‘आ तो सुरगां ने सरमावै ,इण पर देव रमण ने आवै,
इणौ जस नर नारी गावै,धरती धोरा री,धरती धोरा री’
कन्हैयालाल सेठिया की ये पंक्तियाँ राजस्थान की भूमि की शौर्यगाथा यूँही नहीं गाती वरन् इनमें अन्तर्निहीत भावों में इस मरूधरा की मरवणों के अनूठे योगदान को भी दर्शाती हैं। इतिहास की भूमि पर अगर राजस्थान की स्त्रियों की बात की जाए तो वे अपने त्याग, बलिदान औऱ ममत्व के लिए तो याद की ही जाती हैं वरन् वे उस संघर्ष की भी साक्षी रही हैं, जिसे आधी आबादी सदियों से झेलती आ रही हैं। यहाँ मीरा की जन्मभूमि का गेरूआ राग है, राजस्थान के रजवाड़ों की शौर्य गाथाएँ है और सत्ता के लिए रचे गए षड्यंत्र भी। यहाँ महलों , अंतःपुरों के कोनों से रिसती रानियों की सिसकियाँ भी हैं तो वीर क्षत्राणियों के आर्तनाद भी। इन घटनाओं के पीछे अनेक मत, दंभ, जिद और धारणाएँ रही हैं, जिसे कर्नल जेम्स टॉड ने इस तरह कहा है- “राष्ट्र के आचरण और व्यवहार उसके इतिहास में महत्तवपूर्ण अंग की पूर्ति करते हैं। राजस्थान के राजाओं के जीवन के साथ इनका अटूट सम्बन्ध है। लड़ाकू राजपूतों में अनेक पूर्वजों के गुणों का जितना सामंजस्य मिलता है, उतना अन्यत्र नहीं मिलेगा। ” इन्हीं पूर्वजों की रूढ़ी मान्यताओं और आन-बान का भार राजस्थानी स्त्रियों ने सर्वाधिक उठाया है। यही कारण है कि उन्हें संघर्ष तो करना पड़ा परन्तु इसी संघर्ष ने उन्हें सामाजिक प्रस्थिति के पायदानों पर बहुत ऊँचा बैठा दिया। ‘राजस्थान में स्त्रियों को राजपूतों ने जो सम्मान दिया है, वह किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं मिलता। संसार में किसी भी जाति ने स्त्रियों को उतना आदर नहीं दिया जितना राजपूतो ने।(टॉड)’ उद्योतन सूरी के कुवलयमाला ग्रंथ में भी राजस्थान की कुलीन स्त्रियों को क्या सुविधाएँ प्राप्त थी, उसकी जानकारी अनेक स्थानों पर दी गयी है। राजस्थान में स्त्रियों को एक तरफ जहाँ बराबरी औऱ सम्मान का दर्ज़ा प्राप्त था वहीं वह बहुपत्नीविवाह, पर्दाप्रथा औऱ सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं से भी वह जूझती रही है। एक ओर राजस्थान की संस्कृति औऱ लोक-विचार स्त्री को महनीय स्थान देते हैं वहीं कुरीतियाँ उसे बहुत पीछे धकेल देती है। सभ्यता औऱ संस्कृति के पितृसत्तात्मक पहरों ने ही यहाँ रूपकँवर को सती होने पर बाध्य किया जिसके रूदन ने अंततोगत्वा चिंगारी बन क्रांति का रूप लिया और जिसकी परिणति में सतीप्रथा कानून बना।
