Thursday, August 22, 2019

ऋणानुबंध



#ऋणानुबंध 

अवचेतन मन और सचेष्ट प्रज्ञा का यह 
                ‘ऋणार्ण ‘
उन सभी के नाम जो जीना जानते हैं !

भाव्यं तेनैव नान्यथा!
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चेहरों की दुनिया 
चेहरों पर चेहरों की दुनिया
और इस दुनिया की अय्यारी है कि 
यह दिखकर ओझल हो जाती है
और ओझल होकर भी बनी रहती है 
साक्षात्! 

यह भ्रम शाश्वत् 
जैसे जन्मों के बीच अटा जीवन 
 या कि एक दु:खद स्वप्न 
जिसकी प्यास हलक में अटकी रहे 
आँख खुलने के बाद भी 
और आँसू अटका रहे कोर पर 
स्मृति के विस्मृत हो जाने  तक ! 

इन चेहरों का अट्टहास भयभीत करता है 
पर मन का एक कोना 
अविराम जपता है 
‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’

तब्दीलियाँ, परिवर्तन , विचलन 
यों परस्पर पर्याय हैं 
सभी  सृष्टि संचालन हेतु 
मूलत: अपरिहार्य हैं 

एक ने इन्हें देख आत्मसात् किया 
अपने विचार-भुवन के
ऊँचे दरज़े में दाख़िला देते हुए
जमकर शास्त्रार्थ किया 

दूसरा किसी विषयान्तर की ही तरह 
खोल बदल निरपेक्ष होने का दावा करते हुए
स्व के सापेक्ष रहा 

सापेक्षिक वृत्तियों की पुनरावृत्तियों में 
अपने व्यक्तित्व  के एवज़ में 
उसने सुरक्षित कर लिए 
कुछ वर्ष , पुरस्कार 
महज़ एक मुहावरे
‘बुद्धं शरणं गच्छामि’
की ओट लेकर 

जबकि इस पदानुबंध का अंकन 
किसी पूत दार्शनिक शिलालेख पर उत्कीर्ण था !

एक ज़गह  ध्वस्त पारिस्थितिकी का 
निष्काम वैभव था 
स्तब्धता थी 
और थी अपनत्व की 
निष्पाप ऊष्मा !

और दूसरी ओर 
क्लीवत्व से समादृत अट्टहास !

सत्त्व दोनों ओर था पर किंचित् सापेक्ष ....किंचित् निरपेक्ष !

विमलेश शर्मा

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Tuesday, August 13, 2019

स्वस्ति-पुष्प

भोर के उगने का एक सलीक़ा है !
फूल के खिलने में समूचे तंत्र का योगदान है!
हवा के , नदियों के बहने का भी एक रहस्य है; गति है; निश्चित यति है।

हम सभी  जानते हैं इस सरल-से दिखने वाले गूढ सत्य को ।

पर फिर इस उगने और खिलने पर ही क्यों कर यहाँ-वहाँ  प्रश्न-चिह्न लगा दिए जाते हैं!

प्रश्नों के सघन मेघ मानस-पटल पर हैं पर सत्त्व का संबल भी मौन ही सही पर थामे है। हो यों भी रहा कि नितांत अकेली दृष्टि भी जब विकल होकर आसमां को ताकती है तो  वह हँसकर आशीष देता जान पड़ता  है कि अभी राह पथरीली तुम्हें माँझने के लिए ही खड़ी  है ।

परिपक्वता के स्वस्ति -पुष्प संभवत:  इन राहों पर ही खिला करते रहे होंगे ।

आत्मा की तानें किसी वीतरागी के समक्ष ही नत होती हैं। वे मूक होती हैं उतनी मुखर नहीं। यात्रा करते-करते इतना तो जान लिया कि सब कुछ गति में है तो यात्रा सही ही चल रही है; कुछ अवरोध आ रहे हैं तो साधना फलित हो रही।

अध्यात्म के परदों से ऐसे ही संदेश सतत सुनाई देते रहते हैं।

यह टेक ही  मन में अनायास एक स्वस्तिपुष्प उगा देती है।

#समर्पण
#स्वस्ति_पुष्प
विमलेश शर्मा