एवं चरित्र काव्यों में श्रेष्ठ है। इसमें काव्यगत सौन्दर्य , कामायनी, साकेत तथा उर्वशी के समान है। सम्पूर्ण काव्य में विद्रोह, संघर्ष एवं काव्य सौन्दर्य की अपूर्व छटा है।”10 इन रचनाकारों के अतिरिक्त इस कालखण्ड में श्री माताप्रसाद, सर्व श्री चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’,डॉ गयाप्रसाद प्रशांत, अवधेश बिहारी, आनन्द प्रकाश, गुरूप्रसाद मदन,पन्नालाल प्रेमी, कवि गुरू कंवरलाल खद्योत, कालीचरण गौतम, बुद्धसंघ प्रेमी, अंनेगदास,शिवचरण,परमानंद जडिया, डॉ रविन्द्र भ्रमर आदि के नाम उल्लेखनीय़ हैं। डॉ दयानंद ब़टोही, डॉ सोहनपाल सुमनाक्षर,लालचंद राही, डॉ सुखबीर सिंह, डॉ प्रेमशंकर,डॉ पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी, मंशाराम विद्रोही, मलखान सिंह, मोहनदास नैमिशराय, तेजपाल सिंह तेज,डॉ धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ चंद्र कुमार वरठे, अ.ला.ऊके,कंवल भारती,डॉ सुशीला टांकभौंरे,कर्मशील भारती, सूरजपाल चौहान, कुसुम वियोगी, डॉ एन.सिंह, डॉ सी. बी.भारती,डॉ जयप्रकाश कर्दम,डॉ श्यौराज सिंह बैचेन ऐसे कवि हैं जो विभिन्न जनांदलोनों से गुजरते हुए , उस वर्ग विशेष की महीन संवेदनाओं को निकाल लाते हैं जिन पर आम नज़र जाना संभव नहीं।
समकालीन हिन्दी दलित कविता की जब बात की जाती है तो इनमें कुछ काव्य संकलन अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़ करते हैं। ‘पीड़ा जो चीख उठी’ और ‘ दर्द के दस्तावेज’ काव्य संकलन दलित रचनाओं के संकलन में महत्वपूर्ण है। मलखान सिंह का काव्य संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण का एक एक शब्द भीतर तक झकझोरने का सामर्थ्य रखता है। मैं आदमी नहीं हूँ, एक पूरी उम्र,सफेद हाथी,पूस का एक दिन और सुनो ब्राहम्ण जैसी अनगिनत कविताएं कवि के भोगे हुए यथार्थ को चेतना के समष्टि स्तर पर लाकर रख देने का सामर्थ्य रखते हैं। वे स्वयं लिखते हैं, “ मेरी कविताएँ मेरी भोगी हुई यातनाएँ हैं। इन्हें लिखते समय कभी मैं रोया हूँ, कभी क्रोध से पागल हो उठा हूँ तो कभी किसी सार्थक बिम्ब के हाथ में आ जाने पर बच्चों की तरह किलकारी मार घंटो हँसा हूँ।”11
वे अपनी कविताओं में कभी इस वर्ग विशेष के व्यक्तियों पर मनुष्य होने पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं तो कभी सर ढकने के लिए एक अदद छत की तलाश करते नजंर आते हैं। वे इस वर्ग का चित्रण करते हुए लिखते हैं-
“बगल में
मूँज है-मुँगरी है
तसला है-खुरपी है
छैनी है-हथौड़ी है
झाड़ू है-रंदा है-या-
बूट पालिश का धंधा है।
खाने को झूठन है,
पोखर का पानी है।”12
समकालीन कविता में अनेक कवि हिन्दी में दलित सरोकारों पर अपनी लेखनी चला रहे हैं । सुखद यह है कि वे उन सभी विषयों पर लिख रहे हैं जिस पर लिखा जाना आवश्यक है। दलित महिला लेखन भी अब अपनीसमस्याओं, पीड़ा को साहित्य के विस्तृत फलक पर अभिव्यक्त कर रहा है। कुछ कवियों की काव्यात्मक उपलब्धियाँ विस्तृत रूप में की जानी इस लेख हेतु आवश्यक है। श्री लालचंद राही का काव्य संग्रह. 