समय से मुठभेड़ करना सबसे मुश्किल होता है।
समय किस तरह जज़्बातों पर एक चुप रखता है ; व्यवस्था किस प्रकार कोमल भावों को लीलती है ; इसे भोग कर ही महसूस किया जा सकता है।
ठीक योंही हर रोज़ एक सुबह होती है ...रात की ज़ख़्मी चादर पर।
सो तो ख़ून के धब्बे तपन से भस्म हुए ही थे पर ज़ेहन पर कुछ जम गया था ; मुझे उसकी चोट की याद आ गई थी । किंकर्तव्यविमूढ स्थिति में तहस-नहस मन था ... सतत चल रही कुछ ख़बरें , क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं से हलकान साँसें जो मेरे जीवित होने का प्रमाण थी । ठंडी हुई चाय का एक कप था और शहरयार के बोल आँखों के सामने तैर रहे थे कि - “सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है...!"
दिन बढ़ रहा था और मन ठहरा ।
कार्यस्थल पर लड़कियों के हाथों में मोबाइल है ; कुछ चहक रही हैं ; मैं उनकी ही स्क्रीन पर उभरे चेहरे के खोखलेपन को भाँप लेती हूँ...मन और डूब जाता है। कुछ पढ़ने में रुचि रखने वाली लड़कियाँ हैं जिन्हें देख राहत महसूस होती है कि समाज वाक़ई आगे ब़ढ़ेगा।
लोग हैं यहाँ ...हैं कई शख़्सियतें ...कोई अपनी ठसक में है ; कोई अपने ग़ुरूर में तो कोई नौकरी के कष्टों की फ़ेहरिस्त बुन रहा तो कोई यह ही बता रहा कि सबसे अधिक कष्ट तो मेरे ही हिस्से आए।
‘भी’ की तरह यह ‘ही’ भी क्रूर है।
मेरी सहकर्मी मुझसे संवाद करती है और मैं भी व्यवस्था का हिस्सा बन तुनक कर ज़वाब देती हूँ । वह अपनी ठसक के साथ लौट गई है ; उसका विचलन मेरा विचलन बन गया है । तबसे एक सोच तारी है कि अपराध-बोध और आत्मा को कचोटते ये रेंगते प्रकरण वज़ूद का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
कुछ महिलाएँ हैं जिनका व्यवहार अप्रत्याशित है...कभी गुडपगी तो नीमचढ़ी ; दोनों के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करती हूँ पर थोड़े समय बाद दोनों के ही व्यक्तित्व का परस्पर विलोम मुझे निरुत्तर कर देता है।
रात तारी है ...मन सोच रहा है आसमाँ में तारे होंगे ही ...वे तब भी रहे होंगे ना उस रात ...मन सोचता है और गहरी श्वास की फिर एक चादर ओढ़ लेता है।
आने वाली सुबहों का सूरज स्याह है। अख़बार में एक हैदराबाद उन्नाव बन उतरता है ; संस्थानों में समरसता के मेले सजते हैं ; गोलियों से कुछ लोग मारे जाते हैं । न्याय -अन्याय का हल्ला मचता है ; मैं ज़मीन को तो कभी आसमाँ को निहारती हूँ। न्याय -अन्याय , क़ानून, प्रतिबद्धता, ज़वाबदेही शब्दों के अर्थ टटोलती हूँ...प्रकृति को समझने की चेष्टा करती हूँ पर चश्में पर कुहासा उतर आया है।
मेरी पीठ पर अब भी कुछ अवांछित नज़रें हैं; कानों में अब भी कुछ फब्तियाँ !
क्रूरता शाश्वत है; मन का एक कोना सिसकता है!
हँसी के ठहाके थे...नारेबाज़ियों के क्रमिक स्वर !
ये लोग समर्थक भी थे तो उनमें शामिल विरोधी भी थे...
टी.वी. चल रहा था ...चैनल बदले जा रहे थे और स्क्रीन पर फिर एक बलात्कार जारी था!
