हमारी सृष्टि का हर व्यवहार एक नियम और संतुलन में बँधा है और उसी के तहत यहाँ सभी कुछ समता की धुरी पर परिचालित है। इस जगत् में मूर्त-अमूर्त सभी तत्त्व इसी नियम पर चलते हुए एक लय में आबद्ध रहते हैं। मिसाल के तौर पर सप्त स्वर और बाईस श्रुतियों का वैविध्य राग कहलाता है, एक सी जैनेटिक संरचना वाले जीव समाज या कुटुम्ब कहलाते हैं, एक ही पारिस्थितिकी के जीव एक ही संवर्ग में आते हैं और यूँही ग्रह-नक्षत्र वृन्द आदि-आदि। हर परिवेश का तत्त्व एक नियम से चलता है। हमारा समाज भी समय-समय पर सभ्यता और संस्कृति के दायरों में कुछ नियमों को गढ़ता है। समाज के ये नियम कैसे बनते हैं और कैसे लागू होते हैं, इनमें वस्तुतःअनुकरण का गणित काम करता है। हर संस्कृति, देश और काल में अनेक परम्पराएँ वहित होती रही हैं; परन्तु वे सदैव नैतिक और मानवीय ही रही हों ,यह नहीं कहा जा सकता। परदा-प्रथा, दास-प्रथा जैसी अनेक परम्पराएँ हैं जो नैतिक रूप से किसी भी प्रकार से समत्व पर नहीं ठहरती पर चलन के कारण वे प्रचलित और प्रसारित हुईं। इस प्रकार किसी भी भू-भाग पर परिचालित परम्पराओं का सात्त्विक पक्ष भी रहा तो विद्रूप पक्ष भी । ऐसी ही एक परम्परा है विवाह और कन्या-दानजिसका सात्त्विक पक्ष तो कन्या के लिए दान था परन्तु बाज़ारवाद, पश्चिनीकरण औऱ आधुनिकता के दखल ने इस परम्परा को दिखावे और अपव्यय के पर्याय में बदल कर रख दिया।
भारतीय समाज में विवाह या पाणिग्रहण संस्कार जन्म-जन्मान्तर का एक पावन उत्सव है, जो सहज और अनौपचारिक वातावरण से प्रगाढ़ होता है। सहजता का यह वासंती उत्सव आज बाज़ार की चकाचौंध में अपव्यय की मिसाल बनता जा रहा है। आमंत्रण पत्र से लेकर डोली सजने तक की घटना-प्रघटना भव्यता के इतने मोड़ो से होकर गुजरती है कि उस पर होने वाले खर्च का अनुमान लगाना मुश्किल ही नहीं कल्पनातीत भी हो जाता है। ऐसे ही भव्य आयोजनों की सोशल मीडिया पर प्रसारित तसवीरें और सीधा प्रसारण जहाँ एक वर्ग के लिए आमदनी का माध्यम बन जाता है तो दूसरे वर्ग पर वह नकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर भी डालता है। यह चलन दिखावे की संस्कृति को तो बढ़ाता ही है वरन् सहज रिश्तों में भी अपेक्षाओं का आधिक्य उत्पन्न करता है।
ऐसा नहीं है कि सादगी और मितव्ययता से शादियाँ नहीं हो रहीं हैं ;परन्तु चिंतनीय पक्ष यह है कि उनका अनुपात बहुत कम है। फिर आकर्षण के नियम के काम नहीं करने के कारण ऐसी प्रेरक बातों का प्रचार-प्रसार भी उतना अधिक नहीं हो पाता। वर्तमान समाज में राजनीति, सिनेमा(फिल्म) और बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों के साथ-साथ आम परिवारों में भी शादियों में बेवजह का खर्च और दिशावा आम बात हो गई है। शादियों की इस फिजूलखर्ची को सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा से इस क़दर जोड़ दिया गया है कि किफायती या मितव्ययी सोच से भरा आयोजन करने का विचार ही एक कमतरी का अहसास पैदा कर देता है। खर्चीली शादियाँ एक वर्ग पर अनावश्यक बोझ और दबाव डालती हैं क्योंकि सामाजिक मनोविज्ञान इस दबाव को सहन करता है। वर्तमान प्रवृत्ति पर यदि नज़र डालें तो भव्यता और चकाचौंध की पृष्ठभूमि का बेहिसाब खर्च स्वतः ही सामने आ जाता है। थीम बेस्ड, विशेष वातारवरण और दृश्यजन्य कौतूहल पैदा करने में ये शादियाँ मानवीय सरोकारों को ताक में रख देती है। यह ठीक है कि विवाह जीवन का अविस्मरणीय पल है परन्तु फिजूलखर्ची रोक कर इस पर्व की ऊष्मा को बढ़ाया जा सकता है ;परन्तु दुःखद है कि ऐसा हो नहीं पा रहा।
पश्चिमी संस्कृति से चालित हमारा समाज वर्तमान दौर में अतिउपभोक्तावाद की ओर अग्रसर हो रहा है, नतीज़ा हमारी संस्कृति की सहजता, हमारे रस्मों रिवाज़ो से कहीं दूर छिटक गयी हैं। एक तरफ़ जहां शादियों में दिखावे की चमक हैं औऱ सिक्कों की बरसात होती नज़र आती हैं वहीं मानवीय संवेदनाओं को क्षणविशेष के लिए बिसरा दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह दिखावे की संस्कृति केवल और केवल आधुनिक समाज और नगरीय संस्कृति का ही हिस्सा है वरन् ग्रामीण परिवेश में भी आन-बान-शान की रक्षा के लिए समूचे गाँव और खेड़ों को संतुष्ट करने हेतु भव्य आयोजनों का आज भी चलन है। ग्रामीण संस्कृति में स्वर्णाभूषणों व अन्य भेंट को किलों व लाखों में देने का चलन है और यह चलन परम्परा के रूप में इस क़दर रूढ हो गया है कि वह प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जाने लगा है। मध्यवर्गीय युवा व नौकरीपेशा आमजन परम्परा के इस विद्रूप पक्ष के निर्वहन में अपनी बचत और आय के एक बहुत बड़े भाग की आहूति तक दे बैठता है।
