हम एक हादसा भूला भी नहीं पाते हैं कि दूसरा मुँह बाए खड़ा हो जाता है। जयपुर के जामडोली विमंदित गृह की त्रासदी के बाद अब मोतों का सिलसिसा ज़ारी है अजमेर के जेएलएन अस्पताल में। यहाँ एक रात में चंद घंटों में लगातार छः नन्हीं मौतें होने के पश्चात् , थमी सांसों का यह आँकड़ा आठ तक पहुँच गया है। सवाल सिर्फ़ एक कि, क्या सिलसिलेवार हुई इन बंद सांसों का कारण, गंभीर बीमारी, महज़ इत्तफाक या नियति को ही माना जा सकता है?
यहाँ के सरकारी अस्पताल में संवेदनहीनता चरम पर है, नवजात लगातार दम तोड़ रहें हैं और उस पर यह बयानबाज़ी कि, ' बच्चे तो हमेशा मरेंगे, मृत्यु प्रकृति का नियम है' आमजन में रौष पैदा करने के लिए काफ़ी है। ऐसी घटनाएं घटती हैं, कुछ गोदें सूनी हो जाती है, कुछ आँसू घटना की अविश्वसनीयता पर ही थम जाते हैं और जान बचाने के खैरख्वाह कह डालते हैं कि मौत तो प्रकृति का नियम है। सीधा सीधा सवाल है उन तथाकथित रहनुमाओं से कि अगर मौत प्रकृति का नियम है तो आप आखिरकार किस जिम्मेदारी का वहन करने के लिए मोटी तनख्वाह ले रहे हैं।
गौरतलब है कि अजमेर के सरकारी अस्पताल की अव्यवस्थाओं पर यहाँ की पूर्व कलेक्टर आरूषि मलिक ने भी सवाल उठाए थे । निरीक्षण सदा से होते आए हैं औऱ उस समय व्यवस्थाएँ भी चाक चौबंद कर दी जाती है और उसके पश्चात् हालात वही ढाक के तीन पात। निरीक्षणों में कई बार खामियां पायी जाती है..उन खामियों पर कार्यवाहियों के पुलिंदे बंधते हैं पर अव्यवस्थाओं की सुरसा फिर भी अपना कद बढ़ाती ही जाती है। यहाँ के फटे बदहाल बैड और गंदगी का बेमाप प्रसार महज़ किसी एक सरकारी अस्पताल की तस्वीर नहीं है बल्कि राज्य भर के सरकारी अस्पताल इस दृष्टि से अपनी विशेष पहचान रखते हुए उभर रहे हैं।
अन्य घटनाओं की तरह ही इस घटना पर भी सवाल उठते हैं पर जाँच कमेटी चिकित्सकों को क्लीन चिट दे देती है। एक सीधा सीधा सवाल यह है कि रात में आखिरकार अस्पताल में कोई वरिष्ठ चिकित्सक मौजूद क्यों नहीं था। अगर नवजात शिशुओं की हालत वाकई नाज़ुक थी तो उन्हें आखिर किस के भरोसे छोड़ वे इत्मीनान की नींद लेने चले गए। सवाल यह भी है कि पहली मौत के बाद भी सतर्कता क्यों नहीं बरती गई। दरअसल अव्यवस्थाओं को खोजा जाए तो पहाड़ सा ढेर लग जाएगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि सारा सरकारी तंत्र निजी को ही प्रोत्साहित करने में अपनी ऊर्जा लगा रहा है।
वर्तमान में हर सरकारी महकमें का हाल यही है चाहे वह शिक्षा से जुड़ा हो या फिर स्वास्थ्य से। आम आदमी अनुभवी चिकित्सकों को देखकर तो वहीं निम्न वर्ग कम फीस जैसे कारणों औऱ विश्वसनीयता के चलते, इन अस्पतालों की ओर रूख करता है। एक नवजात जिसकी मौत हो चुकी है, के पिता का कहना है कि मेरी मति खराब हो गयी थी कि मैं उसे अजमेर लेकर आय़ा। सही है, लगातार घट रहे ऐसे हादसे अब खौफ पैदा करते हैं। चरम पर पसरी अव्यवस्थाओं और यमदूत बन बैठे चिकित्सकों को देख अस्पताल अब वाकई मौत की शरणस्थली बन गए हैं ।अब तो आलम यह है कि बीमार होने से ज़्यादा अस्पताल जाने से डर लगने लगा है।
