यह बात वैसी ही है जैसे बारिश बीत जाने पर बात बारिश की पर बारिश कहाँ बीत पाती है वह तो स्मृति में दर्ज हो जाती है किसी अनुस्मृति की तरह ...और कोई उससे मुक्त होना चाहे तो भी कैसे और भला क्यों कर !
ऐसी ही बात एक फ़िल्म की जिस पर बेवज़ह बवाल हुआ और ख़ासी आलोचना भी । यों मन नकारात्मक आलोचना पर कान नहीं धरता पर राजस्थान के चटख रंग , राठौड़ा री आन ( ओ म्हानै राठौड़ा री बोली प्यारी लागे म्हारी माँ), घेर घूमेर घाघरा और घूमर मन के बहुत पास बजता है तो देखनी तो थी ही सो आज मुझ तक पहुँची यह भी।
कुछ तो लोक का असर है कि ये रजवाड़े खींचते हैं अपनी ओर और कुछ समय को मानती हूँ कि हर चीज का आप तक पहुँचने का एक वक़्त होता है सो आज ‘पद्मावती’ पहुँची मुझ तक। वह पद्मावती जिसे इतिहासकार कल्पना भी मानते हैं पर वह कल्पना नहीं मोहक व्यक्तित्व की स्वामिनी और प्रेम - निष्ठा में पगी एक रानी थी । धन -स्त्री और सत्ता प्रसार इतिहास के हर उन्मादी राजा के लिए केन्द्र में रहे हैं , यहाँ भी हैं।
घणी घणी खम्मा...ये ही शब्द राग में तिरते रहते हैं जब पद्मावत का पहले-पहल दृश्य-मंच आँखों पर बिछने लगता है , तब जब यह फ़िल्म अपना और अपने किरदारों का वास्तविक परिचय दे रही होती है।
फ़िल्म के प्रारम्भ में ही लोक समृद्ध लगता है ...लोक तो होता ही समृद्ध है पर कलाकार या सहृदय उससे स्वयं को कितना भर पाता है यह महत्त्वपूर्ण होता है ।दीवारों पर लोक उरेहन और पार्श्व में बजता मद्धम लोक संगीत ...तो शुरुआत अच्छी रही । आप यों कह सकते हैं कि भव्यता की पदचाप सुनाती हुई-सी।
पहला ही दृश्य जलालुद्दीन ख़िलजी का और फिर सनकी अलाउद्दीन का ...इतिहास की थोड़ी बहुत समझ रखने वालों को ये किरदार अपनी अदाकारी से बहुत अधिक समृद्ध कर देता है। मंगोल फ़तह करना, अपने ही चाचा जलालुद्दीन को मौत के घाट उतारकर तख़्ता पलट करना , इतात खान को मौत के घाट उतारना और उसकी स्त्री- लम्पटता को चरम पर दिखाते जाने कितने वीभत्स दृश्य हैं जिन्हें रणवीर ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है । रणवीर सिंह को देखकर लगता है कि सफलता के लिए बस मेहनत की ज़रूरत होती है, और कुछ नहीं ...हालाँकि यह इस समय की एकपक्षीय सच्चाई पर उसे देखकर इस बात पर यक़ीन होता है ।
तख़्ता-पलट जैसी क्रूरताओं के लिए कहा गया है कि यह सल्तनत का दस्तूर है , सच ही तो है कि सत्ता पर एक सनक सवार होती है और यह सनक स्वकेन्द्रित हो जाए तो फिर जनता के लिए जीना मुश्किल हो जाता है ।
मेहरुन्निसा के साथ ज़्यादती अलाउद्दीन की सनक का पता स्वयं देती है, चित्तौड़गढ़ के क़िले के बाहर हताश और विद्रोह करती अपनी सेना को ढाढ़स बँधाता अलाउद्दीन और फिर सकारात्मक परिणाम पाकर वज़ीर को आँख का इशारा करता अलाउद्दीन कितनी बातें प्रकारांतर से कह जाता है ...दृश्यों में इसी प्रकार तो अर्थ -स्फीतियाँ होती हैं और यही मन पर अंकित रह जाती हैं ।
मलिक काफ़ूर की बात की जानी चाहिए कुछ...एक गुलाम जिसे अपनी ग़ुलामी का एहसास नहीं है जो अलाउद्दीन से प्रेम करता है ...दैहिक प्रेम और यही कारण है कि वह उसके आस-पास किसी स्त्री की मौजूदगी को स्वीकार नहीं कर पाता है। वह प्रेम करता है ;परन्तु किसी राजा की एकाधिक रानियों की ही तरह उसमें भी सौतिया-डाह है जो अनेक स्तरों पर उद्घाटित हुआ है।
मेहरून्निसा का प्रेम से पीडा तक का सफ़र हरमों की दबी सच्चाइयाँ हैं जहाँ मल्लिका -ए -जहाँ को महारानी पद्मावती का इस्तक़बाल करना भी एक मजबूरी बन जाता है ।