समय किस तरह जज़्बातों पर एक चुप रखता है ; व्यवस्था किस प्रकार कोमल भावों को लीलती है ; इसे भोग कर ही महसूस किया जा सकता है।
ठीक योंही हर रोज़ एक सुबह होती है ...रात की ज़ख़्मी चादर पर।
सो तो ख़ून के धब्बे तपन से भस्म हुए ही थे पर ज़ेहन पर कुछ जम गया था ; मुझे उसकी चोट की याद आ गई थी । किंकर्तव्यविमूढ स्थिति में तहस-नहस मन था ... सतत चल रही कुछ ख़बरें , क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं से हलकान साँसें जो मेरे जीवित होने का प्रमाण थी । ठंडी हुई चाय का एक कप था और शहरयार के बोल आँखों के सामने तैर रहे थे कि - “सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है...!"
दिन बढ़ रहा था और मन ठहरा ।
कार्यस्थल पर लड़कियों के हाथों में मोबाइल है ; कुछ चहक रही हैं ; मैं उनकी ही स्क्रीन पर उभरे चेहरे के खोखलेपन को भाँप लेती हूँ...मन और डूब जाता है। कुछ पढ़ने में रुचि रखने वाली लड़कियाँ हैं जिन्हें देख राहत महसूस होती है कि समाज वाक़ई आगे ब़ढ़ेगा।
लोग हैं यहाँ ...हैं कई शख़्सियतें ...कोई अपनी ठसक में है ; कोई अपने ग़ुरूर में तो कोई नौकरी के कष्टों की फ़ेहरिस्त बुन रहा तो कोई यह ही बता रहा कि सबसे अधिक कष्ट तो मेरे ही हिस्से आए।
‘भी’ की तरह यह ‘ही’ भी क्रूर है।
मेरी सहकर्मी मुझसे संवाद करती है और मैं भी व्यवस्था का हिस्सा बन तुनक कर ज़वाब देती हूँ । वह अपनी ठसक के साथ लौट गई है ; उसका विचलन मेरा विचलन बन गया है । तबसे एक सोच तारी है कि अपराध-बोध और आत्मा को कचोटते ये रेंगते प्रकरण वज़ूद का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
कुछ महिलाएँ हैं जिनका व्यवहार अप्रत्याशित है...कभी गुडपगी तो नीमचढ़ी ; दोनों के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करती हूँ पर थोड़े समय बाद दोनों के ही व्यक्तित्व का परस्पर विलोम मुझे निरुत्तर कर देता है।
रात तारी है ...मन सोच रहा है आसमाँ में तारे होंगे ही ...वे तब भी रहे होंगे ना उस रात ...मन सोचता है और गहरी श्वास की फिर एक चादर ओढ़ लेता है।
आने वाली सुबहों का सूरज स्याह है। अख़बार में एक हैदराबाद उन्नाव बन उतरता है ; संस्थानों में समरसता के मेले सजते हैं ; गोलियों से कुछ लोग मारे जाते हैं । न्याय -अन्याय का हल्ला मचता है ; मैं ज़मीन को तो कभी आसमाँ को निहारती हूँ। न्याय -अन्याय , क़ानून, प्रतिबद्धता, ज़वाबदेही शब्दों के अर्थ टटोलती हूँ...प्रकृति को समझने की चेष्टा करती हूँ पर चश्में पर कुहासा उतर आया है।
मेरी पीठ पर अब भी कुछ अवांछित नज़रें हैं; कानों में अब भी कुछ फब्तियाँ !
क्रूरता शाश्वत है; मन का एक कोना सिसकता है!
हँसी के ठहाके थे...नारेबाज़ियों के क्रमिक स्वर !
ये लोग समर्थक भी थे तो उनमें शामिल विरोधी भी थे...
टी.वी. चल रहा था ...चैनल बदले जा रहे थे और स्क्रीन पर फिर एक बलात्कार जारी था!
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