प्रेम औऱ शौर्य की इस रक्तिम धरती पर प्रेम भी टेसू के फूलों सा फूलता रहा है। मरूधरा के इतिहास औऱ साहित्य में जिस तरह अनगिनत वीरों की कहानियाँ बिखरी पड़ी है ठीक वैसे ही प्रेम की कचनार कलियाँ भी। चाहे पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता का जिक्र हो या ढोला-मारू का, या फिर कंवल-केहर का , ये चरित्र प्रेम के उदात्त पक्ष को सामने लाकर यूँ खड़ा कर देते हैं जैसे आत्मा किसी अमल निर्झर के सामने खड़ी हो । ये कहानियाँ स्त्री के त्याग, समर्पण और स्वाभिमानी पक्ष को तो प्रकट करती ही हैं साथ ही उनके आत्मचेतस् स्वरूप को भी। इसी रूप औऱ गुण के सम्मोहन में ही महिंद्रा जैसे वीर यह कहने पर मज़बूर हो जाते हैं कि,‘म्हारी माढेची ए मूमल, हाले नी अमराणे देस।’ वीरता औऱ प्रेम के इस सतरंगी ताने-बाने को देखकर ही संभवतः यह कहा गया है-
मारू थारै देश में, निपजै तीन रतन।
इक ढोलो दूजौ मरवण, तीजो कसूमल रंग।।
नेह के रंग में जहाँ जैसलमेर के पास लोद्र्वा में काक नदी आज भी कल-कल करती मूमल और महिंद्रा की अमर प्रेम कहानी सुना रही है; वहीं यहाँ के किलों में जौहर की अग्नि के स्याह निशां वीर क्षत्राणियों की जीवन आहूतियों औऱ बलिदान की चीख-चीख कर गवाही देते हैं।
राजस्थान की स्त्रियाँ जहाँ प्रेम और वीरता के क्षेत्र में अद्वितीय रही हैं वहीं श्रेष्ठ वीर पुत्रों को जन्म देकर औऱ उनका लालन-पालन कर, अपनी जाया संज्ञा को भी सार्थक करती रही है। यही कारण है कि यहाँ कि धरती परजयवंताबाई जैसी धीर क्षत्राणियों की कुक्षि से प्रताप जैसे शूरवीरों ने जन्म लिया है। स्त्रियाँ अपने बच्चों को आँगन के झूलों में ही ‘इला न देणी आपणी’ की सीख दे देती हैँ, वहीं स्त्रियाँ मातृभूमि के लिए अपना शीश तक समर्पित कर देती हैं। यह सीख यहाँ के रणबाँकुरें ताउम्र लेकर चलते हैं औऱ मातृभूमि की आन-बान औऱ शान की रक्षा करते हैं-
‘इला न देणी आपणी, हालरियाँ हुलराय
पुत सिखावे पालणै’, मरण बढ़ाइ माएँ।’
इन्हीं सीखों औऱ अपने गुणों के कारण मीरा, पन्नाधाय, हाड़ा रानी, कर्मावती और करमाबाई जैसे नाम इतिहास में अमर हैं। यहाँ का साहित्य मीरा औऱ सुन्दरकुंवरि जैसे चरित्रों से प्रारम्भ होकर साहित्यजगत में अपना परचम लहराता है। इतिहास की मेढ़ी पर ही नज़र डालें तो वहाँ महाराणा कुंभा की पुत्री एक प्रख्यात संगीतज्ञा रही हैं , जिन्हें वागीश्वरी उपमासे विभूषित किया गया जो उनकी संगीत निपुणता की परिचायक है। रूठीरानी, जयतल्ल देवी, धीरभाई भटियानी,पन्ना धाय, श्रृंगार देवी, हंसाबाई,हाड़ी रानी, भारमली, महारानी जसवंत दे, कृष्णा कुमारी, रानी पद्मिनी, चंद्र कुँवरी बाई राजस्थान की मध्यकाल की वे नायिकाएँ हैं जिनका इतिहास निर्माण एवं उसे गौरवान्वित करने में महनीय योगदान है।
