Thursday, September 16, 2021

स्त्री का आर्थिक आत्मनिर्भर होना उसकी अस्मिता की निर्मिति में सहायक

 

स्त्री का ख़ुदमुख्‍तार होना पितृसत्ता की आँखों की किरकिरी है। यों पितृसत्ता का कोई चिह्नित ठिया नहीं है, यह किसी भी मन में जाग सकती है , बस ज़रूरत उसे पहचानने की होती है। पितृसत्ता स्त्री छवि को लेकर फै़सलाकून रहती है , हर उम्र और वय में उसकी छवि गढ़ती है , उस पर सात ताले लगाती है और हिदायतों के सख़्त पहरे भी। आख़िर कितनी सदियां और लगेगी जब स्त्री जीवन की विडम्बना को चित्रित करती कहानियाँ झूठी साबित हो जाएँगी । एक ओर हम समरसता की बात करते हैं , स्त्री-शिक्षा और उसके आत्मनिर्भर होने की बात करते हैं और दूसरी ओर कामकाजी और घरेलू स्त्री को सार्थक-निरर्थक, योग्यता-विलासिता जैसे जुमलों पर कसने लगते हैं। यही नहीं उसकी कार्य शैली, क्षमता और उत्पादकता पर ही तमाम प्रश्नचिह्न लगाकर यही पितृसत्ता उसे गुड़िया भीतर गुड़िया का तमगा देने से भी गुरेज़ नहीं करती। 

 

इधर पितृसत्ता और स्त्रीद्वेष  ने एकबार फिर कामकाजी और घरेलू महिला को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। पर क्या यह तुलना और इस तरह के विचार कि कामकाजी स्त्री केवल गुड़िया बनकर, महज़ सुविधाभोगी और लग्ज़री लाइफ जीने के लिए नौकरी करती है, अधकचरा नहीं है। वस्तुतः स्त्री का आत्मनिर्भर होना ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है जिसे वह एक लम्बे संघर्ष के बाद हासिल करती है और उसके बाद उसे लगातार घर और कार्यस्थल पर स्वयं को साबित करना होता है, इस तरह व दोहरी ज़िम्मेदारी उठाती हैं। वे एक तरफ कार्मिक हैं तो दूसरी ओर माँ,बहन,बीवी और बेटी भी। उसके श्रम की तुलना कहीं भी किसी भी तरह से करना बेमानी है। हमारे समाज की मानसिक संरचना और जीवन की अनिश्तताओं के चलते स्त्री का आर्थिक आत्मनिर्भर होना ज़रूरी है। यह ठीक है कि केवल रोज़गार के पीछे भागकर अपने रिश्तों को दाव पर नही लगाया जाना चाहिए और ना ही स्त्री को पुरुष की तरह बनने की लालसा में अराजक और उच्छृंखल ही बनना चाहिए पर आत्मसम्मान के साथ जीना और जी भर जीना किसी भी स्त्री का प्राथमिक अधिकार है।  समाज-परिवार-साथी को भी उसके देय और दोहरे जीवन संघर्ष को समझ उसके साथ खड़ा होना होगा, पर यह परिकल्पना एक यूटोपिया है। 

 

बारिशों में भीगना, छतों पर बेफिक्र चहलकदमी और चिंतामुक्त जीवन जैसी लग्ज़र हर कोई चाहता है, लेकिन जीवन अपने जिए जाने की शर्ते स्वयं तय करता है। कार्यस्थल किसी पुश्तैनी वसीयत या पिता-पति के बैंक बैलेंस के बदौलत नहीं वरन् योग्यता और जीवन को धुँआ-धुँआ होम करने की कीमत पर पाया जाता है और वहाँ घर-परिवार  को सँभालने की अनिवार्य ज़िम्मेदारी भी वह स्वयं एक आदर्श सूत्र-वाक्य की तरह ओढ़ती है। ऐसे में उसे  लकदक गुड़िया कहना और उसके श्रम का उपहास करना स्त्री-द्वेषी समाज और पितृसत्ता के बहुस्तररीय होने की गवाही  स्वयं देता है। दरअसल स्त्री कामकाजी और गृहिणी दो खाँचों में बाँटी ही नहीं जा सकती वह अपनी प्रकृतिवश सदैव ही कामकाजी है। अपनी नाज़ुकी और मौसिकी में वह स्वयं शहद की मानिंद घुलना जानती है तो कर्मक्षेत्र पर समर्पण और प्रतिबद्धता  की राह चलकर स्वत्व को सुरक्षित रखना भी जानती है। स्त्री को अन्य व्याख्यायित करने की उस प्रतिगामी मानसिकता से जिसमें  उसे केवल दैहिक हदबंदियो और सौन्दर्यवादी उपादानों में बाँधने को प्रेरित किया जाता रहा है, साहित्य, समाज और राष्ट्र को मुक्त होना होगा।  

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