Thursday, April 28, 2016

फैन- समीक्षा


                  आरोपित व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया - फैन
मानव मनोविज्ञान बड़ा अज़ीब होता है। किस मन के भीतर कितने तुफान छिपे है और कब कौनसे लम्हें किसी के ज़ज्बातों को इतना आहत कर बैठते है कि उसके मन में सालों का प्यार प्रतिशोध का सबब और एक जिद बन जाया करता है इसी विज्ञान को बयां करती है फैन फिल्म। प्यार औऱ  अपने प्रिय का  अपनी ओर ध्यान हर मन की एक ज़रूरी ख़ुराक होती है औऱ जब इसी बुनियादी खुराक का खारिज होना कोई बीमार मन झेलता है तो वह बन जाता है गौरव चांदना । इसी ताने बाने को लेकर बुनी गयी है यशराज बैनर की  सितारा जीवन पर केन्द्रित फ़िल्म फैन। हबीब फैजल अपने स्क्रीन प्ले और डायलोग्स से यहाँ खासा ध्यान खिंचते हैं वहीं मनीष शर्मा इस फ़िल्म को निर्देशित कर रहे हैं औऱ काफी हद तक इसे कहानी के अनुसार सही निर्देशन प्रदान करने में सफल भी  कहे जा सकते हैं। फिल्म एक कनैक्शन के इर्द- गिर्द बुनी गई है जिसे फैन के मुताबिक वाई- फाई और ब्लूटूथ से भी स्ट्रांग माना गया है।   फ़िल्म कई जगह कुछ कमज़ोर नजर आती है जहाँ फैन गौरव चांदना अतिमानवीय नज़र आता है परन्तु ठीक तभी शाहरूख एक अरसे बाद दमदार और नैसर्गिक किंग खान की भूमिका में लौटते नज़र आते हैं और उस किरदार में जान फूँक देते हैं।
सितारा कलाकारों औऱ उनके प्रशंसकों की अनेक कहाँनियाँ है जहाँ पर यह नज़र आता है कि किस तरह एक दूसरे के आरोपित व्यक्तित्व को इस कदर अपना लेता है कि उसका अपना तिरोहित हो जाता है। उस तिरोहित होने की प्रक्रिया में उस आरोपित व्यक्तित्व का प्रेम भी शामिल होता है। एक सनक व्यक्ति को अपराधी बना देती है और वही सनक एक सितारा व्यक्ति को अपने ही प्रशंसकों से एक खौफ़ पैदा कर देती है। यह फ़िल्म वस्तुतः दो ज़िदों की टकराहट है। एक तरफ़ मध्यवर्गीय मानसिकता है जो सितारा चकाचौंध से इस कदर ज़ुड़ जाती है कि उसके जीवन पर अपना अधिकार समझने लगती है। वहीं दूसरी तरफ़ स्टारडम व्यक्ति को मानवीय सरोकारों से कुछ दूर कर देती है परन्तु यहाँ यह रिक्तता नहीं कही जा सकती । क्योंकि स्टारडम पर एक सनक हावी है। फैन दोहरे व्यक्तित्व को जीता हुआ इस हद तक पहुँच जाता है कि सितार आर्यन खन्ना को नीचा दिखाने की ठान लेता है। हर खास और आम दर्शक कहानी को अपने नजरिए से देखता है, अनेक प्रसंग और कई दृश्यों की छाप ऐसी भी होती है जो उसके जीवन से जुड़ी होती है , संभवतः यह फिल्म भी अनेक ऐसे दृश्यों को परोसती हुई एक सिहरन भी पैदा करती है। फैन के रूप में गौरव चांदना एक प्रशंसक से  खलनायक की भूमिका  में तब्दील होता हुआ नज़र आता है वहीं उसके बीमार मन की कशमकश, असाहयता और झीनी उदासियाँ उसके प्रति अन्त तक एक सहानुभूति भरी पीड़ा दर्शक के मन में पैदा करती है । अंतिम दृश्य तक दर्शक एक सकारात्मकता की उम्मीद करता है परन्तु पीछे छूट जाती है , दो मनों की अपनी- अपनी जिद । इस जिद के कितने खौफ़नाक परिणाम हो सकते हैं शायद यही निर्देशक दिखाना चाहता है तभी अपने खौफ और सनक की में यह फिल्म अनेक स्थानों पर डर, बाजीगर और मनोज वाजपेयी द्वारा अभिनित रोड़   की याद दिला जाती है। इन्हीं की क्रमिकता को ज़ारी रखता हुआ फिल्म का आत्मघाती अंत एक निराशा को परोसता है। असल ज़िंदगी में ऐसे किरदार होते हैं जिनसे सामना करना उतना ही मुश्किल होता है जितना कि कोमल मन का पर्दे पर। कहानी औसत होते हुए भी यह तय है कि फिल्म शाहरूख के फैन्स को कतई निराश नहीं करेगी।

