“मुझमें जीवन की लय जागी
मैं धरती का हूँ अनुरागी
जड़ीभूत करती है मुझको
यह संपूर्ण निराशा त्यागी।”
जनवादी कवि त्रिलोचन की इन्हीं पक्तियों का अनुसरण करते हुए हर सर्जक उजास, चेतना और जिजीविषा की एक अनवरत यात्रा पर निकल पड़ता है। लिखना भी एक यात्रा पर निकल पड़ना है, लिखना स्वयं को जीवित रखना है और इन्हीं मायनों में साहित्य की उपादेयता अक्षुण्ण है ; क्योंकि साहित्य बदलते हुए समय का दस्तावेज़ीकरण करते हुए चलता है। वह मनोभावों और संवेदनाओं को चिह्मित करता हुआ साहित्य के इतिहास में दर्ज़ होता है, यही कारण है काल-सापेक्ष साहित्य का इतिहास जानना अपरिहार्य है ।
सुखद है कि समकालिक भारतीय लेखक विविध विधाओं में श्रेष्ठ साहित्य की सर्जना कर रहे हैं। इसी दृष्टि से सन् 2018 , हिन्दी साहित्य में युवा लेखकों की पुरजोर उपस्थिति का वर्ष कहा जा सकता है। जहाँ एक ओर वर्ष 2018 साहित्य में समेकित रूप में कथा-साहित्य, काव्य और कथेतर गद्य का एक अद्भुत साम्य लेकर उपस्थित होता है; वहीं यह वर्ष गंभीर बनाम लोकप्रिय साहित्य की बहस को भी तरजीह देता हुआ दिखाई देता है। इस वर्ष कई महत्त्वपूर्ण कृतियाँ व रचनाकार सम्मानित हुए तो कई रचनाएँ दिल के क़रीब रहकर बदस्तूर महकती भी रहीं।
इस वर्ष प्रकाशित रचनाओं में कथेतर गद्य की बात की जाए तो ज्ञानपीठ ने वर्ष २०१७ में अपना प्रतिष्ठित नवलेखन पुरस्कार युवा लेखक आलोक रंजन की कृति ‘सियाहत’ जो कि यात्रावृत्त (ट्रेवलॉग) है, को प्रदान किया। यह कृति इस वर्ष प्रकाशित हुई। वस्तुतः ‘सियाहत’ एक यात्रा है तथा इसका वर्ण्य विषय उत्तर-दक्षिण भारत के मध्य का संवाद सेतु है। ‘सियाहत’ दो पृथक् परिवेश और संस्कृति के बीच का पुल है जिसमें लेखक सहज भाषा की चित्रवीथि गूँथते हुए यह संदेश देता है कि यात्राएँ कभी ख़त्म नहीं होती वरन् वे अंततः भीतर की ओर मोड़ लेती हुई दिखाई देती हैं। आलोक इस यात्रा में प्रकृति-चित्रण में ही नहीं भटक जाते वरन् वे प्रकारान्तर से अनेक विषयों को भी उठाते हैं। यात्रा-वृत्त-साहित्य की ही बात करें तो ‘दर्रा-दर्रा हिमालय’ के बाद अजय सोडानी की ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ भी उल्लेखनीय रचना है। इसी क्रम में असगर वज़ाहत की पुस्तक ‘अतीत का दरवाज़ा’ को भी पाठकों ने सराहा । ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ में जहाँ हिमालय के अचिह्मित स्थानों के किस्से हैं, जिन्हें लेखक, पाठक के समक्ष रखते हुए यह सोचने पर मज़बूर करता है कि सभ्यता और आधुनिकता की बयार में आख़िर हमने क्या खोया और क्या पाया? वहीं ‘वज़ाहत’ मध्य एशिया, यूरोप और दक्षिणी अमेरिका के परिदृश्य और छोटी-बड़ी घटनाओं को वृत्तांत शैली में प्रस्तुत करते हैं।
अशोक कुमार पांडेय की कृति ‘कश्मीरनामा’ इस वर्ष की चर्चित शोधपरक पुस्तक रही। कश्मीर से जुड़े मुद्दे अभी भी अलक्षित हैं, ऐसे में यह कृति तर्क के साथ कई भ्रमों को तोड़ती है। शिवदत्त जी निर्मल वर्मा के अनन्य प्रेमी-पाठक के रूप में ख्यात हैं। उनकी कृति ‘स्मृतियों का स्मगलर’ एक भिन्न पाठकवर्ग की माँग रखती है, जो लेखक के शब्दों में ही, ‘निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘एक चिथड़ा सुख’ का अघोर पाठकीय अवगाहन है।‘ अष्टभुजा शुक्ल की ‘पानी पर पटकथा’ ललित निबंधों की कृति है। पुस्तक में संकलित निबंधों में भाषा का लालित्य, भदेसपन और संस्कृतनिष्ठ प्रवृत्ति द्विवेदी-परम्परा का एहसास कराती प्रतीत होती है तो वहीं विषयवस्तु की रोचकता, दार्शनिक गहनता उत्तरप्रदेश के सांस्कृतिक परिदृश्य को गद्यात्मक लय में सामने रखती है।