हिन्दी में अनेक कवयित्रियां हुई, लेकिन जो स्थान मारवाड़ की मीरा ने बनाया वह अनूठा आदर्श है। मीरा को करूणा, दया के पात्र के रूप में हीनहीं वरन् स्त्रियों के स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में देखा जाता है । उनके पद और जीवन नियति से निर्वाण तक के हृदयोद्गार हैं । सोलहवीं शती के मेवाड़ के जीवन्त इतिहास का अध्ययन किया जाए तो उसके केन्द्र में,कृष्ण प्रेम की दीवानी, स्वतंत्र चेता, स्वाभिमानिनी, रूढि भंजिका, किसी बागी हवा की तरह अन्याय का प्रतिरोध करती तथा सर्वहित कामिनी स्त्री के रूप में, गेरूएं रंग में लिपटी केवल औऱ केवल मीरा खड़ी नज़र आती है। मीरा तमाम पारिवारिक-सामाजिक प्रताड़ना सह कर भी अपने कर्म-पथ से विचलित नही हुई। मीरा की अन्तःमनोवृत्तियों की हलचलों और द्वंद्वों का अध्ययन तत्कालीन सामाजिक प्रस्थिति को बतलाता है । अनेक वास्तविक चरित्रों से सजा राजस्थान रजवाड़ी समय की इबारतों का जीवंत दस्तावेज है। मीरा आज भी संघर्षचेता स्त्री के साथ खड़ी नज़र आती हैं, यही इस चरित्र की शाश्वत् उपलब्धि है।
मीरा ने स्त्रियों के संघर्ष के लिए जो सिद्धांत निर्मित किए उन पर सबसे पहले वे ही चलीं। कृष्ण के सहारे मीरा ने भारत के दीन-दुखियारे समाज को उसी तरह एक सूत्र में पिरोने का काम किया जैसा कि उस भक्ति आंदोलन के युग में दूसरे सन्त करते आये थे। यह वही कार्य था जो दक्षिण भारत में रामानुज कर चुके थे और जो कार्य रामानन्द ने उत्तर भारत में किया। जो कार्य कबीर, रैदास, चैतन्य और नरसिंह मेहता सरीखे अनेक संत एवं कविगण अपने-अपने तरीकों से करते आये थे, वही कार्य संत मीराँ ने अपने तरीके से किया। दूसरे भक्त-सन्त जनसमर्थक थे और जनसाधारण में से ही आये थे अतः सामन्ती व्यवस्था के वैभव और विभेद के प्रति उनके मन में अरुचि और विद्रोह होना नितांत स्वाभाविक बात थी। जबकि मीरा तो स्वयं ही सामन्ती व्यवस्था का अंग थीं। यदि चाहतीं तो वह भोग-विलासमय जीवन अपना सकती थीं, परन्तु नहीं, उसने सपाट मार्ग को छोड़ पगडंडियों पर चलते हुए कुलीन स्वातंत्र्य औऱ प्रतिरोध कामार्ग चुना । वह बालपन से कृष्ण समर्पिता थीं। अतः उन्होंने वैभव पथ को त्यागकर साधना पथ को अपनाया। पुरुषप्रधान समाज में एक तथाकथित अबला स्त्री होकर भी उन्होंने उस निर्मम व्यवस्था का सात्विक विरोध किया जो कृष्ण के वास्तविक गोप-समुदाय से उनके मिलन में बाधक थी। मीरा की यह उपलब्धि और त्यागमय जीवन जन जन का कंठ हार है।
हालांकि कर्नल टॉड ने मीरा को केवल एक रोमानी कवयित्री के रूप में उद्धृत किया पर इसके इतर मीरा का चरित्र स्त्री स्वातंत्र्य और मुक्ति का सजीव उदाहरण है। उन्होने लोक को जीकर, जीवन प्रदान कर, औऱ ‘इण नैनन में श्याम समायो, औऱ दूसरो आए ना’ कहकर जीवन पर्यन्त तत्कालीन सामन्ती प्रथा को खुली चुनौती दी।
