कविता मानववादी विचारधारा को समाहित करती हुई मानवीय अस्तित्व और प्रगति पर अटूट निष्ठा और विशेष श्रद्धा रखकर यात्रा करती है। सामयिक जीवन की संकीर्णताओं, इतिहास की भूलों एवं अन्यान्य संघर्षों से मानव को ऊपर उठाकर उसमें विश्व-बंधुत्व और समता के भाव समावेशित करना ही इसका एकमेव उद्देश्य है। वस्तुतः कवि या लेखक अपने लिखे से लेखकीय प्रतिबद्धता, सामाजिक विषयों पर अपनी समझ तथा संवेदनशीलता को ही अभिव्यक्त करता है। इसके लिए वह कभी अपने अनुभव के बियाबां से गुज़रता है तो कभी समाज की विसंगतियों, उसके सकारात्मक–नकारात्मक पक्ष और उसकी बुनावट पर सोचता है।लेखक के समक्ष जो समाज है, वह अविभाजित है, वहाँ मनुज-मनुज के मध्य पार्थक्य नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक त्रिभुवन अपनी प्रबंध काव्य-रचना ‘शूद्र’ द्वारा इसी सामाजिक ताने-बाने के बीच ज़बरन घुसपैठ कर, पैठे वैषम्य और एक वर्ग विशेष की संभावनाओं को कफ़स में कैद करने की कहानी कहते हैं। ‘शूद्र’ यह संज्ञा ही इतिहास के अनेक मार्मिक प्रसंगों को सामने ला देती है, जहाँ सिर्फ व्यथा, वेदना ,त्रासदी और संत्रासकी प्रतिध्वनियाँ गूँजती सुनाई देती है। मोटे तौर पर हम कहें तो ‘शूद्र’अर्थात् वह वर्ग जिसे वर्ग विभाजन के तहत तमाम मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया। आधुनिक काव्य में दलित विमर्श इसी पीड़ा की वैचारिक अभिव्यक्ति है। त्रिभुवन इसी वर्ग जिसे साहित्य और समाज दलित कहकर संबोधित करता है, के खिलाफ़ हुए ऐतिहासिक षड्यंत्र पर पूरी विवेकशीलता के साथ लिखते हैं। यह कृति समाज की उस मान्यता को चुनौती देने का साहस करती है जो इतिहास को , उसकी मान्यताओं को बिना सोचे समझे सही मान लेती है। किसी भी लेखकीयसर्जन का महत् उद्देश्य है कि वह ऐसी अवधारणाएँ स्थापित करें जोजनतांत्रिक समाज के निर्माण की प्रेरणा प्रदान करती हों। जहाँ जाति, लिंग, रंग, वर्ग या आयु के आधार पर मनुष्यों के बीच भेद-भाव या ऊँच-नीच का विचार न हो। निःसंदेह शूद्र काव्य संकलन की कविताएँप्रश्नाकुलता के साथ अपने इस उद्देश्य को स्वयं स्पष्ट करती हैं ।
लेखन में अवचेतन मन पुनः-पुनः अवतरित होता है। यही बात मार्क ट्वेन भी लिखते हैं कि ‘मेरा लेखन अवचेतन मन के अथाह भंडार का दोहन करने की योग्यता का परिणाम था।’ त्रिभुवन भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि यह तकलीफ़ मेरे अवचेतन मन की उपज़ है। जिस परिवेश को निकट से देखा –भोगा, यह उसी की शाब्दिक अभिव्यक्ति है।“शूद्र कविता, श्रमिक शीर्षक से लिखी गई स्कूली दिनों की कविताओं का समय-समय पर होता रहा विस्तार भर है। शूद्र कहें, दलित या अछूत- इस वर्ग पर पिछले दस हज़ार साल में होते रहे ज़ुल्म मानव समाज के माथे पर वैसे ही कलंक है, जैसे अन्य देशों पर होते रहे अत्याचार। इन अत्याचारों को मैंने पत्रकारिता के माध्यम से काफ़ी सघन और नज़दीक से देखा-परखा और अनुभूत किया।”(शूद्र-कुछ नोट्स,त्रिभुवन)