अनुवाद में आई उल्लेखनीय कृतियों में डॉ. बलराम शुक्ल की ‘निःशब्द नूपुर’ उल्लेखनीय रचना है। यों तो सूफी-शायर मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन की ग़ज़ल और रुबाइयाँ कई बार अनूदित हुई हैं; परन्तु यह इस बात में अनूठी है, क्योंकि इसका अनुवाद ‘शुक्ल’ ने मूल फ़ारसी से किया है। शंखघोष केवल बांग्ला भाषा के रचनाकार नहीं वरन् भारतीय मनीषा के महत्त्वपूर्ण प्रतीक-चिह्न भी हैं। इनकी तीन पुस्तकों का अनुवाद एक साथ हिन्दी में आना सुखद है। इनमें ‘निःशब्द की तर्जनी’ और ‘होने का दुःख’ गद्य रचनाएँ हैं,जिनके अनुवादक उत्पल बैनर्जी हैं तो ‘मेघ जैसा मनुष्य’ काव्य-संकलन के अनुवादक प्रयाग शुक्ल हैं। शंख घोष के गद्य के केन्द्र में, ‘मैं से तुम’ अर्थात् ‘व्यक्ति से लेखक’ तक की यात्रा हैं तो उनकी कविताएँ जीवन के यथार्थ की ओर इशारा करती हैं।
कथा-साहित्य में इस वर्ष अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई । इस साल के चर्चित उपन्यासों में गीतांजलि श्री का ‘रेतसमाधि’, ज्ञान चतुर्वेदी का ‘पागलखाना’ चर्चित रहे तो अलका सरावगी के ‘एक सच्ची-झूठी गाथा’, ऊषाकिरणखान का ‘गई झूलनी टूट’ और मधु कांकरिया का ‘हम यहाँ थे’ उपन्यास भी चर्चा में आया। ‘रेतसमाधि’ और ‘गई झूलनी टूट’ उपन्यास स्त्री-संघर्ष की परिवेशगत बयानगियाँ हैं,वहीं ज्ञान चतुर्वेदी का पाचवाँ उपन्यास ‘पागलखाना’ उन पागलों की कथा है जो जीवन को बाज़ार से बड़ा मानते रहे। बाज़ार को लेकर उन्होंने एक विराट् फैंटेसी की सर्जना की है। इसी वर्ष गरिमा श्रीवास्तव की ‘देह ही देश’ रचना भी प्रकाश में आई है। लेखिका ने इसे क्रोएशिया की प्रवास डायरी कहा है। बोस्निया युद्ध की पृष्ठभूमि में यह उन हज़ारों पीडिता स्त्रियों की कहानी है जिनकी देह पर ही जाने कितने युद्ध लड़े गए हैं।
इसी साल असगर वज़ाहत का कहानी-संग्रह ‘भीड़तंत्र’ भी प्रकाशित हुआ साथ ही मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘किरदार’ कहानी संग्रह, ममता सिंह का प्रथम कहानी संग्रह ‘राग-मारवा’, दिव्या विजय का ‘अलगोजे की धुन पर’, जयंती रंगनाथन का ‘नीली छतरी’ तथा सैन्य पृष्ठभूमि के जाबांज गौतम राजऋषि का कहानी-संग्रह ‘हरी मुस्कराहटों वाला कोलाज़’ भी ख़ासा चर्चित रहा।
भाषा समय-सापेक्ष है; पर क्या भाषा में आ रहा बदलाव क्या भाषा के कलेवर के लिए ख़तरा है, ऐसे कई सवाल ‘नई वाली हिन्दी’ मुहावरे से आई अनेक रचनाएँ पाठक और शुद्धतावादियों के जेहन में भी छोड़ गईं तो साथ ही बेस्ट सेलर के मुहावरे को भी जीवंत करती नज़र आईं। इन रचनाओं में भगवंत अनमोल का उपन्यास ज़िंदगी-५०-५०, तथा सत्य व्यास का ‘चौरासी’ खासा चर्चित रहा। हालाँकि 'चौरासी' , 'बनारस टॉकीज' के बाद पुन: भाषाई प्रांजलता की ओर लौटती नज़र आती है। कहानी-संग्रहों में निखिल