फ़िल्म कई संदेश देती हुई नज़र आती है। स्टारडम एक दीवार है जिसके भीतर सितारा जीवन के अपने कष्ट हैं। इन किरदारों की निजी जिन्दगी खुली किताब है। जिनके सच सभी को पता होते हैं और दर्द और क़टु अनुभव नितांत निजी। यह ऐसा जीवन है  जहाँ अनेक किस्से अनचाहे ही अश्वत्थामा के अर्धसत्य की तरह ही जुड़ जाते हैं। शाहरूख इस किरदार को शिद्दत से जीते हैं और पूरी नैसर्गिकता और सच्चाई के साथ। फिल्म के माध्यम से दिया गया यह संदेश कि मैं आपका स्टार हूँ औऱ आपका स्टार कोई गलत हरकत नहीं कर सकता , वास्तव में उस विश्वास को कायम रख जाता है जो कहीं ना कहीं सिनेमा हाल में बैठा या रंगमंच का भोक्ता साधारणीकरण की प्रक्रिया के तहत रसास्वादन कर अनुभूत करता है। सही मायने में कही जाए तो यह सिर्फ और सिर्फ शाहरूख की फिल्म है जिसे वे एक बार फिर अपने अभिनय की छाप मुक्कमल तरीके से छोड़ते हैं। 

Wednesday, April 13, 2016

समतावादी दर्शन के पुरोधा बाबा साहेब आंबेडकर

                         


बाबा साहेब को बहुजन राजनीति विचारक,विधिवेता और भारतीय संविधान के वास्तुकार के रूप में  भलिभांति जाना जाता है। आज जिस दलितोत्थान की बात हम करते हैं उसके लिए उन्होंने ही सर्वप्रथम दलितों और अन्य धार्मिक सम्प्रदायों के प्रति पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की । वे जीवन पर्यन्त दलित वर्ग में शिक्षा के प्रसार और उनके उत्थान के लिए काम करते रहे।  हमारा समाज आज अनेक सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों के विषम दौर से गुजर रहा है और इसी कारण मानव जीवन एक विचित्र स्थिति में आ पहुँचा है। निरन्तर असंतोष तथा नैराश्य स्त्री पुरूषों के मन में फैल रहे हैं। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में जीवन मूल्य आज हाशिए पर पहुँच गए हैं। हर व्यक्ति अपने कर्म क्षेत्र से मुँह मोड़ कर स्वछंद हो गया है। निस्संदेह  नैतिक प्रमापों के प्रति यही अनास्था का भाव हमारे समाज में फैल रहे अनेक अपराधों के लिए भी पूर्णतः उत्तरदायी है। वर्तमान में नैतिक मूल्यों में हो रहे विचलन को समझने औऱ उसके निराकरण  के लिए डॉ अम्बेडकर का नैतिक दर्शन उपयोगी साबित हो सकता है।
आम्बेडकर सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। वे हिन्दू धर्म के खिलाफ़ नहीं थे वरन् वे इस धर्म की बुराईयों को  तथा असमतावादी विचारों को दूर करना चाहते थे। वे लिखते हैं कि जब मैं ब्राह्मणवाद की बात कह रहा होता हूँ तो मेरा मंतव्य ब्राह्मण जाति की शक्ति , विशेषाधिकारों या लाभों से नहीं है वरन् मेरे मुतल्लिक  उसका अर्थ है- स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व को नकारना। यह तत्व हर वर्ग के लोगों में मौजूद है तथा जातिप्रथा को नष्ट करने के लिए धर्म पर, अंधविश्वासों पर और धार्मिक पाखंडों पर प्रहार करना होगा।  वे मानते थे कि धर्म परिवर्तन संबंधी विचारधारा दलितों की मुक्ति का विकल्प नहीं हो सकती।  स्त्री मुक्ति की बात और उसे शिक्षा का अधिकार प्रदान करने की बात भी आम्बेडकर ही पहले पहल करते हैं। इसी संदर्भ में  निसंदेह सन् 2016 भी स्त्री मुक्ति का एक नया अध्याय लिखेगा जब सुप्रीम कोर्ट अनेक मंदिर ट्रस्टों से यह सवाल करता है कि क्या लिंग के आधार पर किसी को मंदिर के प्रवेश से वंचित किया जा सकता है। 
वर्तमान में राजनीति हर पक्ष पर हावी है ऐसे में अगर वह गैर बराबर समाज व्यवस्था को बदलने में कामयाब होती है तो समाज व्यवस्था के जातिगत ढाँचे की ढहने की कल्पना की जा सकती है और सही मायने में केवल औऱ केवल तब ही  डॉ बाबा साहेब आंबेडकर ने जिस जनतांत्रिक समाजवादी व्यवस्था का स्वप्न देखा था वो सही मायने में साकार भी हो सकेगा। आज दलित चेतना के विकास में जिसमें स्त्री भी शामिल है के व्यापक प्रसार की आवश्यकता है । इस चेतना के व्यापक प्रसार में अस्मितावादी आंदोलन और साहित्य सतत रूप से योगदान कर रहा है। आंबेडकर की वैचारिकी को केन्द्र में रखकर रचा साहित्य ऐसे फलक की चाहना रखता है जो असीम औऱ पंख पसार उड़ने के अवसर प्रदान करता हो। नकार औऱ विद्रोह इस साहित्य के मूल स्वर है।  वर्तमान में अनेक संदर्भों में  मनुस्मृति के तालिबानी विस्तार को रोकने के लिए नीली रोशनी के प्रसार की सतत आवश्यकता है जिसके लिए आंबेडकर औऱ फूले के चिंतन को व्यावहारिक स्तर पर अपनाना होगा।




