अफ़्रीका, अल्जीरिया, इथोपिया, युगांडा , सोमालिया, लीबिया जैसे जाने कितने भू-खण्ड हैं जहाँ इंसानी ज़िंदगी के हालात गंभीर और अनिश्चितता से भरे हैं। उपनिवेशवाद अनेक विचलनों, विकृतियों और आक्रामक राजनीति की पताका लिए कई लोगों को अपनी राष्ट्रीय पहचान से वंचित कर देता है। साहित्य के नोबेल से पुरस्कृत गुरनाह अपने लेखन में इसी उपनिवेशवाद के प्रभाव और सांस्कृतिक विचलन परप्राभाविकता के साथ लिखते हैं। पर वे उतनी ही विनम्रता से स्वयं के लिए उत्तर उपनिवेशवादी लेखक, विश्व साहित्य का लेखक या लेखक जैसेविशेषणों और संज्ञाओं को नकारते हैं। वर्तमान में शरणार्थियों की समस्याबेहद दारूण और ज्वलंत है। वे असुरक्षा या युद्ध के भय से दूसरे देशों में प्रवास के लिए बाध्य होते हैं। आतंकवाद से सतत संघर्ष कर रहे देशों में प्रत्येक नागरिक के मन में पलायन का विचार हर पल कौंधता है।गुरनाह का लेखन इसी समस्या के विविध पक्षों पर पूरी नाज़ुकी के साथ न्याय करता है। 1948 में जांजीबार द्वीप (वर्तमान तंजानिया) में पैदा एवंपले-बढ़े गुरनाह 1968 में जांजीबार-क्रांति के दौरान एक शरणार्थी के रूप मेंइंग्लैण्ड पहुँचे क्योंकि एक अफ्रीकी के रूप में वहाँ उनकी पहचान पर संकटथा।
भोगा हुआ यथार्थ सत्य के अधिक निकट होता है और उन्होंने इस समस्याको क़रीब से देखा था इसीलिए उनका कहना है कि,‘आज दुनिया 60 केदशक से अधिक हिंसक है, ऐसे में उन देशों पर अधिक दबाव और ज़िम्मेदारी हैजो सुरक्षित हैं,लोग उन देशों की अधिक शरण ले रहे हैं।’ कोई भी इंसान चाहे वह किसी भी मुल्क का हो एक समाज, एक आशियाना, जीवन जीने का ईंधन और एक राष्ट्रीय पहचान चाहता है। परन्तु दुनिया के करोड़ों शरणार्थियों के हक़ में ना दो गज़ ज़मीन है, ना ही पहचान और ना ही शोख हवा में उड़ने के लिए आसमां। हिंसक संघर्षों प्राकृतिक आपदाओं,आतंकवाद और अन्यान्य कारणों से ये लोग सतत अमानवीय यंत्रणाओं से गुज़र रहे हैं।
गुरनाह के सहजतापूर्ण लेखन में यही क्रूर सत्य ध्वनित है। उनके औपन्यासिक पात्र इतिहास की कारगुज़ारियों का दंश भोगते, निजसंस्कृतियों से कटे और नवीन संस्कृतियों में घिरे हुए अजनबीयत को जीते पात्रहैं। पलायन और शरणार्थी समस्याओं को लेकर बहुत कुछ लिखा जा रहा है परगुरनाह का लेखन रूढ़िवादी जड़ता से दूर वास्तविक लेखन है। समय बदला हैपर आज भी अनेक मुद्दों के साथ-साथ धर्म-संस्कृति-रंगभेद-नस्लीय भेदभावको लेकर प्रवासियों के साथ अमानवीयता यथावत है। इन मुद्दों पर मानवीयकरुणा और संवेदनाएँ सिफ़र हैं। संस्थाएँ आज सत्तावादी हैं और केवलराजनीति की भाषा जानती हैं। ब्रिटिश नागरिकता रखने वाले और केंटविश्वविद्यालय से बतौर साहित्य के प्रोफेसर सेवानिवृत्त हुए गुरनाह इन्हीं स्वार्थी सरकारों से अपील करते हैं कि वे प्रवासियों को समस्या के रूप मेंन देखें । प्रवासी अनुपयोगी नहीं हैं, वे ऊर्जावान हैं और अनगिनत संभावनाओं सेलबरेज़ हैं।
गुरनाह के उपन्यासों में प्रवासी समस्या, पहचान का संकट, असुरक्षा बोध, औपनिवेशिक विरासत में मिली दासता और विस्थापन के अमिट दर्द को प्रमुखता से उजागर किया है। उनके उपन्यासों में मेमोरी ऑफ डिपार्चर(1987), पिलिग्रिम्स वे (1988), डॉटी
(1990), पैराडाइज (1994), एडमायरिंग साइलेंस (1996), बॉय द सी (2001) , डेजरशन (2005), द लॉस्ट गिफ्ट (2011), ग्रेवल हर्ट (2017), आफ्टरलाइव्ज (2020) एवं ‘मॉय मदर लिव्ड ऑन ए फॉर्म इन अफ्रीका जैसी कथात्मक पुस्तकें’ शामिल हैं। ‘पैराडाइज’ और ‘बॉय द सी’ उपन्यास बुकर के लिए भी नामांकित हो चुके हैं। गुरनार ने अपने उपन्यास और आलोचनाओं में पूर्व औपनिवेशिक, जर्मन औपनिवेशिक, ब्रिटिश औपनिवेशिक, जंजीबार स्वतंत्रता आंदोलन और ब्रिटेन में विस्थापन जैसे मुद्दों को उठाया है और बखूबी बताया है कि मानचित्रों की सीमाओं और हदबंदियों में बँधी संस्कृति किस प्रकार विश्व में विस्थापित होती है।किस प्रकार व्यापारी-यात्री-युवा-महिलाएँ और अंतरंग रिश्ते प्रवास की कचोट को आजीवन एक यंत्रणा के रूप में भोगते हैं। और अंततः उन्हीं अनुभवों, भूख और दु:ख के घावों को देशों की सरहदों पर छोड़ जाते हैं।
गुरनाह के साहित्य का पुरस्कृत होना इस बात का संकेत है कि विश्व को अब सरहदों से परे मानव को मानव मान कर ही व्यवहार करना सीखना होगा। इसी में सम्पूर्ण मानवता का कल्याण है और ऐसे स्पष्ट संदेश ही साहित्य की सार्थकता है।
सरहदें इंसानों की खींची रेखाएँ हैं और दुःखद है कि इन्हीं सरहदों को पार कर लोग, धरती पर ‘शरणार्थी’ बन जाते हैं।