ज़रूरी है जड़ों की सहेजन ताकि परिन्दें बैखोफ़ उड़ते रहें
बरेलवी साहब का कहन है, थके हारे परिन्दें जब घरौंदों की ओर रूख करते हैं तो सलीकेमंद शाखाएँ ही उन्हें संभालकर उनकी थकन को स्नेह की थपकियाँ देती हैं। बड़े, जो वटवृक्ष की मानिंद हमें सुरक्षा का अहसास देते रहते हैं, गर ना हो तो जीवन कितना दिशाहीन हो जाएगा, यह सोच ही भय पैदा करता है। किसी ने ठीक ही कहा है, अनुभव की पोटलियों से जब ज्ञान बूँद-बूँद रिसता है तो वह जीवन दर्शन की लकीरें बन, मिसाल बन जाता है। वृद्धजन जिन्हें हम हमारे अग्रज,बड़ेरे, विरासत या थाती कहकर पुकारते हैं, दरअसल वो हमारी संस्कृति के पुरोधा हैं। कितना सुखद होता है ना कि, सांझबाती सा कोई जलता रहता है, हमारी देहरी पर और हम सुकून से उसके सकारात्मक उजास में जीते रहते हैं। हमारे बड़ेरे, वृद्ध हमारी थाती है। अगर वृद्ध ना हो तो नयी पीढ़ी विभ्रमित हो जाएगी शायद इसीलिए वेद और स्मृतियों ने भी बुजुर्गों के सम्मान की बात कही है।
वृद्ध हमारी जिम्मेदारी नहीं वरन् आवश्यकता है
विभिन्न अवस्थाओं से गुज़रता हुआ मानव शरीर उत्तरोत्तर विकास करता है। सूर्य की ही भाँति जीवन का अरूणोदय होता है और उसी की भाँति मध्यम हो अस्ताचल भी। संभवतः इसी कारण कार्ल युंग ने वृद्धावस्था की तुलना डूबते हुए सूर्य से की है;निस्तेज, एकाकी और डूब की ओर बढ़ता हुआ जीवन। यह बिम्ब और सोच ही मन में एक उथल-पुथल मचा देती है तो फिर इस अवस्था को तमाम वैपरीत्य के बीच जीना कितना दुभर होता होगा, कल्पना से परे है। इसी असहाय और अरक्षित स्थिति के कारण वेद भी इस अवस्था विशेष में परिवार तथा संतति की भूमिका और जवाबदेही तय करते हैं। हमारे वेदों और स्मृतियों में आयुवृद्ध, कुलवृद्ध,शीलवृद्ध और ज्ञानवृद्ध जैसी अनेक महत्ती अवधारणाएँ मिलती हैं। मनुस्मृति में इस अनुभवी वर्ग के प्रति श्रद्धाभाव इस प्रकार व्यक्त किया गया है- अभिवादन शीलस्य नित्यवृद्धोपसेविनः,चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥ (मनुस्मृति २-१२१, उद्योगपर्व ३९/७४)
अर्थात् नित्य गुरुजनों का अभिवादन और बड़ों की सेवा करने से आयु, विद्या, यश एवं आत्मबल की प्राप्ति होती है ।
निःसंदेह वृद्ध हमारे समाज की धुरी हैं। कोई भी परिवार उनके अभाव में मानवीय उच्चों को नहीं छू सकता। हमारे पुरोधा हमें ना केवल अपने अनुभवों से हमें जीवन जीने की अमूल्य सीख दे देते हैं, वहीं भावनात्मक टूटन पर अपने नेह की मरहम भी लगाते हैं। बड़ों की छाँव वटवृक्ष सी होती है, स्नेहिल, हरियल जिसमें हर थकन दूर होती नज़र आती है।
आधुनिकता की बयार में रीतती संबंधों की ऊष्मा
आज तकनीक, आधुनिकतावाद और बाज़ारवाद की मजबूरियों ने मनुष्य को मनुष्य से दूर कर दिया है। देश, समाज और परिवार को अपना पूरा जीवन दे देने वाले बुजुर्ग, अपनी ही संतति से दूर हो अकेले हो गए हैं। कई बार उनका अकेलापन इतना क्रूर नज़र आता है कि उनके दुनिया से लौट जाने की खबर भी खबर बन कर ही सामने आती है। बुजुर्गों का अकेलापन, उनकी समस्याएँ और उनके प्रति समाज की उदासीनता आज के संवेदनहीन समय की कड़वी सच्चाई है। अनुभवों की इस हरियल ओट को सूखता देख प्रसाद की ये पंक्तियाँ अनायास ही जेहन में उमड़ती हैं-“ अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है, क्या वह केवल अवसाद मलिन झरते आँसू की माला है?”
