Wednesday, May 31, 2017

सिसक रही हैं अनुभवों की कई पोटलियाँ....

वृद्ध हमारी जिम्मेदारी नहीं वरन् आवश्यकता हैं






विभिन्न अवस्थाओं से गुज़रता हुआ मानव शरीर उत्तरोत्तर विकास करता  है। सूर्य की ही भाँति जीवन का अरूणोदय होता है और उसी की भाँति मध्यम हो अस्ताचल भी। संभवतः इसी कारण कार्ल युंग ने वृद्धावस्था की तुलना डूबते हुए सूर्य से की है;निस्तेज, एकाकी और डूब की ओर बढ़ता हुआ जीवन। यह बिम्ब और सोच ही मन में एक उथल-पुथल मचा देती है तो फिर इस अवस्था को तमाम वैपरीत्य के बीच जीना कितना दुभर होता होगा, कल्पना से परे है। वेद भी इस अवस्था विशेष में परिवार तथा संतति की भूमिका और जवाबदेही तय करते हैं। परन्तु हाल-ए-जमाना कुछ और ही बयां करता है। खबर है कि सिने-जगत की क्लासिक फिल्म का दर्ज़ा प्राप्त पाकीज़ा की अभिनेत्री गीता कपूर को उनके बेटे ने अस्पताल में भर्ती कराकर वहीं लावारिस हालत में छोड़ दिया है। अस्पताल प्रशासन ने फीस के पैसे लेने गए उनके पुत्र और उनकी पुत्री से संपर्क साधने की  अनेक कोशिश भी की, पर नतीजा निराशाजनक ही रहा। गीता बताती हैं कि उनका पुत्र उनके साथ आए दिन मार-पीट करता है। उन्हें एक कमरे में बाँध कर रखा जाता है औऱ चार दिन में एक बार खाना दिया जाता है। गीता के वृद्धाश्रम जाने से मना कर देने पर हालात और विकट हो गए तथा  साथ ही उनकी नाजुक हालत के चलते ही उन्हें अस्पताल में लाया गया है। अस्पताल प्रशासन की भूमिका इस मामले में सराहनीय है कि वे गीता को इलाज और तमाम सुविधाएँ, उनकी नाजुक हालत के चलते मुहैया करा रहे हैं,  साथ ही एक शिकायत भी वे दर्ज़ करवा चुके हैं। राजस्थान के खींवसर गाँव से भी माँ की सेवा को लेकर पति-पत्नी में विवाद की ख़बर है। ये तमाम खबरें समाज का आईना हैं, हालांकि ऐसे कुछ ही वाकये सामने आ पाते हैं पर स्थितियाँ वाकई चिंताजनक हैं।
भारतीय संस्कृति में वृद्धों को सदैव धरोहर के रूप में देखा गया है। लोकरक्षक राम हो या आदर्श पुत्र के प्रतीक श्रवण कुमार सदैव मातृ-पितृ धर्म का निर्वहन करते हुए ही चित्रित किए गए हैं। बात आदर्शों तक ही सिमटी रहे तब तक तो ठीक परन्तु यथार्थ कुछ और ही बयां करता है। अनेक ऐसे मामले हैं जहाँ उन वृद्धों को जो धरोहर और अनुभव की खेप के रूप में हमारे बीच हैं, अनदेखी का सामना करना पड़ता है। कहा गया है कि वृद्धावस्था और बचपन एक जैसी अवस्था होती है ;जिद्दी,असहाय और अन्य पर निर्भर। यह मानने पर भी दोनों अवस्थाएँ समान ध्यानाकर्षण नहीं खींच पाती। बच्चों की शैतानियाँ, जिद जहाँ मन पर  फुहार सी बरसती है वहीं बड़ों की कमजोरियाँ कलहकारी हो जाती हैं। आखिर यह विरोधाभास क्यों है, इसे ठीक से समझना होगा।
गौरतलब है कि वृद्धों की समस्या पर सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र महासभा में अर्जेन्टीना ने विश्व का ध्यान आकर्षित किया था। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने तथा जागरूकता फैलाने के लिए 14 दिसम्बर 1990 को एक निर्णय के फलस्वरूप 1 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस घोषित किया। निःसंदेह दिन विशेष के  इस आग्रह में  वर्ग विशेष के लिए सम्मान की चिंता ही समाहित थी। आज हम औसत आयु पर नज़र डालें तो चिकित्सा और अन्य सुविधाओं के चलते, आंकड़ों के अनुसार औसत जीवन प्रत्याशा दर बढ़कर 70 वर्ष हो गई है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में औसत जीवन प्रत्याशा दर, वैश्विक जीवन प्रत्याशा दर 67.88 वर्ष की तुलना में 65.48 वर्ष थी। वांशिगटन यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट भी भारत में लोगों के औसत उम्र संबंधी बढ़े हुए मामलों को सहमति देती है।   जनसंख्या के आंकड़ों पर नज़र डाले तो 60 से अधिक आयु के लोगों की संख्या में वृद्धि भारत में 1961 से प्रारम्भ हुई। चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के चलते यह संख्या निरन्तर बढ़ रही है। 1991 में 60 वर्ष से अधिक आयु के 5 करोड़ 60 लाख व्यक्ति थे, जो 2007 तक बढ़कर  8 करोड़ 40 लाख हो गए। यह वृद्धि जहाँ शुभ संकेत है वहीं वृद्धों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ, उनके साथ होने वाले अपराध और उपेक्षा के मामलों में भी बढ़ोतरी हुई है। आधुनिक जीवन शैली और खानपान की मजबूरियों के चलते बहुत कम उम्र से ही लोगों को अनेक बीमारियाँ होने लगी है ऐसे में इस वर्ग की निर्भरता युवा वर्ग पर बढ़ जाती है।
वृद्ध व्यक्ति शारिरीक रूप से तो अक्षम होते ही हैं साथ ही उनमें अनेक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन भी होते हैं। आज की संस्कृति में बहुत कम बातें ऐसी हैं जो वृद्ध व्यक्ति के जीवन को सुखमय बनाती हैं। अपने प्रिय या अन्य किसी संबंधी का बिछोह भी उन्हें संवेगात्मक स्तर पर तोड़ कर रख देता है। वृद्ध व्यक्तियों के संवेगों का भाव पक्ष प्रबल होने की होने की अपेक्षा दुर्बल होता है। उनके व्यवहार का स्वरूप सामान्य स्फूर्ति और जोश में उमड़ पड़ने की अपेक्षा  रेगिस्तान में बहने वाली जलधारा के समान संकीर्ण होकर क्षीण हो जाता है। अनेक कुसमायोजनों से बचने के लिए वृद्धावस्था को सुगम और सुखी बनाने के प्रयास समाज और परिवार ही  कर सकता है।
आज के अधिकांश युवा एकाकी एवं आत्मकेन्द्रित जीवन जीने के अभ्यस्त हैं। उन्हें अपने इर्द-गिर्द किसी प्रौढ़ की उपस्थिति खटकती है। बिन माँगें दिशा-निर्देश और बात-बात में टोका-टाकी होने पर वह उनसे खास दूरी बना लेता है। आज अनेक परिवार आणविक परिवार हैं जिसमे अमूमन एक या दो बच्चे होते हैं। शिक्षा, व्यवसाय एव विवाह के पश्चात् उऩका आशियाना किसी ओर शहर या देश में हो जाता है औऱ पीछे छूट जाते हैं , वृद्ध माता- पिता। अनेक प्रसंगों में घर के अपने और पुत्र-पुत्री ही उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते नज़र आते हैं।  घटनाएँ साक्षी हैं जहाँ बुजुर्ग को या तो चारदीवारी में कैद कर दिया जाता है ,या उसके साथ हिंसक व्यवहार किया जाता है। सामाजिक प्रतिष्ठा तथा अपने अवस्थागत अधिकारों के प्रति अधिक सजग नहीं होने के कारण ऐसे वृद्ध नियति को ही अपना भाग्य मान कर ये अत्याचार सहते जाते हैं या फिर इच्छा, अनिच्छा से किसी वृद्धाश्रम की शरण ले लेते हैं।

