मातृभूमि के दीवाने इस अनूठी भारत -भूमि पर कम नहीं वरन् बहुतेरे हैं ; जो इसी धरा पर जब-तब मणि की तरह दैदीप्यमान होते रहे और अपने रक्त का क़तरा-क़तरा मातृभूमि को सौंप इसी में रम गए। इन्हीं मणियों में एक मणि दीपती है मणिकर्णिका की तरह। मणिकर्णिका उर्फ़ मनु ; जिसे हम झाँसी की रानी की तरह जानते हैं । वह किरदार जो 1857 की क्रांति, जातीय अभिमान , स्वाभिमान और मातृभूमि के प्रेम में आकंठ सराबोर है। बिठुर के पेशवा के यहाँ पली - बढ़ी मणि अपने आत्मबल में अनूठी है।
मणि इस फ़िल्म में यह संदेश देती है कि स्त्री को सशक्त करने की ज़रूरत नहीं वह स्वयं शक्ति से प्रदीप्त है; और इसी का वैषम्य जब देखती है तो कई ज़गह सामंती और वर्चस्ववादी ताक़तों से लड़ती भी नजर आती है। देवर सदाशिव राव का एक कथन कि मैं औरत के समक्ष सिर नहीं झुकाता , राजमाता का मनु को रसोई और ललित कलाओं में ध्यान देने जैसी चंद-सी दिखने वाली बातों के पीछे संकुचित और एकांगी मानसिकता की गहरी खाइयाँ हैं ; जो समय के गुज़रने के बाद भी यथावत् है को मणिकार्णिका में गाहे-बगाहे अनेक प्रसंगों से उकेरा गया है ।
बिठूर के पेशवा की परेशानियाँ , नाना साहेब के उत्तराधिकार के प्रश्न , पेशवा होने के अधिकार से वंचित मातहत, ब्रिटिश कम्पनी की स्वार्थ-द्वेषपूर्ण नीतियाँ और मातृभूमि से नि:स्वार्थ प्रेम मणिकार्णिका के कथानक का आधार है।
झाँसी की जिस धरती पर पचास वर्षों से सहज स्वतंत्रता का सूरज विकसित नहीं हु्आ मणि वहाँ ताज़े हवा के झोंके की तरह आती है
।अमिताभ बच्चन के वॉइस ओवर के साथ इस ऐतिहासिक चरित्र गाथा की कहानी का प्रारंभ होता है और बमुश्किल फ़िल्म के तीसरे -चौथे दृश्य में ही दर्शक मणि से मिल लेता है।
यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि कंगना इस फ़िल्म में अभिनय तो कर ही रही है पर इस फ़िल्म को निर्देशित भी कर रही हैं पर मेरा मन कंगना में मनु को खोजता रहा और इस खोज में वह उस झाँसी की रानी तक पहुँच जाता है जिसे ह्यू रोज अपनी आत्मकथा में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में मर्दानी रानी कहकर पुकारता है।
रजवाड़ों के सबसे धनी राज्य झाँसी की गद्दी पर लक्ष्मी का बैठना अंग्रेज़ों के आँखों की किरकिरी है और फ़िल्म का हर दृश्य ऐसे सभी घटनाक्रमों को सिलसिलेवार दृश्य-दर-दृश्य दर्ज़ करता चलता है।
मनु से रानी और रानी ले मनु तक का सफ़र फ़िल्म सहजता से पूर्ण कर लेती है।लक्ष्मी और झलकारी जैसी वीरांगनाओं की अलमस्ती और स्वतंत्रता के सिंदूर की चाहना से तिलकित उनका ओजस्नी भाल मूल किरदारों का ही ओज है जो फ़िल्म को दर्शक के हृदय तक पहुँचाने का माद्दा रखता है।
पात्रों और अभिनय की दृष्टि से यह फ़िल्म सशक्त है पर और बेहतर हो सकती थी, यह भी सच है। फ़िल्म में तथ्यों की कमी खलती है,ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और शोध की आँख से इसे देखने पर भी यह फ़िल्म कमतर लगती है पर सिनेमा के निर्माता स्वयं इन पक्षों पर ये कहकर पल्ला झाड़ते हैं कि कोरा इतिहास परोसना सिनेमा का ध्येय नहीं है। प्रसून जोशी के संवाद लिखने में भी कुछ कसर दिखी है तो वहीं कुछ दृश्यों के फ़िल्मांकन में भी कहीं-कहीं कुछ कमी सी दिखाई देती है जो संभवत: भव्यता के अतिशय तक नहीं पहुँचने के कारण ही है । भंसाली के दृश्यों की तरह यहाँ वह अतिरेक नहीं है पर इतिहास इसी अतिरेक में कभी-कभी जगमगाता भी है। इसका एक अन्य कारण इस पटकथा और एपिक में प्रेम प्रधान घटनाक्रमों का अभाव रहना भी है।