गुड़ सी मीठी और दर्द के नमकीन से पगी स्मृतियाँ
वृद्धावस्था जिसे हम जीवन का सांध्य कहते हैं, वह किसी दिवस का अंत जैसा कतई नहीं है। दरअसल हमारा नज़रिया, सामाजिक व्यवहार और अपनों की बेरूखी ही इस अवस्था के प्रति यह सोच प्रदान करती है। वृद्धावस्था का सच्चा आनंद है, आत्म-संतोष। वृद्धावस्था शरीर को ज़रूर जीर्ण-शीर्ण कर देती है, पर मन को नहीं कर सकती। रस्किन बांड जैसे अनेक जीवंत उदाहरण है, जिनके उत्साह को वृद्धावस्था लील नहीं सकी है, वरन् उनके अनुभव का उजास उनकी ढलती उम्र में भी एक अद्भुत गरिमा के साथ उनके व्यक्तित्व में नज़र आता है। जीवन की संध्या दर्द निवारकों के साथ-साथ अपने साथ एक अपूर्व श्री भी लाती है । कितना सुखद है कि मन में भावों का मृदु समीर सांस दर सांस हिलोरे लेता रहता है और स्मृतिअंचल पर चाँद-तारों से सजी गुड़ में पगी तो कभी कुछ नमकीन, स्मृतियाँ ऊभ-चूभ होती रहती है। यह सच है कि हर अवस्था के अपने सुख और दुख हैं परन्तु चूँकि यह अवस्था कुछ हद तक दूसरों पर आश्रित है , अतः सामाजिक जवाबदेही सुनिश्चित करना ज़रूरी आवश्यकता बन जाती है।
जनसांख्यिकी और सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य
आँकड़ों की माने तो समाज में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है। 2026 तक भारत में वरिष्ठजनों की आबादी 10.38 करोड़ से बढ़कर 17.32 करोड़ हो जाने का अनुमान है। बदलते समय में मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः की परंपरा वाले हमारे आर्य देश में बुजुर्गों की स्थिति शोचनीय है। यूनाइटेड नेशंस पोपुलेशन फंड की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 फीसदी बुजुर्ग लोगों को सम्मान की ज़िंदगी जीने के लिए ताउम्र काम करना पड़ता है। रिपोर्ट का दुखद पक्ष यह भी है कि साढ़े पाँच करोड़ बुजुर्ग लोग रोज़ाना रात को भूखे पेट सोते हैं और हर 8 में से 1 बुजुर्ग अवसाद और एकाकीपन के चरम पर जीता है। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ्य संगठन, बार-बार वरिष्ठनागरिकों की समस्याओं की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। ये संगठन सरकारों और समाज को बार-बार चेताते हैं कि इस दिशा में नए विकल्पों और राहतों को खोजना होगा, परस्पर सहयोग और सद्भाव को बढ़ाने का प्रयास करना होगा नहीं तो मशीनीकृत होती संवेदनाओं के इस युग में यह वर्ग नितांत एकाकी और कुंठायुक्त जीवन जीने को बाध्य हो जाएगा।
बदलता सामाजिक ढ़ाँचा
भारत में पारिवारिक ढाँचा जिसका आधार सहजीवन और सहभागिता था , अब तेजी से बदल रहा है। संयुक्त परिवार व्यवस्था से जुड़े परिवार अब तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। यही कारण है कि वृद्धों के लिए संरक्षण व्यवस्था अब समाप्त हो रही है। आय के लिए देश की सीमाओं को लाँघ कर जाने वाले विकल्पों ने इस वर्ग को नितांत अकेला कर दिया है। वर्तमान में देश में हज़ार से अधिक वृद्धाश्रम पंजीकृत हैं। इनमें से 278 बीमार बुजुर्गों के लिए हैं जबकि 101 विशेषतौर पर बुजुर्ग महिलाओं के लिए हैं। 