Wednesday, April 6, 2016

आतिथ्य पर उठते सवाल


हर देश के पर्यटन स्थल वहाँ की सांस्कृतिक धरोहर होते हैं। सैलानियों की आमद से ही ये पर्यटन स्थल गुलज़ार होते हैं। भारत की छवि विश्व में शांति और समभाव के अग्रदूत की रही है। अतीत पर चहलकदमी करें तो यहीं पर  वसुधैव कुटुम्बकम् जैसी अवधारणाएँ पनपी और विकसित  भी हुई। यही कारण है कि भारत विश्व के पर्यटन मानचित्र पर अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। आँकड़े बताते है कि  यहाँ के पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों की आवाजाही में निरन्तर इज़ाफ़ा हो रहा है। परन्तु क्या हमारा देश सैलानियों का यथोचित् आतिथ्य कर पा रहा है। सैलानियों के प्रति दुर्व्यवहार और उन्हें धोखा देने संबंधी अनेक प्रसंग हम आए दिन समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं, जो राष्ट्र की छवि को धूमिल कर रहे हैं।

 देश के उत्तर पश्चिम  में अवस्थित धोरों की  धरती राजस्थान पर भी अन्य राज्यों की ही तरह  अनेक सुरम्य दर्शनीय स्थल हैं जो सैलानियों को आकर्षित करते हैं।राजस्थान समृद्ध ऐतिहासिक विरासत को लेकर चलता है। यहाँ का तीर्थराज पुष्कर सैलानियों का गढ़ है। यहाँ की गंगा ज़मुनी तहज़ीब  पर्यटकों के आकर्षण का मुख़्य केन्द्र है। अरावली पर्वतमाला की इन घाटियों में अज़ान औऱ घहराती घंटा ध्वनि हर मन को अलौकिक अनुभूतियाँ कराती है शायद यही कारण है कि आम दिनों में भी वहाँ स्थानीय निवासियों से ज़्यादा सैलानी ही दिखाई देते है। परन्तु हाल ही में यहाँ पर स्पेनिश दम्पति के साथ घटी घटना हमारी मेजबानी को शर्मसार करती है। विदेशी पर्यटकों के साथ छेड़छाड़ की ये घटनाएँ मानवीय जीवन मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं।  गौरतलब है कि यहाँ के कुछ स्थानीय  लोगों ने घूमने आई स्पैनिश महिला का पीछा किया और उसके साथ शारिरीक उत्पीड़न का प्रयास किया।  महिला का आरोप यह भी है कि उन्होंने उनके साथी पर भी हमला किया। हमलावर  नशे के उन्माद में इस घटना को अंजाम दे रहे थे औऱ बताया जा रहा है कि हमले में घायल स्पैनिश व्यक्ति के सर पर पत्थर से हमला किया गया था और उसे गहरी चोट आई है।
यह अकेली घटना नहीं है जो पर्यटन को शर्मसार करती है वरन् समय समय पर ऐसी अनेक घटनाएँ घटित होती हैं जिस का शिकार पर्यटक बनते हैं।  बीते दिनों  मध्यप्रदेश के ओरछा के जहांगीर महल में भी  फ्रांस एवं स्विटजरलैंड की महिला पर्यटकों के साथ छेड़छाड़ की गई थी। सवाल उठते हैं कि आखिर क्या कारण है कि तमाम कानूनी बाध्यताओँ औऱ त्वरित  न्यायिक प्रक्रियाओं और निर्णयों के बाद भी ये घटनाएँ निरन्तर घटती रहती हैं। ये सैलानियों में तो असुरक्षाबोध पैदा करती ही हैं साथ ही भारत की सांस्कृतिक और अन्तर्राष्ट्रीय छवि को भी ठेस पहुँचाती हैं। भारत में पर्यटन के विकास और उसे बढ़ावा देने के लिए पर्यटन मंत्रालय नोडल एजेंसी है और  वह "अतुल्य भारत" अभियान के माध्यम से पर्यटन