मस्तानी जैसा जादू रचने में मणि असफल रही है ; हाँ !यह कहने में कोई गुरेज़ भी नहीं।
#मणिकर्णिका
एक वचन एक बाण
सरसरी_नज़र
मणि इस फ़िल्म में यह संदेश देती है कि स्त्री को सशक्त करने की ज़रूरत नहीं वह स्वयं शक्ति से प्रदीप्त है; और इसी का वैषम्य जब देखती है तो कई ज़गह सामंती और वर्चस्ववादी ताक़तों से लड़ती भी नजर आती है। देवर सदाशिव राव का एक कथन कि मैं औरत के समक्ष सिर नहीं झुकाता , राजमाता का मनु को रसोई और ललित कलाओं में ध्यान देने जैसी चंद-सी दिखने वाली बातों के पीछे संकुचित और एकांगी मानसिकता की गहरी खाइयाँ हैं ; जो समय के गुज़रने के बाद भी यथावत् है को मणिकार्णिका में गाहे-बगाहे अनेक प्रसंगों से उकेरा गया है ।
बिठूर के पेशवा की परेशानियाँ , नाना साहेब के उत्तराधिकार के प्रश्न , पेशवा होने के अधिकार से वंचित मातहत, ब्रिटिश कम्पनी की स्वार्थ-द्वेषपूर्ण नीतियाँ और मातृभूमि से नि:स्वार्थ प्रेम मणिकार्णिका के कथानक का आधार है।
झाँसी की जिस धरती पर पचास वर्षों से सहज स्वतंत्रता का सूरज विकसित नहीं हु्आ मणि वहाँ ताज़े हवा के झोंके की तरह आती है
।अमिताभ बच्चन के वॉइस ओवर के साथ इस ऐतिहासिक चरित्र गाथा की कहानी का प्रारंभ होता है और बमुश्किल फ़िल्म के तीसरे -चौथे दृश्य में ही दर्शक मणि से मिल लेता है।
यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि कंगना इस फ़िल्म में अभिनय तो कर ही रही है पर इस फ़िल्म को निर्देशित भी कर रही हैं पर मेरा मन कंगना में मनु को खोजता रहा और इस खोज में वह उस झाँसी की रानी तक पहुँच जाता है जिसे ह्यू रोज अपनी आत्मकथा में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में मर्दानी रानी कहकर पुकारता है।
रजवाड़ों के सबसे धनी राज्य झाँसी की गद्दी पर लक्ष्मी का बैठना अंग्रेज़ों के आँखों की किरकिरी है और फ़िल्म का हर दृश्य ऐसे सभी घटनाक्रमों को सिलसिलेवार दृश्य-दर-दृश्य दर्ज़ करता चलता है।
मनु से रानी और रानी ले मनु तक का सफ़र फ़िल्म सहजता से पूर्ण कर लेती है।लक्ष्मी और झलकारी जैसी वीरांगनाओं की अलमस्ती और स्वतंत्रता के सिंदूर की चाहना से तिलकित उनका ओजस्नी भाल मूल किरदारों का ही ओज है जो फ़िल्म को दर्शक के हृदय तक पहुँचाने का माद्दा रखता है।
पात्रों और अभिनय की दृष्टि से यह फ़िल्म सशक्त है पर और बेहतर हो सकती थी, यह भी सच है। फ़िल्म में तथ्यों की कमी खलती है,ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और शोध की आँख से इसे देखने पर भी यह फ़िल्म कमतर लगती है पर सिनेमा के निर्माता स्वयं इन पक्षों पर ये कहकर पल्ला झाड़ते हैं कि कोरा इतिहास परोसना सिनेमा का ध्येय नहीं है। प्रसून जोशी के संवाद लिखने में भी कुछ कसर दिखी है तो वहीं कुछ दृश्यों के फ़िल्मांकन में भी कहीं-कहीं कुछ कमी सी दिखाई देती है जो संभवत: भव्यता के अतिशय तक नहीं पहुँचने के कारण ही है । भंसाली के दृश्यों की तरह यहाँ वह अतिरेक नहीं है पर इतिहास इसी अतिरेक में कभी-कभी जगमगाता भी है। इसका एक अन्य कारण इस पटकथा और एपिक में प्रेम प्रधान घटनाक्रमों का अभाव रहना भी है।
मस्तानी जैसा जादू रचने में मणि असफल रही है ; हाँ !यह कहने में कोई गुरेज़ भी नहीं।
#मणिकर्णिका
एक वचन एक बाण
सरसरी_नज़र
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