त्रिभुवन की कविताओँ के साथ ही जो कथ्य सबसे अधिक ध्यानार्षण का है,वह हैं इन कविताओं के शीर्षक। ‘यह कहानी भाल पर भाला सहने की’, ‘कहानी गर्वीले श्रम और साहस की’, ‘कहानी अपने आँगन में पराए हो जाने की’, ‘कितने डरों के बीच’, ‘मथ चुके हम सागर कितने’, ‘यह कहानी है तमस में सूर्य रचने की’ सरीखे शीर्षक कविताओं के वर्ण्य विषय का परिचय तो कराते ही हैं, साथ ही विसंगतियों पर गहरा आघात भीकरते हैं। व्यावहारिक आलोचना शास्त्र मानता है कि-‘किसी भी कविता का फ़लक विस्तृत होना चाहिए। लोक-विस्तार के साथ उसका रचाव उदात्त होना चाहिए, उसका रचना-वितान वैविध्य को सम्पोषित करने वाला होना चाहिए’; ‘शूद्र’ संकलन, इस वृहद् उद्देश्य को पूरा करता है। स्पेनिश कवि पाब्लो नेरूदा की कविता ‘यू स्टार्ट डाइंग स्लोली’ के मर्मसंदेश को लेकर चलती हुई ‘शूद्र’ कृति, हाशिए के वर्ग में नयी चेतना भरती नज़र आती है। यह कविता सहजता और सारल्य से आवेष्टित होकर पाठकों के समक्ष आती है परन्तु जहाँ कहीं इनमें ओज की अभिव्यक्ति हैवहाँ लेखक अपनी बात पूरी प्राभाविकता और आक्रोश के साथ रखते नज़र आते हैं। त्रिभुवन की अभिव्यक्ति की यह तासीर निःसंदेह उत्तेजक है।यहाँ वेदनाओं की बंदनवार है, अत्याचारों के दंश हैं और जाने कितनी कराहें हैं। लेखक, शोध करता है कि इस वर्ण और वर्ग विभाजन का ध्येय क्या है? सामंतवादी व्यवस्था के बरअक्स समाजवाद का हासिल क्या है? आज़ादी जैसे शब्दों के वास्तविक मायने क्या हैं, और आख़िर क्यों यह वर्ग विशेष के लिए अब तक अलभ्य है? व्यवस्था का यह गोरखधंधा जो सदियों से चला आ रहा है आखिर क्यों और क्या है? इन तमाम क्यों और क्या पर, इस कृति में न्याय दृष्टि से किया गया वैचारिक आक्रमण है, क्रोध है, फिर भी वैशिष्ट्य यह है कि यह अपने कहन में वास्तविकता से सामीप्य रखती हैं। वर्ण्य-विषय में वर्गविशेष को लेकर लिखा गया पूर्वार्ध और उत्तरार्ध व्यग्र और संतप्त करता हुआ है। इन कविताओं को पढ़ते हुए कई मर्तबा भावनाएँ उबल उठती हैं और आँखेंसजल हो जाया करती हैं।
सैद्धांतिक आलोचनाशास्त्र, बार-बार कहता है कि ‘सहज होना कठिन है’और कृत्रिमता की प्रच्छद धारण करना आसान है, यह बात ‘शूद्र’ पर सटीक बैठती है। दुःखद है कि इतिहास शीर्षों के प्रति तो उत्साह-अतिरेक दिखाता है परन्तु उसके हमकदमों, धरती के ललित ललामों की आहूति के प्रति मौन हो जाता है। पूर्वजों का लहूलुहान इतिहास ही इस रचनाक्रम की पृष्ठभूमि रहा है। संभवतः ये दुःखद स्मृतियाँ ही उन्हें नियति के षड्यंत्र के प्रतिरोध के लिए उकसाती हैं और इसी राह पर चलती हुई त्रिभुवन की कविताएँ प्रतिरोध और अस्मिता की साझा पहचान की कविता बन जाती है। लेखक अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के उन कलंकों को रेखांकित करता है, जो विश्व समाज के माथे पर जुर्म की दास्तां के रूप में अंकित है। ये कविताएँ सौन्दर्यशास्त्रीय मानकों और भाषिक संरचना के आधार पर अपनी मंजिल तय नहीं करतीं वरन् वेअपने समय से सीधा संवाद कर, प्रतिरोधपूर्ण कार्रवाई करती हैं। बकौल केदारनाथ अग्रवाल ‘कवि कविता को नीचे गिरने से बचाता है। कविता केवल शब्दों का इन्द्रजाल नहीं है कि भ्रम और भुलावे में डालकर आदमी को देशकाल से उठा कर ले जाए। कहीं बाहर अलौकिक एवं आत्मप्रवंचना में, सविशेष बने रहने के लिए या महान और मौलिक कहाने के लिए।’ त्रिभुवन की कविताई में भी ऐसा कोई भुलावा नज़र नहीं आता, वरन् यहाँ सीधी बात वृहद् कैनवास पर कही गयी है।
आज कविता का वह दौर है जब कवि बनना बहुत आसान है। चार पंक्तियां लिखिए, सोशल मीडिया पर डालिए और स्वघोषित कवि बन वाद-प्रतिवाद-विवाद में उपस्थिति दर्ज़ कर दीजिए। सत्य यह है कि कविता अपने गांभीर्य में हर सांस के निवेश की मांग करती है। ‘शूद्र’संकलन, अपनी पहली कविता ‘शूद्र के कंधे पर किले’ से लेकर अंतिम कविता ‘यह कहानी है तमस में सूर्य रचने की’ तक लेखकीय प्रतिबद्धता, ऐतिहासिक चिंता और रचनात्मक एकान्विति को साथ लेकर चलता है।ये कविताएँ इस तथ्य को समवेत स्वर में उद्घोषित करती हैं कि सभ्यताओं का इतिहास व्यक्तियों के क्रियाकलापों और जनता के संघर्ष से ही निर्मित होता है। श्रम, जो कि भौतिक मूल्यों के रचाव में निर्णायक भूमिका में होता है, वही नींव का पत्थर होता है परन्तु खेद कि इतिहास उसे रेखांकित नहीं कर पाता। त्रिभुवन बैलौस ढंग से अपनी बात कहते हुए, इन कविताओँ में विद्रूप सामाजिक स्थितियों पर सशक्त चोट करते हैं। वे दलितों को विश्वास दिलाते हैं कि वे ही कला और संस्कृति के मूल रचयिता हैं, भले ही भद्रलोक उनके प्रदेय को नकारता रहा हो।
यह काव्य किसी एक व्यक्ति, परिवेश या भूगोल विशेष या वर्ण का नहीं है वरन् यह एक लोक की, एक मनोविज्ञान की और विकल विश्व की कथा है। हमारे समाज का हाशिया, चाहे वह आदिवासी वर्ग हो या दलित, उसेविस्थापन का दर्द सहना पड़ा है। निरन्तर यातना, पीढ़ियों के संताप औरइतिहास के दबाव ने उन्हें दंश के साथ-साथ हौंसला भी दिया है और यही उनका हासिल है। हाशिए ने अपने श्रम बिंदुओं से सृष्टि के कण-कण को सींचा है पर फिर भी उसके अभ्यास में, उसके प्रयास में उसके हिस्से में,यातना ही आई है। इसके बाद भी लेखक सकारात्मक है कि यह श्रम जो इस वर्ग का हथियार है, उनकी शक्ति का भी पर्याय है; इसलिए लेखक इस पर गर्व करता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि लेखक ने नकार और प्रतिरोध को भी पूर्ण संज़ीदगी से अभिव्यक्त किया है। नकार को तल्ख़ी के साथ बयां कर देना तो आसान होता है पर सहना और