के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग और देख-रेख करता है। रिपोर्टस के आइऩों में , विश्व यात्रा और पर्यटन परिषद् के अनुसार, भारत, सर्वाधिक 10 वर्षीय विकास क्षमता के साथ, 2009-2018 से पर्यटन का आकर्षण केंद्र बन जाएगा । यात्रा एवं पर्यटन प्रतिस्पर्धा रिपोर्ट  ने भी  भारत में पर्यटन को प्रतियोगी क़ीमतों के संदर्भ में 6वां तथा सुरक्षा व निरापदता की दृष्टि से 39वां दर्जा दिया है। परन्तु  आँकड़ों की यह गणित और  विकासात्मक रिपोर्ट्स के दावे उस समय खोखले नज़र आऩे लगते हैं जब पर्यटकों के साथ छेड़छाड़ जैसी घटनाएं बढ़ने लगे।
व्यक्ति यात्रा पर स्व की खोज और आत्मिक शांति के लिए निकलता है। इन यात्रा के पड़ावों के रूप में वह उन स्थानों को चुनता है जो वैश्विक मानचित्र पर सुरक्षित और लोकप्रिय हैं। ऐसे में दुर्व्यवहार की ये घटनाएं पर्यटन पर नकारात्मरक असर डालती हैं।  वस्तुतः पर्यटन केवल समय  औऱ स्थान के बदलाव का सूचक नहीं है। यह व्यक्ति जीवन में खुशियों की बढ़ोतरी तो करता ही है साथ ही देश के सामाजिक, सांस्कृतिक ,राजनैतिक और आर्थिक विकास में भी अहम् भूमिका अदा करता है। भारत की अर्थव्यवस्था का विकासात्मक पक्ष भी पर्यटन से जुड़ा है। आज विश्व में  आतंकवाद के दानव के कारण पर्यटन के स्थल वैसे ही कम हो गए हैं । ऐसे में अगर कुछ असामाजिक तत्व अपने अनैतिक कृत्यों से हमारे देश की छवि को धूमिल पहुँचाने का प्रयास करते हैं तो यह घोर निंदनीय है। राजस्थान की मरूभूमि पधारो म्हारे देश जैसी सात्विक विचारधारा को लेकर चलती हैं । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि राजस्थान ही पहला राज्य है जिसने पैलेस ऑन व्हील्स जैसी शाही रेलगाड़ी सेवा प्रारम्भ कर पर्यटन के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग किया। परन्तु ऐसे कृत्य उन तमाम विकासात्मक कदमों को कुछ पीछे धकेल देते हैं जिसे सरकार और संबंधित मंत्रालय कई बरसों से कर रहा होता है।
जब तक कोई देश मूल्यों के प्रति औऱ अपनी सांस्कृतिक धरोहर की ओर सचेत नहीं होता वह विश्व में अपनी पहचान कायम नहीं रख सकता।  हमारी संस्कृति में अतिथि को देवता का दर्ज़ा दिया गया है परन्तु ऐसे कृत्य समूची परम्पराओं और सांस्कृतिक थाती को चुनौति दे डालते हैं जिसे बनाने में न जाने कितने वर्षों औऱ पीढ़ियों का समय लगा होगा। माना कि विदेशी रहन-सहन अपने स्वच्छंद तौर तरीकों से आकर्षण का केन्द्र बनता है परन्तु हम अगर हमारें मूल्यों का निरीक्षण करते हुए अपने व्यवहार को संयमित कर और ऐसे तत्वों की घेराबंदी करने में प्रशासन का सहयोग कर अपने दायित्व का निर्वहन कर सकते हैं। ऐसे सभी मामलों को रोकने के लिए सभी पर्यटन स्थलों को अतिसंवेदनशील मानते हुए सैलानियों की सुरक्षा की पुख्ता जवाबदेही तय करना होगी जिससे  सांस्क़ृतिक परम्पराएँ  आपसी वैचारिक विनिमय से एक दूसरे को लाभान्वित कर सकॆ और हर सैलानी मन परदेसी धरा में अपने देश सा आनंद प्राप्त कर सके।