'मूक नहीँ मेरी कविताएँ' हमेँ दहला देने वाले अनुभव से गुजारने का प्रयास करती है तथा उस सच से रुबरु करवाने का प्रयास करती हे जोकि उस वर्ग की सामाजिक स्थिति का कष्ट है । उनकी कविता स्वतंत्रता के बाद स्वतंत्र भारत के यथार्थ स्थिति को बयां करती है जहाँ एक ओर विकास के दावे किए जाते हे दूसरी ओर एक स्त्री अपनी अस्मिता को बचाने हेतु संघर्षरतहे,जूझती है –“15 अगस्त के दिन /फूल चढ़ाने पर /डंडे मिले /पंडित देव पाल के/ अछूत को/ उसी की बेटी के साथ/ बलात्कार हुआ / और मंदिरअपवित्र नहीँ हुआ/ 26 जनवरी की रात को /स्वतंत्र भारत के/ छोटे से गांव मेँ।” (मूक नहीँ मेरी कविताएँ. पृष्ठ- 21) । दलित सरोकारोँ पर अपनी लेखनी चलाने वालोँ मेँ डॉ पुरुषोत्तम सत्य प्रेमी एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। इनके तीन कविता संग्रह द्वार पर दस्तक ,सवालो के सूरज और मूक माटी की मुखरता इस वर्ग की पीडा को बखूबी अभिव्यक्त करते हैँ । ये कविताएँ ना केवल असंगत स्थितयों को रूपायित ही करती हैं वरन् उनसे मुक्ति का मार्ग भी सुझाती है। सवालो के सूरज में कवि वर्ग विषमता पर इतनी शक्ति से प्रहार करता है कि सामाजिक व्यवस्था से मोहभंग की स्थिति उत्पन्न हो जाती हे । आँसू ही आँसू कविता में वे लिखते हें “ आँसूही आँसू है/ मेरे भारत /नम हुई है आँसू से /हर आदमी की आंख/ और स्वतंत्रता स्वराज व समता का/ सपना संजोती भारत माता /संशय की पीडा भोग रही है।( सवालो के सूरज ,पृष्ठ-47 )। डॉ सोहनपाल सुमनाक्षरदलित साहित्य अकादमी दिल्ली के अध्यक्ष तथा हिंदी दलित साहित्य के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इनके काव्य संग्रह ‘अंधा समाज बहरे लोग’’ तथा ‘सिंधु घाटी बोल उठी’ हमारे समय का सच बयान करती हे । कहीं कहीं इनकी कविताओं में राजनीतिक हस्तक्षेप भी हावी हो जाते हैं।
श्री मोहनदास नैमिशराय ने दलित वर्ग के आत्मसम्मान को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का प्रयास किया है। वे लोकायन और क्रांति धर्मी पत्रिकाओं के सह संपादक और बाबा साहब डॉ अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय के संपादक रहे हैँ । वे ‘फर्क तक करना हे’ और’ दर्द के दस्तावेज’ जैसी महत्वपूर्ण कविताओं में बताते हैं कि जातिगत संबोधन मनुष्य की आत्मा पर लगने वाली खरोचेँ हैँ। इसी क्रम में जय प्रकाश कर्दम दलित साहित्य के सजग हस्ताक्षर है। ‘गूंगा नहीँ था मैं’ काव्य संग्रह से वे हिंदी दलित कविता मेँ अपनी सशक्त उपस्थिति बताते हैँ। दलित तमाम उपेक्षाओँ के बाद भी सतत संघर्षरत है। वह दमन की दहलीज पर भले ही खड़ा है परन्तु वह अपने भीतर आक्रोश को निरन्तर पाल रहा है यही उनकी कविताओं का मूल स्वर है। हिंदी दलित कविता को पहचान के स्तर पर जिन कवियोँ ने स्थापित किया है और निरन्तर कर रहे हैं उनमें डॉ सुखबीर सिंह, डॉ प्रेम शंकर ,डॉ एन. सिंह डॉ श्यौराज सिंह बेचैन ,ओमप्रकाश बाल्मीकि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। “इनकी कविताओं में अनुभूति की गहनताऔर शिल्प की प्रौढ़ता देखने को मिलती है। भोगे हुए यथार्थ की प्रामाणिक अभिव्यक्ति इनकी कविताओं का प्राण है जिसके कारण ये कविताएँ बोधक तो हैं ही बेधक भी हैं। " 13 समकालीन हिंदी दलित कविता मेँ डॉ एन सिंह , डॉ श्यौराज सिंह बेचैन आक्रोश के कवियो के रुप में हमारे सामने उपस्थित होते हैँ व्यवस्था पर चोट करना और सामाजिक परिवर्तन उनकी कविताओं के मुख्य स्वर है। डॉ एन सिंह ‘ सत्य से उठते हुए’ कविता में सिंह दलितोँ के हिस्से मेँ आई श्रम पर अपनी लेखनी चलाते हैं। वे कहते हे कि दलित अपने श्रम से अनवरत दूसरों की झोलियाँभरता