इतिहास से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन तक यहाँ की स्त्री शक्ति अपना परचम लहराती रही है। राजस्थान में पेड़ों को भी घर का सदस्य माना गया है। यही कारण है कि यहाँ की खेजड़ली ग्राम की अमृता, खेजड़ी के वृक्ष को काटने आए राजा के सैनिक से यह कहकर प्रतिकार करती है कि,-‘यह मेरा भाई है,मैंने इसे राखी बाँधी है औऱ यह हमारे परिवार का हिस्सा है।’ वह संकल्प करती है कि- ‘सिर साटे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण’ और अंततः खेजड़ी को बचाने के लिए वह अपने परिवार के साथ आत्मोत्सर्ग कर देती है। यही घटना चिपको आंदोलन का प्रस्थान बिंदु बनती है। समूचे विश्व में पेड़ रक्षा में प्राणोत्सर्ग कर देने की ऐसी किसी अन्य घटना का विवरण संभवतः दुर्लभप्राय है।
अनेकानेक प्रसंग हैं, पग-पग पर मोती से बिखरे उदाहरण हैं परन्तु स्त्री के इस स्वर्णिम पक्ष के पीछे उसके शाश्वत् संघर्ष के कुछ स्याह पैंबंद भी हैं जो स्त्री की प्रगति और विकास को पगहस्त करते हैं। हालांकि शिक्षा ने उसमें स्वाभिमान और आत्मसम्मान की एक चमक पैदा की है परन्तु अब भी कई- कई बंदिशों से आधी आबादी जूझ रही है। आज की बंदिशों के बरअक्स पीछे देखने पर कभी-कभी इतिहास अधिक उदात्त भी नज़र आता है। आश्चर्य है कि वीरता,त्याग औऱ प्रेम के रंग से सराबोर राजस्थान की धरा पर स्त्री को डायन कहकर भी संबोधित किया जाता रहा है। उसे अब भी प्रेतबाधा की जकड़नों में जकड़ा जाता है। अजीब विरोधाभास है कि कोई इसी परिवेश को अपनी सफलता की जानिब बताता है तो अन्य इसी परिवेश में अपने मूलभूत अधिकारों के लिए ही तरसता रह जाता है। सारी यातनाएं शायद स्त्री के हिस्से में ही आई है। ग्रामीण जीवन भले ही हमें प्राकृतिक समृद्धता और सहजता से लुभाता हो ।परन्तु सांस्कृतिक और धार्मिक विद्रूपताओं के यही वास्तविक गढ़ हैं। ताज्जुब यह है कि स्वयं सभी रूढ़ियों का शिकार होती हुई भी स्त्री उम्र के एक पायदान पर स्वयं,उस विचारधारा की वाहिका बन जाती है, जो स्वयं उसके वर्ग के लिए क्रूर यातनाओं को गढ़ता है। गत दशकों में लैंगिक समानता के आग्रह के बावजूद भी, स्थितियां तथाकथित विकासशील परिस्थितियों के साथ भी बहुत अधिक नहीं बदली है। लिख - बोल पाने वाली महिलाओं, अपनी बात रख पाने वाली महिलाओं का प्रतिशत अब भी बहुत कम है। महाविद्यालय और विद्यालय स्तरीय शिक्षा में उनकी उपस्थिति का ग्राफ कम है और कारण है उस के प्रति भेदभाव पूर्ण और उसे अपनी जागीर समझने वाली सनातन मानसिकता । कितना वीभत्स है कि उसके प्रतिरोध को प्रेतबाधा माना जाता है । उसे जूतों पर रखी जाने वाली रूढ़ियों को सर माथे पर रखने के लिए बाध्य किया जाता है, अपनी कोख को पुंसवादी रंग देने के लिए पहुंचे हुए संत कहे जाने वाले बहुरूपियों का थूक चटाया जाता है ।बहुत कुछ है जो सोच को जड़ तक कर सकता है।जाने कितनी बातें हैं, कितनी-कितनी रूदालियां है पर प्रश्न एक ही है आखिर कब तक?