सचान का ‘नमक स्वादानुसार’ ,दिव्य प्रकाश दुबे का ‘शर्तें लागू’, अंकिता जैन की ‘ऐसी-वैसी औरत’ रचनाएँ मुखरता से सामने आईं, जिनमें से अधिकांश बेस्ट-सेलर के मुहावरे को भी रचती हैं। विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘हमन है इश्क मस्ताना’ भी इस वर्ष का लोकप्रिय उपन्यास है। नीलोत्पल मृणाल के ‘औघड़’ उपन्यास की भी साल बीतते-बीतते हिन्द युग्म से प्रकाशन की खबर मिल रही है। हालाँकि कुछ उपन्यासों (औघड़, अक्टूबर जंक्शन जो अभी प्रकाश्य नहीं है का उल्लेख इधर चर्चा के कारण ही) के बारे में बात उन्हें तफ़सील से पढ़ने के बाद ही बात की जा सकती है।
कविता की दृष्टि से यह काल अपेक्षाकृत कम उल्लेखनीय रहा;परन्तु साल बीतते-बीतते यह रिक्तता भी भरती नज़र आई। केदारनाथ सिंह के निधनोपरान्त उनका अंतिम कविता-संग्रह ‘मतदान केन्द्र पर झपकी’ शीर्षक से आया। वीरेन डंगवाल की कविताओं का संग्रह ‘कविता वीरेन’ भी इसी वर्ष आया। सुमन केशरी का ‘पिरामिडों की तहों में’, श्यौराज सिंह बैचेन का ‘भोर के अँधेरे’, असंगघोष का ‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’, अनुराधा सिंह का ‘ईश्वर नहीं, नींद चाहिए’ इस वर्ष के कतिपय उल्लेखनीय काव्य-संग्रह हैं। ‘मुश्किल दिनों की बात’ शिरीष कुमार मौर्य की ४० कविताओं का संकलन है। एक लम्बे समय बाद गगन गिल का काव्य संकलन ‘मैं जब तक आयी बाहर’ भी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ।
संभावनाशील युवा कवियों की प्रकाशन शृंखला की योजना के तहत वाणी प्रकाशन द्वारा रज़ा फाउण्डेशन के सहयोग से मोनिका कुमार का काव्य-संग्रह ‘आश्चर्यवत्’ प्रकाशित हुआ। वाणी से ही अम्बर पाण्डेय की ‘कोलाहल की कविताएँ’ प्रकाशित हुईं । ये कविताएँ अम्बर के भाषिक सामर्थ्य, बहुभाषाई ज्ञान और मिथकीय चेतना की गहरी समझ की जीवंत अभिव्यक्ति हैं। इधर ‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ युवा-प्रातिभ-मेधा और विविध विषयों पर साधिकार लिखने वाले लेखक सुशोभित सक्तावत की प्रेम कविताएँ और गद्यगीत हैं । सुशोभित का ही इसी वर्ष आया अन्य काव्य-संग्रह ‘मलयगिरि का प्रेत है’, जिसकी कविताएँ आदिम भित्ति-चित्रों पर रचित शास्त्रीय राग सी ही मनोहर हैं। अम्बर और सुशोभित की रचनाएँ काव्य-जगत् में युव-हस्ताक्षरों की झकझोरने वाली उपस्थितियाँ हैं, जो पुरातन और नव्य का अभीष्ट संगम प्रस्तुत करती हैं।
इस बरस नीलिमा पाण्डेय की दिसंबर,2018 में 'थेरीगाथा' पुस्तक आई। यह बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा संघ प्रवास के दौरान लिखी गई कविताओं का संकलन है, इसलिए अपनी तरह का एक खास आकर्षण रखती है। इसमें कविताओं की कुल संख्या 73 है तथा इनकी भाषा पाली है। थेरीगाथा की स्त्रियों से संबद्धता उसे एक उत्साहवर्धक -उत्तेजक-रोचक-शोधपरक साहित्य बनाती है।यह एकमात्र ऐसा प्राचीन धार्मिक साहित्य है जिसे एकाकी रूप से स्त्रियों के द्वारा रचा गया है।
पुरस्कारों की बात करें तो सुप्रसिद्ध कथाकार चित्रा मुद्गल को इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी औपन्यासिक कृति ‘नालासोपारा’ (प्रकाशन वर्ष 2016) के लिए प्रदान करने की घोषणा की। यह उपन्यास हाशिए पर उपस्थित उस वर्ग की दारुण गाथा है ,जिसे समाज थर्ड-जेन्डर की संज्ञा से नवाज़ता है। हाल ही में प्रसिद्ध कवि गीत चतुर्वेदी को शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार की घोषणा भी हुई है।