1999 में केंद्र सरकार ने बुजुर्गों के लिए राष्ट्रीय नीति की घोषणा की है, जिसके अंतर्गत स्वास्थ्य,सुरक्षा और सुचारू जीवन को ध्यान में रखते हुए अनेक सुविधाओं का ख्याल रखा गया है। 2007 में आए मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सीटिजन्स एक्ट के तहत वृद्ध संरक्षण को कानूनी जिम्मेदारी का जामा पहनाया गया। अनेक ऐसे कानून बन रहे हैं जो साधनहीन बुजुर्गों को उचित गुजारा भत्ता , आश्रय , चिकित्सा सुविधा और मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं परन्तु अभी भी जमीनी स्तर पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है। हमारी सरकारों को वरिष्ठजनों की सुविधाओं से जुड़े मुद्दों पर त्वरित कार्रवाई और निर्णय लेने होंगे ताकि उन्हें कम से कम परेशानी उठानी पड़े। बैंक, रेल्वे स्टेशन आदि सार्वजनिक स्थलों तथा सरकारी कार्यस्थलों पर उनकी सुविधाओं का विशेष ख्याल रखते हुए व्यवस्थाएँ करनी होंगी, ताकि उनका जीवन सुचारू रूप से अपनी यात्रा करता रहे।
एकाकी जीवन जीने और उपेक्षा का शिकार हैं वरिष्ठजन
चिंता का विषय है कि आज यह अनुभवी वर्ग सर्वाधिक कुंठाग्रस्त है। यह वर्ग आहत है कि जीवन का व्यापक अनुभव होते हुए तथा जीवन पर्यन्त अपनों के लिए सुख- सुविधा जुटाते हुए खुद को होम करने पर भी उन्हें उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। स्वयं को अनुत्पादक और निष्प्रयोज्य समझे जाने पर यह वर्ग दुःखी होता है और सतत एकाकी जीवन जीने तथा जीवन के मौन छोर की ओर बढ़ने को बाध्य हो जाता है। हालांकि हमारे संविधान में वृद्ध जनों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की गई है साथ ही उन्हें कई कानूनी अधिकार भी प्रदान किए गए हैं।परन्तु इन अधिकारों के साथ-साथ उन्हें भावनात्मक , मनोवैज्ञानिक एवं आर्थिक संरक्षण भी प्रदान करना होगा जिससे वे मानसिक एवं शारीरिक शोषण से बच सकें। बच्चों में छुटपन से ही वृद्धों के प्रति आदर और देखभाल के बीज रोपने होंगे । परिवार महत्वपूर्ण निर्णयों में वृद्ध जनों को शामिल कर उन्हें उनकी महत्ता का विश्वास सहज ही दिला सकता है। बातें यूँ बहुत छोटी-छोटी हैं परन्तु सहयोग के लिए नयी पीढ़ी को ही सधैर्य आगे आना होगा क्योंकि अनुभव के इन आशीष देते हाथों की हर परिवार को सतत आवश्यकता है। वृद्धों के प्रति सही दृष्टिकोण तथा सकारात्मक सोच ही अनुभव के इन ख़जानों को अधिक समय तक सजग बनाए रखने में कारगर हो सकती है।