यहाँ के ही टी. बी. अस्पताल में मरीज़ जिंदा जल जाता है। अस्पताल प्रशासन को यह तक पता नहीं रहता कि यहाँ कितने मरीज भर्ती है। कोई मरीज अगर गायब है तो वह कहाँ है औऱ क्यूँ है। यहां का जनाना अस्पताल प्रसूताओं की ठीक से देखभाल नहीं कर पाता। अस्पतालों में वरिष्ठ चिकित्सक और फर्स्ट ग्रेड स्टाफ नदारद रहता है ओर रेजिडेंट्स के सहारे अस्पतालों की रातें गुज़रती हैं । तो सोच लीजिए की शहर का मुख्य अस्पताल किन हालातों में और किस तरह से चल रहा है। यहाँ के वार्ड की सफाई व्यवस्था देख कर ही किसी स्वस्थ व्यक्ति को चक्कर आ सकते हैं और शौचालयों की स्थिति तो बयां भी नहीं की जा सकती । कहना होगा कि मौतों से जुड़े ये मामले सीधे – सीधे लापरवाहियों से जुड़े हैं औऱ ऐसे में दोष तो अस्पताल प्रशासन का ही ठहरता है।
आखिर क्यों लाख बार मुद्दे उठ जाने पर भी किसी सरकारी अस्पताल में सफाई व्यवस्था तक बरकरार नहीं रह पाती। आखिर क्यों निरीक्षण के चंद मिनटों पहले आई. सी. यू, का ऐसी ठीक किया जाता है और गंदी चादरों को बदला जाता है। अब तो यूँ लगता है कि हर महीने ही निरीक्षणों की अफवाह उड़ा देनी चाहिए जिससे कुछ समय के लिए ही सही व्यवस्थाएं सुचारू रूप से लागू तो हो जाएं। गौरतलब है कि अजमेर का सरकारी अस्पताल संभाग का मुख्य अस्पताल है , जहाँ पर नागौर ,नसीराबाद , ब्यावर तथा आस-पास के ग्रामीण इलाकों के अतिसंवेदशील मामले इसलिए रैफर किए जाते हैं कि वहाँ इन मौत से जूझती सांसों को कुछ कैफियत नसीब होगी पर हालात और नतीजे हमारे आपके सामने हैं। इन सब के बीच यह भी उल्लेख करना ज़रूरी है कि यहाँ का 6047 करोड़ का हैल्थ बजट है फिर भी शिशु मृत्यु दर में राजस्थान का देश में तीसरा स्थान है। इंडियास्पैंड ने पहले ही अपनी रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना में भारत का स्वास्थ्य देखभाल व्यय सबसे कम है।
माना सरकारी महकमों की अपनी कमियाँ है , बाध्यताएं हैं पर जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता से कतई मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। आखिर क्या कारण है कि वरिष्ठ चिकितसक घर पर रात दस- दस बजे तक अपनी जेबें गरम करने के लिए मरीजों की लंबी कतारों को निबटाते हैं और सरकारी अस्पतालों में चंद मरीजों के बढने पर ही झूँझला उठते हैं। तिस पर डॉक्टरों की ह्रदयहीन टिप्पणियां सुनसुनकर आहत मन छलनी हो उठता है।
शायद हालात यही रहेंगें, हम और आप यूँ ही गरियाते रहेंगे और सरकारी महकमें मौतों का नित नया कीर्तिमान यूंही खड़ा करते रहेंगे। ऐसे में राहत का विकल्प तलाश करते हम बेबसी में या तो शब्दों के माध्यम से अपना आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं या प्रार्थना कि किसी को भी इन अव्यवस्थाओं के आगारों का मुँह ही नहीं देखना पड़े जहाँ मौत अपना क्रूरतम खेल खेलती है।
चिंता की बात यह है कि हमारे प्रभु वर्ग को यह कभी नहीं लगता कि नियम कायदे और जिम्मेदारी से सारे काम करवाए जाए। अगर तुलना की जाए तो निजी क्षेत्रों में ऐसी घटनाओं से निबटने के लिए एक विशेष तंत्र गठित होता है और तमाम स्थितियाँ उन हाथों में रहती है आखिर क्यों नहीं एक तंत्र यहाँ भी विकसित किया जाए जो कि जवाबदेही तय करना जानता हो । आखिर क्यों ऐसे सभी मामले सरकारी महकमों से ही जुड़े होते हैं। इन त्रासदियों से समझ में आता है कि मामला सीधा – सीधा लापरवाही और संवेदनहीनता से जुड़ा है। हम चाहे कितनी ही प्रगति कर लें ,अगर इन जमीनी समस्याओं पर काबू नहीं पाया जा सकता तो हमारी आसमानी बुलंदियाँ वाकई बेमानी है। अगर आमजन राहत की साँस लेने में असमर्थ है , व्यावसायिक प्रतिबद्धता अगर संदेह के घरे में है तो इस खतरे की संस्कृति की और बढ़ने कदमों पर पुनर्विचार की सख्त ज़रूरत है।
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