सहजता से सम्प्रेषितकरना उतना ही मुश्किल, इसलिए लेखक चुनौती नहीं देता वरन् कहानी कहता है, ‘कहानी उस गर्वीले श्रम और साहस की’। यह सच है कि हर व्यक्ति अपना उत्थान स्वयं कर सकता है, केवल और केवल व्यवस्था को दोष देकर निजकर्म से विमुख नहीं हुआ जा सकता। यही कारण है कि इन कविताओं में सकारात्मकता का भाव है कि ‘ब्राह्म्ण नहीं/ क्षत्रिय नहीं/वैश्य नहीं/ हम ही रचेंगे अपने सुख/ हम शूद्र!’ लेखक वर्ण विशेष को मुखर अभिव्यक्ति प्रदान कर कहलवाता है कि, हम वर्ण का चौथा पायदान नहीं वरन् हम तो स्वयं अनेक वर्णों के सर्जक हैं। नहरें, नदियाँ, बाँध और लहलहाते खेत हमारे ही श्रम का प्रतिफल है। कवि बार-बार रक्तरंजित इतिहास को टटोलता है और बहुत सारे प्रश्नों का हल खोजने की कोशिश करता है कि, आखिर हैं कौन ये शूद्र और आखिर क्यों इस वर्ग ने युगों-युगों की दासता ढोई। इस खोज में जो शेष बच जाता है, जो चीज छाज़न के रूप में निकल कर आती है वह है टीस, वेदना, उपभोग ,शोषण और नियंत्रण का प्रतिफल, एक शाश्वत प्रश्न कि- ‘हम से ही सब पोषित हुए/फिर भी अस्पृश्य घोषित हुए।....?
साम्राज्यवाद के नए दौर ने न केवल हमारी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को, बल्कि पूरी सांस्कृतिक अधिरचनात्मक अट्टालिका को, बुनियादी तौर पर प्रभावित किया है। पिछले कुछ दशकों में बाज़ारीकरण ने हमेशा की अपेक्षा अधिक निर्बंध और स्वच्छंद होकर मेहनतकश हिस्सों पर क्रूरतम धावा बोला है। इन स्थितियों ने सामाजिक-आर्थिक जीवन का एक नया संजटिल परिदृश्य निर्मित किया है। इन्हीं जटिलताओं से आहत होकर त्रिभुवन, इस वर्ग में उपजी अपरिचय की स्थिति को दूर करने का प्रयास करते हैं। वे लिखते हैं शूद्र बाहरी नहीं है वरन् सामाजिक व्यवस्था का ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। सभ्यताओं का होना , उन्हीं की उपस्थिति का प्रतिफल है- ‘हम थे तो राम थे/ हम थे तो कृष्ण थे।’ ये कविताएँ बार-बार श्रम का महत्त्व बतलाते हुए इतिहास का पुनरवलोकन करती है। कवि देखता है कि चाहे ब्राह्मणों के लिए यज्ञ हों, क्षत्रियों के राजसिंहासन हो या वैश्यों के गल्ले, सभी के पीछे मूक और श्रम से चूर शूद्र हैं,उनका निवेश है। वेद, स्मृतियाँ और ऋचाएँ जिस श्रम का गुणगान करती हैं, उसके नेपथ्य में श्रम का ही विनियोग है। इसीलिए उसके जेहन में प्रश्न आता है कि, ‘हम न होते तो’? और उत्तर मिलता हे कि-हम न होते तो, ऋक्, यजु, साम और अथर्व न होते। ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तीरीय, ऐतरेय, मैत्रायणी, छांदोग्य, वृहदारण्यकऔर श्वेताश्वतर न होते।’ इतिहास की नैष्ठुर्य पर तो कवि मन, क्षुब्ध होता ही है पर साथ ही वर्तमान के हालात और सभ्यताओं पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। ये प्रश्न कहीं विध्वंसक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आते हैं तो कहीं सजग मीमांसा और सभ्यतापरक आख्यान के रूप में। हालात विकट तब हो जाते हैं जब व्यवस्था,आहटों का भय पैदा करने लगती है। संभवतः ऐसी ही स्थितियों को हम आपातकाल की संज्ञा देते हैं, जब व्यवस्था मन और दिमाग पर ताले लगा देती है। एक व्यवस्था लगातार हाशिए की ओर सरकती जाती है और कोई कंगुरे बन, हर कालखण्ड में इतराता रहता है। आखिर कैसा वैषम्य है यह,कि एक वर्ग निरपराध है ;चुपचाप व्यवस्था के अत्याचारों को झेलते उस मन को विरासत में मिला है तो बस एक भय!उसके मन में ,अवचेतन में एक खौंफ सदियों से पैठा है, जिसकी अभिव्यक्ति कभी ‘ठाकुर का कुआँ’ में होती है तो कभी ‘शूद्र’ में। ‘नींद में डर, सपने में डर, घर में डर, आँगन में डर, प्यास में डर, भूख में डर,’ और यूँवे डर में ही जीते हैं और डर में ही मर जाते हैं। यह डर मानवेतर नहीं है, प्रकृति से नहीं है वरन् इंसानों का है, तथाकथित रक्षकों का है। जाने कितने आँसू हैं जो इतिहास की रक्तरंजित कंदराओं में क़ैद है। पर कैसा विरोधाभास है कि सामाजिक व्यवस्था के द्विध्रुवीय है, एक केन्द्र और एक परिधि का कोई धुंधला बिंदु मात्र। यहाँ केन्द्र से परे धकेला हुआ हाशिया है पर आश्चर्य कि केन्द्र जिस पर पूरी तरह आश्रित है। आश्रय के इस औदात्य के प्रति नकारभाव का संधान ही इस काव्य की उपलब्धि है। त्रिभुवन नकार के इसी सत्य पर मिथकों के माध्यम से बार-बार चोट करते हैं।
सुखद है कि स्थितियां अब बदल रही हैं, छिटका हुआ वर्ग चेतनासम्पन्नहो रहा है और चेतस् होकर सदियों के संताप को अभिव्यक्त कर रहा है। इसी अभिव्यक्ति में वह प्रश्निल हो कह उठता है कि बताओ, ‘हम न होते तो होती द्रोण की कीर्ति कैसे’, ‘आखिर शूद्र ही क्यों हीनात्मा’, ‘सर्जन सही मायने में जिसने किया है वही क्यों है हाशिए पर’ आदि-आदि। वह व्यवस्था पर ही अपने निर्दोष सवाल दागता है और प्रत्युत्तर व्यवस्था निरुत्तर हो जाती है। ‘शूद्र’ में अनेक प्रश्न हैं, दुःख है, त्रास है, पीड़ा है पर इन प्रश्नों और समस्याओं के साथ ही आशा भी है । संसाधनों और उत्पादन के स्वामी शूद्र, इस रचाव में, हताश नहीं वरन् आश्वस्त हैं; नयी सभ्यता के निर्माण के प्रति, हँसते फूलों को खिलाने के प्रति औरसामाजिक दायरों के खाँचें तोड़ने के प्रति। वे स्वयं को भारतीय परिवेश की चौहद्दी के भीतर नहीं समेटते, वरन् कहते हैं, हमारी आवाज़ यूनान, रोम, मॉरीशस, कीनिया, लंका, बंका, सिंगापुर और हांगकांग तक है। उनकी भुजाओं और मन में विद्रोह का संकल्प है। वे हर ताकत का विकल्प हैं। इसलिए ‘शूद्र’ एक आख्यान की अंतिम कविता का शीर्षक है-‘ यह कहानी है तमस् में सूर्य रचने की’ जिसमें कवि इसी जिजीविषा, जीवटता और ऊर्जा के साथ लिखता है-
‘हम ज्वालामुखी, हम विस्फोट, हम बाघ की दहाड़, हम क्षितिज से फूटते सूर्य।’