हेमन्त शेष की काव्य-कृति ‘प्रायश्चित् प्रवेशिका व अन्य कविताएँ’ व गीत चतुर्वेदी का ‘टेबल-लैम्प’ शीर्षक से गद्य-संग्रह भी साल बीतते-बीतते प्रकाशित हुई।
आलोचना की दृष्टि से यह वर्ष समृद्ध कहा जा सकता है। इसी वर्ष वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह जी की पुस्तकें आलोचना और संवाद, पूर्वरंग, द्वाभा, छायावाद:प्रसाद, निराला, महादेवी और पंत तथा रामविलास शर्मा शीर्षक से प्रकाशित हुईं। ओम निश्चल के संपादन में कवि कुंवर नारायण पर ‘अन्विति और अन्वय’ शीर्षक दो खण्डों से पुस्तकें प्रकाशित हुईं। विनोद शाही की पुस्तक ‘आलोचना की ज़मीन’ , राजेश जोशी की ‘कविता का शहर’, ओमप्रकाश सिंह, शीतांशु की उपन्यास का वर्तमान आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं।
पत्रिकाओं ने इस वर्ष कई महत्त्वपूर्ण अंक निकाले। आलोचना,हंस, ज्ञानोदय, पहल,वागर्थ,पाखी के साथ ही अनेक शोध पत्रिकाओं यथा वाड़्मय, अनुसंधान तथा अन्य ई-पत्रिकाओं ने अनेक विषयों पर अच्छे अंकों का संपादन भी किया। बनास जन पत्रिका के अंक भी इसी वैशिष्ट्य की दृष्टि से सहेजने लायक हैं। इधर बरस बीतते यह भी ख़ुशी है कि ‘कथन’ पत्रिका का प्रकाशन फ़िर से प्रारम्भ होने जा रहा है। ई-पुस्तकों के रूप में नॉटनल नई संभावनाओं को लेकर उपस्थित हुआ है, तो बाल साहित्य में भी रोचक सामग्री लेकर ‘साइकिल’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं।
बीतते साल की साहित्यिक घोषणाओं में चौंकाने वाली एक घोषणा यह भी रही कि भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ’ एक अंग्रेजीदां लेखक अमिताभ घोष को प्राप्त हुआ। मेरी सोच के पाठकों का यह सोचना अंग्रेजी भाषा से किसी झगड़े के कारण नहीं है, न ही पुरस्कृत लेखक से शिकायत के तहत; पर इससे जुड़ा प्रश्न भारतीय साहित्य व क्षेत्रीय भाषाओं की अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है।कई मायनों में इस घोषणा ने भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के महत्त्व को तो कम किया ही साथ ही भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं के आत्मविश्वास को भी हतोत्साहित किया है।
बहरहाल यह वर्ष भी रचनात्मकता की दृष्टि से अपेक्षाकृत उर्वर रहा तो साथ ही भाषा-नई भाषा की ज़ंग को , लोकप्रिय और गांभीर्य की बहस को हवा भी देकर जा रहा है। यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों दूधनाथ सिंह, कुंवर नारायण, अमृतलाल वेगड़, गीतकार गोपालदास नीरज, अभिमन्यु अनत के अवसान का वर्ष भी रहा। बड़ेरों की यह क्षति अपूरणीय है पर सतत साहित्य-सर्जना आशा के नवीन लाल सूरज के प्रति आशान्वित भी करती है कि आने वाला वर्ष 2019 रचनाकारों के श्रेष्ठ अवदान का गवाह बन माथे पर पुनः चमकेगा।
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निःशब्द नूपुर के उल्लेख हेतु आपका धन्यवाद–
बलराम शुक्ल
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