रहता है परंतु खुद उसकी झोली खाली रह जाती हे। वे अपनी कविता मेँ व्यवस्था के उस संविधान पर आक्षेप करते हैं जिसने लिखा हेकि तेरे अधिकार में सिर्फ श्रम है, भोग नहीं है इसलिए वे अपने लिखे से सविधान की ही कब्र तक खोदना चाहते हैं । वे लिखते हैँ “ मेरे श्रम कण /मिट्टी मेँ मिल कर /दूसरोँ की झोली को भर देते हैँ मोतीयों से और / मेरी झोली में होते हैँ / भूख बेबसी और लाचारी/ इसलिए अब/ मेरे हाथ की कुदाल /धरती पर कोई नींव खोदने से पहले/ कब्र खोदेगी /उस व्यवस्थाकी जिसके संविधान में लिखा है / कि तेरा अधिकार सिर्फ कर्म में हे / फल पर तेरा अधिकार नहीँ ।” (सत्य से उठते हुए डॉ एन सिंह पृष्ठ-११ )
दलित साहित्य को पढ़ने पर बार बार इसके मोनोटोनिक (एकरस) होने का डर लगता हे। यह संभव इसलिए है कि सभी लेखको ने एक समान पीड़ा और दर्द को अनुभूत किया है अतः हर अभिव्यक्ति भले ही समग्र रुप मेंएक सी दिखाई दे रही हो परंतु शोषण के अनंत रुप हैं और समाज के कई पहलू हैँ उसी तरह प्रत्येक लेखक का अपना अलग अलग परिवेश ,अंदाज,भाषा और ,शैली है। “साहित्य मोनोटोनस monotonous नहीँ हो सकता दलितो की आत्मकथाएं तो सदियो के शोषण का वर्तमान रुप हे, यह पूरे समाज की कथा है जिसके अनंत पहलू है फिर भी दलित समाज पर शोषण खत्म कहाँ हुआ हे कि दलित लेखक का विषय चुक जाएगा। अभी तो संघर्ष शुरू हुआ है।”14 अभी इस पृथ्वी पर जब तक बहुत सी छोटी बड़ी असमानताएं हैं, जुटे रहने का अनवरत जारी संघर्ष है तब तक यह साहित्य स़दा नया बना रहेगा।
अगर समकालीन दलित महिला लेखन की बात की जाए तो पूरे देश में अनेक जानी-पहचानी दलित लेखिकाऐं अपनी रचनाओं के साथ उपस्थित हुई है। एक ओर कथा-साहित्य विशेषकर कहानियों में जहाँ दलित लेखिकाओं ने अपने रचनाक्रम से उस अंधेरे कोने को उजागर किया है जहाँ प्रायः शून्य और उनकी घनी नीम चुप्पी को टटोला जा सकता है वहीं कविताओँ और साहित्य की अन्य विधाओं में भी उन्होंने अपने प्रतिरोध को सस्वर अभिव्यक्ति प्रदान की है। वे सिर्फ सामाजिक व्यवस्था और उसके कसते शिकंजों को अपने वाक्बाणों से ही तोड़ने का प्रयास नहीं करती है वरन् अपने स्त्री मनोभावों को भी बड़ी ही सहजता से अभिव्यक्ति भी प्रदान करती है। वे जब वंचित वर्ग के लेखन की बात करती हैं तो एक साथ अनेक विमर्शों पर एक साथ अपनी लेखनी चलाती है यथा स्त्री विमर्श, दलित विमर्श , लोक विमर्श और आदिवासी विमर्श । इसी के साथ अन्य कई विमर्श भी इनकी लेखनी के दायरों में आ जाते हैं। हालांकि अभी भी ऐसे साहित्यकार है जो इन्हें चक्करघिन्नी का लेखन या एकालाप कहकर पुकारते हैं, अभिव्यक्ति की इस प्रामाणिकता को सिरे से खारिज कर देतें हैं और विभिन्न उपमाएँ प्रदान कर तिरस्कृत करार कर देते हैं। वस्तुतः उनकी यह सोच नितान्त एकांगी है और स्वयं उनके पिछडेपन की द्योतक है, “साहित्य में छंद और कला का सवाल दलित साहित्य को खारिज करने का वैसा ही सवाल है, जैसा सत्ता से दलितों को वंचित करने के लिए आरक्षण में योग्यता का सवाल।”15 इन सभी विचारधाराओं के बीच भी दलित महिलाओं ने आज भारतीय साहित्य में अपना स्थान बनाया है। इन लेखिकाओं में रजनी तिलक, निर्मला पुतुल, कुंती, रजनी अनुरागी, पूनम तुषामड़, मेरली के पुन्नुस, ओरजीना मेरी लाकाडोंग, किरण देवी भारती, पुष्पा विवेक, कुमुद पावड़े, उर्मिला पंवार, नीरा परमार, डॉ. सुशीला टाँक भौंरे, पुष्पा भारती प्रमुख हैं।
अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो दलित साहित्यकारों का लेखन मुख्यधारा के लेखन के ही समान्तर लिखा जा रहा है और एक पहचान भी उस लेखन को मिल रही है परन्तु पहचान और ग्राहृता की होड़ में दलित लेखिकाएँ बहुत पीछे है । परन्तु यह मद्धम ज्योति नब्बें के पश्चात् से निरन्तर प्रखर हो रही है। अगर प्रारम्भिक दौर की बात की जाए तो यह लेखन दलित आंदोलन और संघर्ष के साथ-साथ विकसित हुआ है और यह चिंतन बुद्ध, ज्योतिबा फुले, सावित्री फुले, पेरियार और डॉ. अम्बेडकर के दर्शन से प्रेरित होकर अस्तित्व में आया है। वर्तमान में दलिताएँ सामाजिक समस्याओं के विरूद्ध लड़ने के पक्ष पर उतनी ही गंभीर है जितनी की अपने सृजनात्मक पक्ष को लेकर सावचेत । अगर गौर किया जाए तो वंचित वर्ग की धारा ही मुख्यधारा है क्योंकि वे देश की बहुसंख्यक आबादी है। सच तो यह है कि खुद को मुख्यधारा में मानने वाला वर्ग आज अल्पसंख्यक है। “जिन्होने अपने वर्चस्ववादी रूझान के कारण दूसरों की धारा को या तो दबा दिया या खत्म कर दिया, वे अपनी मुख्यधारा की कसौटी आभिजात्य नफासत,सौन्दर्यशास्त्र और आनन्दवादी सोच को मानते व दूसरों पर थोपते रहे हैं। जबकि दमित अपने साहित्य में पीड़ा, आक्रोश,, और बदलाव की तड़फ,प्रकृति से जुड़ाव तथा जिंदगी की समस्याओं और यथार्थ को लाता है। ”16
लेखिकाएँ आज विभिन्न विधाओं में लिख रही है ये सभी विधाएँ उसी तरह सामने आ रही है जैसे एक स्त्री के जीवन के अनेक संवेदनशील पहलू। आज यह लेखन अनेक सवाल पितृसत्तात्मक व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था के समक्ष खड़ा कर रहा है। वे प्रहार करती हैं ऐसी मानसिकता पर जो उन्हें हीन समझती हैं, वे जेंडर और जाति के सवालों को जोड़कर देखती है वे साहित्य और विभिन्न आंदोलनों के बीच अपनी जमीन तलाशती है। वे जीवन की सुंदरतम परिभाषा और गहनतम अनुभूति को शब्दों में पिरोकर अपनी कविताओं में उकेरने का सामर्थ्य रखती है । कुंती (झांसी) की कविताएँ ऐसी ही ही कविताएँ है। वे कभी अपने जीवित होने का अहसास पाकर कह उठती है कि जीवन सुंदर है तो कभी आधुनिक सभ्यता व इसकी फैशनेबल संस्कृति पर प्रश्न चिन्ह लगाती है-
“फैशन तो नग्नता का बनकर रह गया पर्याय/हांलाकि पूर्ण नग्नता में/कुछ भी देखने योग्य नहीं होता/ क्या देखा है तुमने आदिवासियों को /उन्हें देख अनावृत/हमें नग्नता का अहसास ही नही होता। एक सहजतज्ञ/तरलता/नैसर्गिकता लगती है।/मगर वही फैशन के नाम पर /अर्द्धनग्न देखकर बौखला जाते हैं हिंसक हो जाती हे/ कामनाएँ/ क्योंकि शरीर को कपड़े नहीं/कपडो़ को पहनाया जा रहा है शरीर/ सहजता, सफलता के लिए।” 17 ‘समर जिंदगी’ नामक कविता में वे इस वर्ग की पीड़ा बयां करती हुई कहती है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक महिलाओं की जिंदगी सेंसर ही होती है। वे संपादित की जाती है पुरूषों के द्वारा, भद्र समाज द्वारा और बुर्जुआ ताकतों द्वारा। वह जीवन यापन तो करती है परन्तु समाज और संस्कृति का भारी भरकम लबादा ओढे़ हुए। इनकी विशेषता है कि वे कुपोषण में भी खरपतवार की तरह बढ़ती जाती है, छोटी-छोटी खुशियों में खुश हो जाती है और अपने अधिकारों के अतिक्रमण को अपनी नियति मान लेती है। वे अधिक दुःखी नहीं होती कि क्या नहीं है उनके पास वरन् वे यह सोचकर की खुश हो जाती है कि क्या -क्या है उनके पास। इतना ही नहीं वे समाज को और साहित्य के उन तमाम गढ़ों की आलोचनाओं कोधता बताती हुई कहती हैं, “तुम कहते हो कविता/तो कह लो/यह तो आर्तनाद है उस स्त्री का/जिसे लाया गया है कई कई बार/कसाई खाने में कन्या भ्रूण हत्या के लिये/ यह जख्म है जीवन भर रिसते रहने का/जो दबंगों ने दिया है मासूम अबला का बलात्कार कर/कविता कहाँ है कविता/” 18