न्यू वर्ल्ड वेल्थ की रिपोर्ट देखें तो दुनिया के सबसे धनी देशों की सूची में भारत को छठा स्थान प्राप्त हुआ है। रिपोर्ट में भारत को 2017 में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला संपत्ति बाज़ार भी बताया गया है। उल्लेखनीय है कि दुनिया के 10 धनी देशों में भारत का स्थान व्यापक तौर पर उसकी आबादी के कारण है। दूसरी तरफ 2018 के बहुआयामी वैश्विक गरीबी सूचकांक (एमपीआई) की हालिया रिपोर्ट कहती है कि 132 करोड़ की आबादी वाले भारत में अभी भी 21 फीसदी अर्थात् अमूमन 7 करोड़ 30 लाख लोग गरीब हैं । यद्यपि यह आँकड़ा आशान्वित भी करता है कि बीते वर्षों की तुलना में भारत से 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर भी निकल गए हैं ; परन्तु आर्थिक वैषम्य की यह खाई अभी भी मौजूद है। भारत के बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में गरीबों की संख्या सर्वाधिक है जहाँ उन्हें दो वक्त का खाना भी मुश्किल से उपलब्ध हो पाता है।
इस सभी आँकड़ों के मद्देनज़र कहा जा सकता है दस भारतीयों में से एक भारतीय अभी भी गरीब है और आर्थिक वैषम्यता के इस वैपरीत्य में भव्यता और दिखावे की चकाचौंध पर इस बेवजह खर्चे पर पुनर्विचार और मंथन करने की आवश्यकता है। समाज में एक ओर तो भव्य आयोजनों की शृंखला है दूसरी ओर बुनियादी आवश्यकताओं को तरसते सामान्य जन। वंचितों की आपबीती के जाने कितने निरीह पर अकाट्य तर्क हैं जो आयोजनों की इस चौंध को धता बताते नज़र आते हैं।
समाज या आम जनता के जो नायक हैं वे समृद्धि , सम्पन्ता और वैभव का प्रदर्शन कर युवमन और समाज को एक स्वप्नलोक में ले जाते हैं, जिसकी परिणति या तो फिजूलखर्ची में होती है या माता-पिता व परिवार पर अतिरिक्त आर्थिक दबाव के रूप में।अन्न, धन , सुविधाओं व संसाधनों का अंधाधुध निवेश व्यापार में भी भ्रष्टाचारी और मिलावट को बढ़ाता है। खपत, माँग और उपलब्धता का एक तय समीकरण होता है अगर वहाँ सामंजस्य नहीं है और माँग अधिक है तो उस माँग की आपूर्ति मिलावट से ही पूर्ण होती है। भाँति-भाँति के पकवानों से सजे ये आयोजन अन्न की बर्बादी का हेतु बनते हैं। खाद्य मंत्रालय की रपट के अनुसार वैवाहिक आयोजन में बनने वाले खाने का लगभग 20 फीसदी भाग तो व्यर्थ ही बेकार हो जाता है। लेन-देन के बढ़ते चलन और देखादेखी के प्रचलन ने मध्यवर्ग के कंधों पर बोझ बढ़ा दिया है।
होना यह चाहिए कि समाज का नेतृत्व करने वाले वर्ग कोअमीरों और गरीबों की आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाए रखे का प्रयास किया जाए। धन को समाज और देश के हित में लगाया जाए। संसाधनों को एक योजना बनाकर निवेश किया जाए ताकि अनावश्यक खर्च और संसाधनों की बर्बादी से बचा जा सके। देश के युवा सपनीली दुनिया सजाने की बजाय यथार्थ की दुनिया को सुंदर बनाने की नज़ीर पेश कर अन्य लोगों के लिए आदर्श बनें । युवाओं के साथ-साथ सरकारों को भी इस बिन्दु पर दखल देना चाहिए । हाल ही में दिल्ली सरकार की एक सराहनीय योजना सामने आई है जिसमें वे लोगों को ट्रेफ़िक जाम से निजात दिलाने और खाने और पानी की बर्बादी रोकने के लिए शादियों में आने वाले मेहमानों की संख्या तय करेंगे। निःसंदेह ऐसे क़दम गरीबी और अमीरी के बीच संतुलन स्थापित कर सकते हैं। कई-कई दिनों तक चलने वाले शृंखलाबद्ध आयोजनों के स्थान पर कम लोगों, दिखावेरहित और छोटे आयोजन अपव्यय को रोकने में कारगर हो सकते हैं। भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाएँ काम कर रही हैं । ऐसे में आयोजक उनसे समय पर सम्पर्क साध भोजन को उन अनाथालयों, वृद्धाश्रमों या उन लोगों तक भी पहुँचा सकते हैं जिन्हें उसकी वास्तल में जरूरत है। इस हर मनव्यापी समस्या का समाधान और निराकरण सामूहिक और प्रतिबद्ध चिंतन में ही निहित है अतः हर व्यक्ति को इस दिशा में सोचना होगा।
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