चिंता का विषय है कि आज यह अनुभवी वर्ग सर्वाधिक कुंठाग्रस्त है। वह इस बात से आहत है कि जीवन का व्यापक अनुभव होते हुए तथा जीवन पर्यन्त अपनों के लिए सुख- सुविधा जुटाते हुए खुद को होम करने पर भी उन्हें उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। स्वयं को अनुत्पादक और निष्प्रयोज्य समझे जाने पर यह वर्ग दुःखी होता है और सतत एकाकी जीवन जीने तथा जीवन के मौन छोर की ओर बढ़ने को बाध्य हो जाता है। हालांकि हमारे संविधान में वृद्ध जनों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की गई है साथ ही उन्हें कई कानूनी अधिकार भी प्रदान किए गए हैं।परन्तु इन अधिकारों के साथ-साथ उन्हें भावनात्मक , मनोवैज्ञानिक एवं आर्थिक संरक्षण भी प्रदान करना होगा जिससे वे मानसिक एवं शारीरिक शोषण से बच सकें। बच्चों में छुटपन से ही वृद्धों के प्रति आदर और देखभाल के बीज रोपने होंगे । परिवार महत्वपूर्ण निर्णयों में वृद्ध जनों को शामिल कर उन्हें उनकी महत्ता का विश्वास सहज ही दिला सकता है। बातें यूँ , ये सभी बहुत छोटी-छोटी हैं परन्तु सहयोग के लिए युवाओं को ही आगे आना होगा क्योंकि अनुभव के इन आशीष देते हाथों की हर परिवार को सतत आवश्यकता  है। वृद्धों के प्रति सही दृष्टिकोण तथा सकारात्मक सोच अनुभव के इन ख़जानों को अधिक समय तक सजग बनाए रखने में कारगर हो सकती है। बहरहाल, सामूहिक प्रयास ही हमारी सांस्कृतिक जड़ों के क्षरण को रोकने में कारगर होंगे यही सोच लेकर समाज, परिवार और राज्य को एकसाथ आगे आना होगा।