बरेलवी साहब का कहन है, थके हारे परिन्दें जब घरौंदों की ओर रूख करते हैं तो सलीकेमंद शाखाएँ ही उन्हें संभालकर उनकी थकन को स्नेह की थपकियाँ देती हैं। बड़े, जो वटवृक्ष की मानिंद हमें सुरक्षा का अहसास देते रहते हैं, गर ना हो तो जीवन कितना दिशाहीन हो जाएगा, यह सोच ही भय पैदा करता है। किसी ने ठीक ही कहा है, अनुभव की पोटलियों से जब ज्ञान बूँद-बूँद रिसता है तो वह जीवन दर्शन की लकीरें बन, मिसाल बन जाता है। वृद्धजन जिन्हें हम हमारे अग्रज,बड़ेरे, विरासत या थाती कहकर पुकारते हैं, दरअसल वो हमारी संस्कृति के पुरोधा हैं। कितना सुखद होता है ना कि, सांझबाती सा कोई जलता रहता है, हमारी देहरी पर और हम सुकून से उसके सकारात्मक उजास में जीते रहते हैं। हमारे बड़ेरे, वृद्ध हमारी थाती है। अगर वृद्ध ना हो तो नयी पीढ़ी विभ्रमित हो जाएगी शायद इसीलिए वेद और स्मृतियों ने भी बुजुर्गों के सम्मान की बात कही है।
वृद्ध हमारी जिम्मेदारी नहीं वरन् आवश्यकता है
विभिन्न अवस्थाओं से गुज़रता हुआ मानव शरीर उत्तरोत्तर विकास करता है। सूर्य की ही भाँति जीवन का अरूणोदय होता है और उसी की भाँति मध्यम हो अस्ताचल भी। संभवतः इसी कारण कार्ल युंग ने वृद्धावस्था की तुलना डूबते हुए सूर्य से की है;निस्तेज, एकाकी और डूब की ओर बढ़ता हुआ जीवन। यह बिम्ब और सोच ही मन में एक उथल-पुथल मचा देती है तो फिर इस अवस्था को तमाम वैपरीत्य के बीच जीना कितना दुभर होता होगा, कल्पना से परे है। इसी असहाय और अरक्षित स्थिति के कारण वेद भी इस अवस्था विशेष में परिवार तथा संतति की भूमिका और जवाबदेही तय करते हैं। हमारे वेदों और स्मृतियों में आयुवृद्ध, कुलवृद्ध,शीलवृद्ध और ज्ञानवृद्ध जैसी अनेक महत्ती अवधारणाएँ मिलती हैं। मनुस्मृति में इस अनुभवी वर्ग के प्रति श्रद्धाभाव इस प्रकार व्यक्त किया गया है- अभिवादन शीलस्य नित्यवृद्धोपसेविनः,चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥ (मनुस्मृति २-१२१, उद्योगपर्व ३९/७४)
अर्थात् नित्य गुरुजनों का अभिवादन और बड़ों की सेवा करने से आयु, विद्या, यश एवं आत्मबल की प्राप्ति होती है ।
निःसंदेह वृद्ध हमारे समाज की धुरी हैं। कोई भी परिवार उनके अभाव में मानवीय उच्चों को नहीं छू सकता। हमारे पुरोधा हमें ना केवल अपने अनुभवों से हमें जीवन जीने की अमूल्य सीख दे देते हैं, वहीं भावनात्मक टूटन पर अपने नेह की मरहम भी लगाते हैं। बड़ों की छाँव वटवृक्ष सी होती है, स्नेहिल, हरियल जिसमें हर थकन दूर होती नज़र आती है।
आधुनिकता की बयार में रीतती संबंधों की ऊष्मा
आज तकनीक, आधुनिकतावाद और बाज़ारवाद की मजबूरियों ने मनुष्य को मनुष्य से दूर कर दिया है। देश, समाज और परिवार को अपना पूरा जीवन दे देने वाले बुजुर्ग, अपनी ही संतति से दूर हो अकेले हो गए हैं। कई बार उनका अकेलापन इतना क्रूर नज़र आता है कि उनके दुनिया से लौट जाने की खबर भी खबर बन कर ही सामने आती है। बुजुर्गों का अकेलापन, उनकी समस्याएँ और उनके प्रति समाज की उदासीनता आज के संवेदनहीन समय की कड़वी सच्चाई है। अनुभवों की इस हरियल ओट को सूखता देख प्रसाद की ये पंक्तियाँ अनायास ही जेहन में उमड़ती हैं-“ अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है, क्या वह केवल अवसाद मलिन झरते आँसू की माला है?”