ये लेखिकाएँ अपनी पीड़ा को ही नही वरन् समाज की पीड़ा को, व्यापक मानवीय सरोकारों को अपनी भाव भूमि पर उतारती हैं। सहज भाषा में गहन अभिव्यक्ति और स्पष्ट वैचारिकी उनके काव्य के व्यक्तित्व की विशेषताएँ हैं । वे सर्दियों की सुबह को बुर्जुआ और सर्वहारा दोनों आँखों से देखती है। जहाँ एक और ममतामयी आँखों की अतिशय देखभाल और सहेजन से पलते बच्चे हैं वही दूसरी ओर ठंड से ठिठुरते हुए, कूड़ा बीनते हुए, सर्द हुए उधड़े चेहरे और पिचके खाली पेट लिए, बच्चे है । वे स्वयं को अर्थात् स्त्री वर्ग को भी ,उनकी यातनाओं को भी बेहद करीब से देखती है। जो दलित स्त्री है वे स्त्री वर्ग के सभी शोषणों से अधिक शोषित है क्योंकि उसका बुजुर्आ समाज, पुरूष वर्ग, खाप पंचायतों और उच्च स्तारी वर्ग से चौतरफा संघर्ष होता है। वे अपने परिवार में अन्नपूर्णा है,सबको पोसती है बस खुद के लिए ही वे समय नहीं निकाल पाती है। एक स्त्री केन्द्रित कविता में लेखिका कुंती कहती है कि ‘औसतन खुश रहने का नाम है स्त्री। क्योंकि वह जीती है पलों को। वहीं रजनी अनुरागी अपनी ‘औरत’ कविता में कहती कि “बिछी रहती है चादर पर धूल की तरह/कोई भी आकर झाड़ देता है/ बुहारी देती हुई औरत को कोई भी बुहार देता है / खानापकाती हुई औरत को/कोई भी पका देता है तंदूर में”। 19 रजनी तिलक की कविताएँ दलित वर्ग के इतिहास और उसकी वेदना को ‘एकलव्य का बयान’ में प्रभावी रूप से उकेरती है। एकलव्य के माध्यम से वह यह कहने का प्रयास करती है कि एकलव्य की ही तरह जाने कितने लोगों ने बुर्जुआ व शोषक वर्ग को तुष्टि देने के लिए अपने स्वाभिमान को भेंट चढ़ाते हुए उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास किया है कि अगर तब ही समझौता करने के लिए इंकार इस सर्वाहारी वर्ग द्वारा कर दिया जाता तो यह इतना निरीह बेबस, और असहाय नहीं होता जितना यह आज है। इस कविता में एकलव्य के माध्यम से सर्वहारा वर्ग कहता है कि अगर तब मैं अँगूठा देने से इंकार कर देता तो शायद मेरी सभ्यता के हजार-हजार हाथ इस जमीं पर उग जाते।
दलितों के पास अब जमीन नहीं है। उनके स्वाभिमान को खतम कर दिया गया है। उनके जेहन में अब यह बात बैठा दी गई है कि वे सेवा के लिए ही बने हैं। सामाजिक व्यवस्था और धर्म ग्रंथों की माने तो वे इस जन्म में पिछले जन्म के पापों का अनुसरण कर रहा है। दलित समाज , एक ऐसा समाज है जहाँ विकास के निम्नतम अवसर हैं, और जहाँ स्त्री जीवन और भी अधिक अभिशप्त है, उसका बचपन महज कुछ महीनों की आयु का सा है जहाँ भी वह सबके सपनों को कुचलती पाषाण में कोंपल सी निकल उठती है । जहाँ पूर्ण रूपेण आपाद मस्तक ढकी होने के बावजूद उसके अंगो को यूँ निहारा जाता है जैसे वह निर्वसना हो । वर्तमान में लिंगभेद को लेकर जो अनेक समस्याएँ आ रही हैं उन पर रजनी तिलकअपनी बात कहते हुए लिखती हैं कि-“खबरदार तुम पर नजर रखी जा रही है लगातार/एक चूक हुई नहीं कि आकर नोंचने को/सौ.सौ. गिद्ध बैठे है तैयार पुरूषत्व के।”