इजाडोरा का यह कथन कि, “ संसार कि सब मांओं को धरती के सबसे सुंदर कोनों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। संसार की सबसे अच्छी किताबें, सबसे सुंदर संगीत, सबसे उन्नत कलाएं, उनके लिए होनी चाहिए। ” हर स्त्री के लिए सटीक बैठता है पर यहाँ कन्या भ्रूण हत्या एक समस्या के रूप में आज भी हावी है। इस मान्यता की जकड़न इस कदर हावी है कि आज पढ़ा लिखा समाज भी अपनी कोख को पुंसवादी रंग देने की पुरजोर कोशिश करता नज़र आता है। सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण से व्यक्ति तक आती इस कुत्सित सोच को रोकने के लिए वृहद् स्तर पर सतत्प्रयास करने ज़रूरी हैं। आज भी कन्या से मुक्ति पाने की सोच से त्रस्त हर स्त्री मन कांई थारो करयो म्हे कसूर कहता नज़र आता है।
अनेकानेक स्याह पक्षों के साथ कुछ सुकुन भरे पल भी हैं, जिनमें जनप्रतिनिधि से राज्यप्रतिनिधि तक का स्त्री नेतृत्व आशान्वित करता है कि बाबोसा की चिड़कली की उड़ान तमाम वैपरित्यों के बीच जारी है। राजस्थान में प्रथम पंक्ति में शामिल प्रतिभा पाटिल, वंसुधरा राजे, कमला बेनीवाल, डॉ गिरिजा व्यास, सुमित्रा देवी,यशोदा देवी, नगेन्द्र बाला, अरूणा रॉय,औत्तिमा बोर्दिया,कुशल सिंह, कांता खतूरिया, कृष्णा ऐसे नाम हैं जो पैराहन को परचम बनाकर अपना नाम रोशन कर रही हैं। प्रशासन अनेकानेक योजनाओं से स्त्री शक्तीकरण के अनेक प्रयास कर रहा है। सरकार के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं जैसे अभियान नन्हीं कौंपलों को फिर से आबाद कराने के लिए कृतसंकल्प हैं। इसी संदर्भ मेंउल्लेखनीय है कि हाल ही में राजस्थान को नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यह पुरस्कार राजस्थान को पूरे देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना के तहत बेहतरीन काम के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के विभिन्न कार्यों की दिशा, क्वालिटी ऑफ लाइफ इम्प्रूवमेंट सोसायटी तथा रोजगार केन्द्र प्रबंधक समिति द्वारा जनहित में किए गए सफल प्रयासों एवं कल्याणकारी कार्यों के लिए दिया गया है। सुखद है कि अनेक अभियानों से राज्य में लिंगानुपात जो कि 2015-16 तक 929 था दिसम्बर 2016 तक वह 942 हो गया है। छवि राजावत जैसी अनेक महिला सरपंच उस समय महिलाओं को आत्मनिर्भर करने का बीड़ा उठा रही हैं जहाँ स्त्री नाम की आड़ में पुरूष ही पद विशेष का लाभ उठाता रहा है। स्त्री अपने प्रयासों से इन जड़ परम्पराओं से स्वयं को मुक्त करती नज़र आ रही हैं।
आधुनिक स्त्री अपने वर्ग के साथ बदलाव की आकांक्षा को लेकर सतत कदमताल कर रही है। शिक्षा की अलख जगाने से लेकर, घूँघट से आजादी का स्वप्न देखती, आत्मनिर्भर नारी शक्ति को बढ़ते हुए देखना खासा सुकून देता है। सुखद है कि स्त्री; शिक्षा, नवाचारों औऱ तकनीक के माध्यम से उस क्षेत्र में अपनी तकदीर बदल रही हैं, जहाँ सामंतवादी मानसिकता की गहरी जड़ें रहीं हैं। ये बदलाव हर तबके औऱ वर्ग में देखे जा रहे हैं। बदलाव सतत और उल्लेखनीय रूप से होते रहें उसके लिए दरकार है कि सहयोगी वर्ग औऱ समाज को भी अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करते रहना होगा। यह आधी आबादी जो राष्ट्र के सामाजिक, सांस्कृतिक विकास का पूरा हिस्सा है उसे चेतना के नवीन पायदानों से रूबरू करवाने के लिए अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन औऱ जागरूकता के अभियानों की आवश्यकता है, जिससे आधी आबादी परवाज के लिए पूरा आसमान नाप सके। बदलाव का अलम अपने हाथ में थाम राजस्थान की स्त्रियाँ आशा की उम्मीद से हैं और अब राज इलाहाबादी के इन्हीं अशआरों पर नज़र रखते हुए उसे वो मुकाम हासिल करना होगा जिसे पाने की वह अधिकारिणी है-
“लड़ना है तुझे शब के अंधेरों से ए मुसाफ़िर,
सूरज कहाँ निकला है अभी जागते रहना।”
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