“उसूल इंसानों के लिए होते हैं जानवरों के लिए नहीं”, कहन अलाउद्दीन की क्रूरताओं के लिए सच ही जान पड़ता है ।
दूसरी ओर पद्मावती जिसे साहित्य की विद्यार्थी होने के नाते जायसी के रचे में ख़ूब पढ़ा है ; उसकी नागमणी का विरह-वर्णन तो समूचे मरुभूमि को डूबो देने का सामर्थ्य रखता है पर यहाँ वह नागमति अनुपस्थित है पर पद्मावती का सौन्दर्य मैंने जायसी के शब्दों से ही देखा है-
“वह पदमिनि चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी ॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंध जस कँवल बिगासा ॥”
रतनसेन और पद्मावती का प्रेम सच्चा, तरल और समर्पित है वहीं पहली रानी नागमति को जीवन से विरक्त दिखाने के पीछे रजवाड़ों में एकपत्नीव्रत का अभाव होने की पीड़ा को ही अधिक उद्घाटित करता है। रत्नसेन को उसी तरह चित्रित किया गया है जिस तरह एक बलशाली राजा के समक्ष सभी युक्तियों से जूझते हुए दिखाया जाना चाहिए ।
राघव-चेतन का विद्रोह तनिक अतिरंजना लिए है जो अंत तक बना रहता है और मेवाड़ के होम होने का कारक बनता है । पर यह भी संदेश देता हुआ कि राग यमन कभी चंदन की ख़ुशबू देता है तो कभी ग़ुलामी की दुर्गंध भी...चयन हमारा ही होता है।
पटकथा के मूल में स्पष्ट संदेश है कि, ‘सौन्दर्य घातक नहीं था/ होता वरन् उसकी ओर उठने वाली कुदृष्टि घातक थी/ होती है।’ पर यह लोक बार-बार अपने हर कुकृत्य से यह सिद्ध करता है कि दोष रूप का होता है , स्त्री-देह का होता है उस पर उठने वाली आँख का नहीं। जाने क्यों ये शब्द स्वयं निकले जब रानी आठ सौ दासियों के वेश में सेना को लेकर चल पड़ती है कि,”स्त्री को कम मत आँकों जब वो चुप हो जाती है तो प्रकृति उसका साथ देती है।” हाँ! आप चाहें तो इसे मेरी स्त्री-दृष्टि कह सकते हैं ।
गोरा और बादल जैसे कर्तव्यनिष्ठ और जाँबाज़ साथी हो तो चित्तौड़ अभेद्य हो ही जाता है । उनके ही साथ उनकी माँए जो इला ने देणी आपणी जैसी घुट्टी उन्हें हिंडोले में हर श्वास के साथ देती है । पद्मावती के दिल्ली जाने न जाने पर विरोधाभास मिलते हैं पर सात-सौ (फ़िल्म में आठ सौ) डोले और उनमें स्त्री-वेश में वीर जाने की बात को कितने ही इतिहास-ग्रंथों में मिलती है। इस संदर्भ में नरेन्द्र मिश्र जी की गोरा-बादल कविता ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए, इतिहास पर ऐसा प्रभावी लिखा कम मिलता है-
“गोरा बादल के अंतस में जगी जोत की रेखा
मातृ भूमि चित्तौड़दुर्ग को फिर जी भरकर देखा
कर अंतिम प्रणाम चढ़े घोड़ो पर सुभट अभिमानी
देश भक्ति की निकल पड़े लिखने वो अमर कहानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी “
(नरेन्द्र मिश्र)
“खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार...”, कहानी में खुसरो हैं और उनकी कविताई के ज़रिए अलाउद्दीन अपने हाथ में प्रेम की लकीर खोजता दिखाई देता है ।
कहानी मैं धार तलवार की है ...राजपूतों की आन है और प्राण-पण से ख़ुद को बनाए रखने की ज़िद जिस पर बवाल मचना समझ से परे है। क्या एक रानी का नृत्य आपत्ति का केंद्र था तो सामंती दृष्टि में तब और अब कितना अंतर आया है , समझा जा सकता है ।
और फिर राजस्थान का पहला साका होता है । क्रंदन , बलिदान और पीडा की तीव्र लपटों में झुलसता मेवाड़ बचा रह जाता है और उसी के बीच जीतकर भी हारा हुआ सिंकदर द्वितीय (सानी) ।
अंततः गिद्ध-दृष्टि मँडराती रह जाती है और सोना तप कर कुंदन बन जाता है। हाथों की छाप आत्मा पर अमिट छाप बन जाती है ।जो बच जाता है वह बस प्रेम 💓
बात मेरी और चित्र गूगल से साभार
विमलेश शर्मा