गुड़ सी मीठी और दर्द के नमकीन से पगी स्मृतियाँ
वृद्धावस्था जिसे हम जीवन का सांध्य कहते हैं, वह किसी दिवस का अंत जैसा कतई नहीं है। दरअसल हमारा नज़रिया, सामाजिक व्यवहार और अपनों की बेरूखी ही इस अवस्था के प्रति यह सोच प्रदान करती है। वृद्धावस्था का सच्चा आनंद है, आत्म-संतोष। वृद्धावस्था शरीर को ज़रूर जीर्ण-शीर्ण कर देती है, पर मन को नहीं कर सकती। रस्किन बांड जैसे अनेक जीवंत उदाहरण है, जिनके उत्साह को वृद्धावस्था लील नहीं सकी है, वरन् उनके अनुभव का उजास उनकी ढलती उम्र में भी एक अद्भुत गरिमा के साथ उनके व्यक्तित्व में नज़र आता है। जीवन की संध्या दर्द निवारकों के साथ-साथ अपने साथ एक अपूर्व श्री भी लाती है । कितना सुखद है कि मन में भावों का मृदु समीर सांस दर सांस हिलोरे लेता रहता है और स्मृतिअंचल पर चाँद-तारों से सजी गुड़ में पगी तो कभी कुछ नमकीन, स्मृतियाँ ऊभ-चूभ होती रहती है। यह सच है कि हर अवस्था के अपने सुख और दुख हैं परन्तु चूँकि यह अवस्था कुछ हद तक दूसरों पर आश्रित है , अतः सामाजिक जवाबदेही सुनिश्चित करना ज़रूरी आवश्यकता बन जाती है।
जनसांख्यिकी और सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य
आँकड़ों की माने तो समाज में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है। 2026 तक भारत में वरिष्ठजनों की आबादी 10.38 करोड़ से बढ़कर 17.32 करोड़ हो जाने का अनुमान है। बदलते समय में मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः की परंपरा वाले हमारे आर्य देश में बुजुर्गों की स्थिति शोचनीय है। यूनाइटेड नेशंस पोपुलेशन फंड की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 फीसदी बुजुर्ग लोगों को सम्मान की ज़िंदगी जीने के लिए ताउम्र काम करना पड़ता है। रिपोर्ट का दुखद पक्ष यह भी है कि साढ़े पाँच करोड़ बुजुर्ग लोग रोज़ाना रात को भूखे पेट सोते हैं और हर 8 में से 1 बुजुर्ग अवसाद और एकाकीपन के चरम पर जीता है। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ्य संगठन, बार-बार वरिष्ठनागरिकों की समस्याओं की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। ये संगठन सरकारों और समाज को बार-बार चेताते हैं कि इस दिशा में नए विकल्पों और राहतों को खोजना होगा, परस्पर सहयोग और सद्भाव को बढ़ाने का प्रयास करना होगा नहीं तो मशीनीकृत होती संवेदनाओं के इस युग में यह वर्ग नितांत एकाकी और कुंठायुक्त जीवन जीने को बाध्य हो जाएगा।
बदलता सामाजिक ढ़ाँचा