पूनम तुषाम़ढ़, जो सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं , वे कविता और कहानी दोनों विधाओं में लिखती है अपनी रंग कविता में रंगों को लेकर पूनम वर्ग विशेष की अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं। वे कहती कि मैनें बचपन को रंगों से खेलते हुए भी देखा है और कुछ बच्चों को जीवन के विविध रंगों को झेलते हुए भी देखा है और यह रंग सतरंगी सपनो के या इन्द्रधनूषी रंग नहीं है वरन् ये रंग दुःख के, ग्लानि के, घृणा और अपमान केऔर हैं उनके जीवन में फैले जातीय तिरस्कार के । इतना सब कुछ जीते हुए, महसूस हुए भी ये स्त्रियां किसी भी तरह खुद को कमतर नहीं समझती है। ये स्त्रियां कहती है क्यूं है यह वर्ग विमेदीकरण, क्यों हमें जाति व्यवस्था में बाँध रखा है। हम भी आम है, किसी भी व्यक्ति की ही तरह एक सामान्य जीव है, यह पृथकता का दंश और अभिशाप हम क्यों सहे, आखिर क्यों ?इनका जवाब भी वे स्वयं देती हुई कहती हैं कि “मैं नदी हूँ। मैं हूँ यौवन/ मै ही सावन/ मैं ही हूँ पर्व पावन/मैं हूँ शक्ति/ मैं हूँ आशा/ मैं ही सावन/ मैं हूँ तो कैसी निराशा ?” वे अपने अस्तित्व को स्वीकारती हुई अभिमान करती हुई समाज को जवाब देती है कि मैं रागिनी हूँ दलिता नहीं हूँ और झूठी मर्यादाओं और तथाकथित परम्परा और संस्कृति के नाम पर मैं नही दबूंगी। मैं वस्तुतः उन सभी विषयों की छुअन हूँ जो कि स्वयं अपनेभीतर प्रेम और प्रतिरोध को लिए हुए है। इसी तरह पूनम जब ‘एक छोटी खबर’ कविता लिखती है तो वे अखबारों में कोने से झांकती हर उस खबर का जिक्र करती हुई नजर आती है जो या तो सीवर में दम घुटने से हुई है या फिर किसी व्यवस्था कि विद्रूपताओं का शिकार । ‘हमने छोड़ दिए है गाँव कविता में विस्थापन के दर्द को उकेरा गया है। गाँव से महानगर की ओर जाने पर बहुत कुछ ऐसा होता है जो वहीं पीछे छूट जाता है और इस छूटने की प्रक्रिया में उनके भीतर बहुत कुछ दरक जाता है। विषम परिस्थितियों की मार झेलते निम्न वर्ग को गाँव छोड़ना पडता और वह व्यंग्य कसता हुआ पूंजीपति वर्ग को कहता है कि- हमने छोड़ दिए हैंगाँव ताकि तुम्हारे अर्थात् उच्च वर्ग के हाथ बुआई, कटाई जैसे वे समस्त कार्य करने लगे। तभी ये जो जातीय अहम् जो तुम्हारे भीतर घर करके बैठा है वह टूट पाएगा और तुम श्रम की वास्तविक महत्ता क्या है जान पाओगे। गौरतलब है कि गरीबी , भोजन की कमी और रोजगार की परेशानी वे कारण है जो किसी को अपने मूल स्थान से प्रवास के लिए बाध्य करते हैं। बच्चों के साथ महिलाओं का अकेला होना (परित्यक्ता, पुरूष साथी से अलगाव या तलाक, साथी की असमय मृत्यु) भी विस्थापन , प्रवासन और शहरी क्षेत्रों में कारखानों तथा घरेलू कार्यों में उनके संलग्न होने का बहुत बड़ा कारण है। इसी पीड़ा को समकालीन लेखिकाओं ने अपने लेखन में उतारा है जिसमें काम करने वाली सहायिका का चित्रण भी दिखायी पड़ता है तो मजदूर वर्ग का भी।
लेखिकाओं के इस वर्ग विशेष और इस वर्ग विशेष के लेखन की बात की जाए जिसे हमने और आपने सीमाओं में बाँट दिया है तो उसमें अनेक लेखिकाऐं ऐसी भी हैं जिन्होनें हिन्दी भाषा से इतर, अपनी ही लोक भाषा में अपनी संस्कृति को उकेरा है। ‘मेरली के पुन्नूस’ मलयालम भाषा की ऐसी ही उभरती हुई कवयित्री हैं। इनकी ‘दलित स्त्रियों का कारवां’, ‘वीरांगना झलकारी बाई,’ ‘दलित का आक्रोश’ इनकी प्रमुख कविताएँ है जिसमें दलित वर्ग की पीड़ा और संवेदनाओं को मूर्त रूप प्रदान किया गया है। वे ‘दलित का आक्रोश’ कविता के हर शब्द में अपना आक्रोश उजागर करती हैं वे रोष से कहती हैं कि “लेकर रहेंगें हम अपना हक/तोड़कर रहेंगे हम समाज का दर्प/ चाहे देनी पडे़ में कुर्बानी/आखिर हम भी है हाड़-मांस के इंसान।”20
