#ऋणानुबंध
अवचेतन मन और सचेष्ट प्रज्ञा का यह
‘ऋणार्ण ‘
उन सभी के नाम जो जीना जानते हैं !
भाव्यं तेनैव नान्यथा!
————————
चेहरों की दुनिया
चेहरों पर चेहरों की दुनिया
और इस दुनिया की अय्यारी है कि
यह दिखकर ओझल हो जाती है
और ओझल होकर भी बनी रहती है
साक्षात्!
यह भ्रम शाश्वत्
जैसे जन्मों के बीच अटा जीवन
या कि एक दु:खद स्वप्न
जिसकी प्यास हलक में अटकी रहे
आँख खुलने के बाद भी
और आँसू अटका रहे कोर पर
स्मृति के विस्मृत हो जाने तक !
इन चेहरों का अट्टहास भयभीत करता है
पर मन का एक कोना
अविराम जपता है
‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’
तब्दीलियाँ, परिवर्तन , विचलन
यों परस्पर पर्याय हैं
सभी सृष्टि संचालन हेतु
मूलत: अपरिहार्य हैं
एक ने इन्हें देख आत्मसात् किया
अपने विचार-भुवन के
ऊँचे दरज़े में दाख़िला देते हुए
जमकर शास्त्रार्थ किया
दूसरा किसी विषयान्तर की ही तरह
खोल बदल निरपेक्ष होने का दावा करते हुए
स्व के सापेक्ष रहा
सापेक्षिक वृत्तियों की पुनरावृत्तियों में
अपने व्यक्तित्व के एवज़ में
उसने सुरक्षित कर लिए
कुछ वर्ष , पुरस्कार
महज़ एक मुहावरे
‘बुद्धं शरणं गच्छामि’
की ओट लेकर
जबकि इस पदानुबंध का अंकन
किसी पूत दार्शनिक शिलालेख पर उत्कीर्ण था !
एक ज़गह ध्वस्त पारिस्थितिकी का
निष्काम वैभव था
स्तब्धता थी
और थी अपनत्व की
निष्पाप ऊष्मा !
और दूसरी ओर
क्लीवत्व से समादृत अट्टहास !
सत्त्व दोनों ओर था पर किंचित् सापेक्ष ....किंचित् निरपेक्ष !
विमलेश शर्मा
पुस्तक इस लिंक पर उपलब्ध है -
https://www.amazon.in/s?k=Rinanubandh+vimlesh+sharma&ref=nb_sb_noss
1 comment:
मेम आपकी यह ॠणानुंबध कविता ऐसी कविता है जो संवेदनशील रचनाकार के अंत:करण से रूबरू कराती है इसके साथ मेम आप ऐसी कवयित्री भी है जो अपनी कविताओं के माध्यम से उस काव्य-परम्परा और नवोन्मेष के बीच एक बेहतर रिश्ता बनाने के लिए प्रयासरत है।
Post a Comment