भारत में पारिवारिक ढाँचा जिसका आधार सहजीवन और सहभागिता था , अब तेजी से बदल रहा है। संयुक्त परिवार व्यवस्था से जुड़े परिवार अब तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। यही कारण है कि वृद्धों के लिए संरक्षण व्यवस्था अब समाप्त हो रही है। आय के लिए देश की सीमाओं को लाँघ कर जाने वाले विकल्पों ने इस वर्ग को नितांत अकेला कर दिया है। वर्तमान में देश में हज़ार से अधिक वृद्धाश्रम पंजीकृत हैं। इनमें से 278 बीमार बुजुर्गों के लिए हैं जबकि 101 विशेषतौर पर बुजुर्ग महिलाओं के लिए हैं। 1999 में केंद्र सरकार ने बुजुर्गों के लिए राष्ट्रीय नीति की घोषणा की है, जिसके अंतर्गत स्वास्थ्य,सुरक्षा और सुचारू जीवन को ध्यान में रखते हुए अनेक सुविधाओं का ख्याल रखा गया है। 2007 में आए मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सीटिजन्स एक्ट के तहत वृद्ध संरक्षण को कानूनी जिम्मेदारी का जामा पहनाया गया। अनेक ऐसे कानून बन रहे हैं जो साधनहीन बुजुर्गों को उचित गुजारा भत्ता , आश्रय , चिकित्सा सुविधा और मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं परन्तु अभी भी जमीनी स्तर पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है। हमारी सरकारों को वरिष्ठजनों की सुविधाओं से जुड़े मुद्दों पर त्वरित कार्रवाई और निर्णय लेने होंगे ताकि उन्हें कम से कम परेशानी उठानी पड़े। बैंक, रेल्वे स्टेशन आदि सार्वजनिक स्थलों तथा सरकारी कार्यस्थलों पर उनकी सुविधाओं का विशेष ख्याल रखते हुए व्यवस्थाएँ करनी होंगी, ताकि उनका जीवन सुचारू रूप से अपनी यात्रा करता रहे।
एकाकी जीवन जीने और उपेक्षा का शिकार हैं वरिष्ठजन
चिंता का विषय है कि आज यह अनुभवी वर्ग सर्वाधिक कुंठाग्रस्त है। यह वर्ग आहत है कि जीवन का व्यापक अनुभव होते हुए तथा जीवन पर्यन्त अपनों के लिए सुख- सुविधा जुटाते हुए खुद को होम करने पर भी उन्हें उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। स्वयं को अनुत्पादक और निष्प्रयोज्य समझे जाने पर यह वर्ग दुःखी होता है और सतत एकाकी जीवन जीने तथा जीवन के मौन छोर की ओर बढ़ने को बाध्य हो जाता है। हालांकि हमारे संविधान में वृद्ध जनों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की गई है साथ ही उन्हें कई कानूनी अधिकार भी प्रदान किए गए हैं।परन्तु इन अधिकारों के साथ-साथ उन्हें भावनात्मक , मनोवैज्ञानिक एवं आर्थिक संरक्षण भी प्रदान करना होगा जिससे वे मानसिक एवं शारीरिक शोषण से बच सकें। बच्चों में छुटपन से ही वृद्धों के प्रति आदर और देखभाल के बीज रोपने होंगे । परिवार महत्वपूर्ण निर्णयों में वृद्ध जनों को शामिल कर उन्हें उनकी महत्ता का विश्वास सहज ही दिला सकता है। बातें यूँ बहुत छोटी-छोटी हैं परन्तु सहयोग के लिए नयी पीढ़ी को ही सधैर्य आगे आना होगा क्योंकि अनुभव के इन आशीष देते हाथों की हर परिवार को सतत आवश्यकता है। वृद्धों के प्रति सही दृष्टिकोण तथा सकारात्मक सोच ही अनुभव के इन ख़जानों को अधिक समय तक सजग बनाए रखने में कारगर हो सकती है।
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