‘किरण देवी भारती’ ऐसी ही महत्वपूर्ण लेखिका है जो अपने लेखन से लोकनाटकों की समझ को विकसित करने का महत्वपूर्ण प्रयास कर रही है। ‘भारती’ प्रसिद्ध लोकरंगकर्मी, गायिका, सामाजिक कार्यकर्त्ता और लेखिका है। ‘पुष्पा विवेक’ अपनी कविताओं के माध्यम से दलित स्त्री के दर्द को ढाढंस बंधाती हुई कहती है कि औरत कमजोर नहीं है उसने जीवन की पथरीली राह पर गिरकर संभलना सीख लिया है और इस क्रम में वे अपने इतिहास का बार-बार जिक्र करती हैं कि स्त्रीत्व के गुणों से ही सराबोर ऐसी अनेक युवतियाँ हुई है जिन्होनें हमें जीवन जीने की सीख दी है। शिक्षा एक अस्त्र के रूप में अब हमारे साथ है जिसे वह ‘ऊँचाईयों तक’ कविता में अभिव्यक्त करती हैं और कहती हैं कि अब बस एक ऊँची उड़ान अब हमें भरनी है।
अगर साहित्य की अन्य विधाओं के संबंध में इस वर्ग के लेखन की बात की जाए तो वह भी भाषायी और शिल्प दोनों ही दृश्टियों से मजबूत दिखाई देता है। यद्यपि कई लेखक और साहित्यकार बार-बार दलित लेखन को उपेक्षा भरी नजरों से देखते हैं उसे अपरिपक्व और बौना साहित्य बताते हैं परन्तु वहाँ बोद्धिकतो के तमाम तामझामों से दूर सहजता के निर्बाध झरने छलकते हुए दिखाई पड़ते हैं। “ दलित साहित्य पर अशिष्ट भाषा का आरोप लगाने वाले लोगों को यह मालूम होना चाहिए कि यदि उनके साहित्य में दलित सर्वहारा के प्रति सवर्ण की वास्तविक भाषा दिखाई नहीं देती हैं तो वह साहित्य काल्पनिक है और यथार्थ से उसका कुछ संबंध नहीं है।”21 वस्तुत़ः शिल्प को केन्द्र में रखने के बजाए इन लेखिकाओं ने ग्रामीण समाज और आदिवासी जन जीवन को केन्द्र में रखकर उनकी तमाम छोटी बड़ी परेशानियों को केन्द्र में रखकर अपना साहित्य लिखा है। इस साहित्य में प्रस्तुत पीड़ा केवल इसी वर्ग तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसमें संपूर्ण मानव समाज के मूल्य अंकित हुए हैं। “दलित साहित्य मानव को अपना केन्द्र बिन्दु मानता है। यह मानव को समानता का पाठ पढाता है और मानता है कि मानव अपने सार रूप में नेक है। दलित साहित्य बदले या घृणा की जगह प्यार,भ्रातृत्व एवं समानता फैलाता है।”22
इस साहित्य के सौंदर्य शास्त्र की बात की जाए तो वो मुख्यधारा के सौंदर्य शास्त्र से बिल्कुल अलग दिखाई देता हे। वैसे मुख्यधारा का सौंदर्यशास्त्र दलित लेखन की कसौटी हो भी नहीँ सकता क्योंकि उनके जो सौंदर्य वादी प्रतिमान रहे हैँ वे शोषण पर आधारित हे, सुन्दरं की अवधारणा पर आधारित है अतः बुजुर्आ हैं इसीलिए सौंदर्य शास्त्र के तय मानक दलित साहित्य के लक्ष्य के बाधक हैं। इस साहित्य के प्रतीक, बिंब अनुभव और यथार्थ की कोख से उपजे हैँ वे उपेक्षा की आग में तपाए हुए हैं। इस कविता का कैनवास केवल सुखद कल्पना की छांव नहीँ है बल्कि यथार्थ का उबड़ खाबड़ धरातल है। वर्तमान में यह साहित्य अपनी पीड़ा को अभिव्यक्ति कर रहा है ,साथी दलितों के सर्वांगीण विकास की बात कर रहा हे । यह साहित्य केवल दलित ही नहीं