भीष्म साहनी का कथन है कि, ‘साहित्य ज़िंदगी की कोख से निकल कर आना चाहिए।’ इसी तथ्य की बयानगी ‘शूद्र’, अनुभव के ताने-बाने से बुनी हुई रचना है। यह रचना कवि की दो दशकों की साधना का हासिल है।अच्छे साहित्य की यह पहचान होती है कि वह सामाजिक परिवर्तन के उचान-निचान को एक साथ सामने लाता है। वहाँ आडम्बरयुक्त भाषा का प्रयोग नहीं वरन् निरंलकृत शैली में सहज भावों की अभिव्यक्ति की जानी चाहिए। यह रचना वृहद् सामाजिक उद्देश्य को लेकर चलती हुई समाज की बुनावट के दोष और श्रेष्ठिजन द्वारा नींव को भुला देने वाली जड़ मानसिकता पर प्रहार करती है। हमारे समाज का विकास बहुपरतीय अवधारणाओं से हुआ है। स्मृतिग्रंथ और धर्म के ठेकेदारों ने व्यक्ति-व्यक्ति को बांटकर जाति और वर्ण की दीवारें खींच दी। ‘शूद्र’ कृति इन्हीं सींखचों से निकलती हुई अरुण किरणों की साक्षी है। त्रिभुवन की भाषा, सौंदर्य के मानकों की मोहताज़ नहीं है। ऐसे में अगर कोई आलोचक कवित्व से जुड़ी खामियाँ ढूँढें तो यह उसकी एकांगी दृष्टि ही होगी । कविता केवल और केवल व्याकरण की कसौटी और सौन्दर्यशास्त्रीय मानकों पर नहीं कसी जा सकती । यद्यपि कृति की अनेक कविताओं में भावों कादोहराव नज़र आता है, परन्तु यह उस पीड़ा का दस्तावेजीकरण भी है जो हर समय में रूप बदल-बदल कर सामने आती है, अतः यह आवृत्तियाँ स्वाभाविक हैं। वृहत्तर सामाजिक उद्देश्य को लेकर चलने के कारण इन कविताओं का अपना वैशिष्ट्य है । यह संकलन अपने वैचारिक सरोकारों के कारण सदियों के गह्वरों से कराहती स्मृतियों की खँरोचों को उद्घाटित करता है। उद्घाटन की इस प्रक्रिया में वह पाता है कि व्यवस्था के जाने कितने सुनियोजित षड्यंत्र हैं, विकास के चुराए हुए रास्ते हैं, शिक्षा पर लगाए हुए प्रतिबंध है,कटे हुए अँगूठें हैं और सिसकता हुआ आत्मसम्मान है। कविताओँ में प्रयुक्त बिंब, मिथक , संकेत और प्रतीक विषय को अधिक स्पष्ट करते हैं। कविताओं की संरचना त्रिभुवन की ऐतिहासिक शोध दृष्टि और आत्मसंघर्ष की बानगी है, यही कारण है कि यह संकलन उस विरासत और धरोहर के उत्खनन का काम करता है जो सदियों से विस्थापित हैं, या कि त्रिभुवन के शब्दों में-‘जो न प्रवासी हैं, न अनिवासी हैं, न विदेशी वे शुद्ध देशी हैं।’ । सामाजिक और काव्यात्मक सरोकारों को पूरी ईमानदारी से अर्जित करती त्रिभुवन की यह रचना सदियों के दमन की अभिव्यक्ति है, सुषुप्ति को सर्जन की जुंबिश में लाने का प्रयास है, साथ ही निर्वास्य के अडिग और निश्चल प्रण को पुनर्स्थापित करने की नैतिक जिम्मेदारी का निर्वहन है। निर्वासित व उपेक्षित मानवता के इस महनीय संदेश को संप्रेषित करने के लिए लेखक को साधुवाद!
‘आओ अब अदावत कर लें
आओ अब बग़ावत कर दें
कब तक मज़बूर रहेंगे
कब तक मज़दूर रहेंगे
आओ अब क़यामत कर दें।’(शूद्र)