विदा की देहरी पर बेटियाँ
बेटियाँ देहरी उघाँलते वक्त
सिर्फ आशीष नहीं बिखेरती
अपने मेहंदी रचे हाथों से
वरन् समेट रही होती हैं
एक साथ बहुत कुछ
अपनी विक्षिप्त मनःस्थिति में।
बरसते आँसुओं में
वे कोरों से चुपचाप पकड़ती हैं
उसी देहरी पर देरतलक ठिठकी पदचापें
स्वर्ण मृग सी चपल और सुंदर स्मृतियाँ
और थेले में लौटती सारी दुनिया की खुश सौगातें
अपनी सुबकती हिचकियों में
वे बार-बार अनुरोध करती है
तैतीस करोड़ देवताओं से
माँ बाबा की छाँव में कुछ और देर रूके रहने का
ताकि थामे रहे भाई के हाथ को देरतलक
और बहन से लिपट कर
गला दे तमाम शिकवे
मीठी चुहलबाजियों के
आशाओं और इच्छाओं के भँवर में
वे लौटती हैं उस चंदन के पालने पर
जिसकी डोरी का रेशम
मन पर अब तलक बेहिसाब बिछलता है
जानते हो!
विदा होते वक्त
बेटी का दिल
पहाड़ सा होता है
भय की सिकुड़न और
परिस्थितियों को झेलने की विराटता को
एक साथ, चुपचाप सहेजे हुए!
- विमलेश शर्मा
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