वरन् पूरे समाज से वर्ग भेद को मिटाना चाहता है। इस साहित्य का मूलआधार बुद्ध का वही दर्शन हे कि अप्प दीपो भव । इस प्रकार दलित साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना मेँ अपना योगदान करता है। साथ ही वह हर तरह की असमानता का विरोधी हे और ऐसी चैतन्यता फैलाने के लिए प्रतिबद्ध है जो कि मानव मात्र के लिए कल्याणकारी होगा। अम्बेडकरवादी चिंतक और आलोचक कंवल भारती का कहना है कि अब इस साहित्य की वापसी हो रही है और वह ब्राह्मणवादी साहित्य को चुनौती दे रहा है। हर साहित्य की तरह इस साहित्य से भी यही अपेक्षा की यह भी अपने श्रेष्ठ रचनाकर्म से साहित्य की मज़बूत ज़मीन तैयार करे ताकि आने वाली पीढ़ी उर्वर रचनाओं से रूबरू हो ना कि अधकचरे साहित्य से।
संदर्भ ग्रंथ-
1दलित लेखन सिर्फ एक वर्गीकरण हे- डॉ अर्चना वर्मा ,हंस,अगस्त २०१४,पृष्ठ-200
2. सत्ता विमर्श और दलित ,मनोहर श्याम जोशी का अजय नावरिया द्वारा लिया गया साक्षात्कार का अंश ,हंस –अगस्त- 2004 ,पृष्ठ १९९
3. डॉ अर्चना वर्मा से साक्षात्कार, हंस अगस्त 2004 अंक, पृष्ठ-२०९
4. हंस,अगस्त २०१४ ,पृष्ठ-211
5. (साक्षात्कार मैनेजर पांडेय ,हंस, अगस्त 2004,पृ.200)
6।डॉ तेज सिंह-आम्बेडकरवादी साहित्य का समाजशास्त्र, पृष्ठ न. 28-29
7. इक्कीसवीं सदीं में दलित आंदोलनः डॉ जयप्रकाश कर्दम, प्रकाशक-पंकज पुस्तक मंदिर,दिल्ली,प्र.सं. 2004
8.स्वामी अछूतानंद और उनका साहित्य-राजपाल सिंह ‘राज’ : लेख ,दलित साहित्य: 1999,सं, डॉ. प्रकाश कर्दम,पृ.75
9 .हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा,माताप्रसाद : पृ.359,प्रकाशक- विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
10.दलित संघर्ष : संस्कृति और साहित्य का सबल अभिव्यक्ति,लेख ,डॉ प्रेमशंकर: त्रैमासिक,मसूरी, जनवरी-मार्च-1997,वोल्यूम 1,पृ.218
11.सुनो ब्राह्म्ण – मलखान सिंह, भूमिका से उद्धृत, बोधिसत्व प्रकाशन,उ.प्र.
12.मैं आदमी नहीं हूँ-सुनो ब्राह्म्ण काव्य संकलन,पृ.7,बोधिसत्व प्रकाशन,उ.प्र.
13. अंतिम दो दशकोँ का हिंदी साहित्य संपादक मीरा गोतम लेख अंतिम दो दशकोँ का हिंदी दलित साहित्य डॉ एन सिंह पृष्ठ ११५
14. दलित हस्तक्षेप रमणिका गुप्ता पृष्ठ 17
15 दलित साहित्य की अवधारणा-कलावाद के सवर्ण विमर्श पृ.110बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर-244801 पृ.सं-2006)।
16.आदिवासी अस्मिता के पड़ताल करते हस्ताक्षर- सं. रमणिका गुप्ता, रमणिका गुप्त से रमेश चंद मीणा की बातचीत, पृ.141
17.कविताएँ (कुंती) समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन पृ.30, संपा. रजनी तिलक, रजनी अनुरागी, प्रकाशक-स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली
18.वही,लेखिका-कुंती, पृ.33
19.वही,‘औरत’कविता, लेखिका, रजनी अनुरागी, समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन, पृष्ठ-38
20. वही, मेरली के पुन्नुस-‘दलित का आक्रोश’ कविता-समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन, संपादक-रजनी तिलक, रजनी अनुरागी, पृ. 58
21. लेख- परम्परा का पुनर्मूल्यांकन क्यों नहीं, लेखक- कंवल भारती,पुस्तक- दलित साहित्य और विमर्श के आलोचक,स्वराज प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ.65।
22 हंस,मई-2002,पृ.74
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