http://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx


चित्र - google  से साभार                                                                                                                                    
  @vimleshsharma

Monday, April 4, 2016

स्वर्ण योजनाओं का सामाजिक – आर्थिक पक्ष

                        
भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग मध्यमवर्गीय है। वस्तुतः यही वह वर्ग भी है जो अर्थव्यवस्था की नाप-जोख तय करता है। भारतीय मध्यमवर्ग अपनी बचत के प्रभावी तरीकों के चलते दुनियाभर में आकर्षण का केन्द्र भी है। नेशनल काउंसिल फॉर  एप्लायड इकॉनामिक रिसर्च के एक सर्वे के माध्यम से यह रिपोर्ट सामने आई है कि भारतीय मध्यमवर्ग मजबूत स्थति में है और देश की अर्थव्यवस्था इसी के कांधों पर है। अगर इसकी तह में जाएँ तो इसकी मजबूती का कारण है वे छोटे-छोटे निवेश जिनके माध्यम से यह वर्ग अपने आस के मोतियों को भविष्य के लिए सहेजता है। मध्यवर्ग के आर्थिक सुढृढ़ होने में इस वर्ग की गृहणियों का भी योगदान है जो छोटी-छोटी बचत करके स्वर्ण आभूषणों में निवेश करती हैं। यह निवेश उनके लिए अनेक समस्याओं के निजात का कारण भी बनता है। साथ ही आध्यात्मिक गुरू भारत के मंदिरों में भी अकूत स्वर्ण संपदा है, जिसका यदि उचित  निवेश किया जाए तो अर्थव्यवस्था नई ऊँचाईयों को छू सकती हे।  सोने का  हमारे देश में इतना आकर्षण है कि विवाह अवसरों, हर छोटे बड़े पर्व से लेकर मांगलिक कार्यों  के समय इसकी खरीद इतनी बढ़ जाती है कि बहुत अधिक मात्रा में इस मांग को पूरा करने के लिए आयात को बढ़ाना पड़ता है। पिछले वर्षों में अगर सोने के आयात इंडेक्स पर नजर डाले तो  विश्व स्वर्ण परिषद के अनुसार 2015 में देश में सोने की मांग 900 से 1000 टन रही। वर्ष 2014 में भी बढ़ती माँग के चलते 891.5 टन सोने का आयात किया गया । 

गौरतलब है कि चीन को हाल ही में आर्थिक मंदी के दौर से गुजरना पड़ा था इसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी मिला-जुला असर पड़ा था और मेक इन इंडिया योजना भी इसके तहत प्रभावित हुई थी। इस दौर से सीख लेते हुए एक ऐसी योजना की माँग उठने लगी जो अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सके। इसी संदर्भ में  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  5 नवम्वर 2015 को स्वर्ण जमा योजना  की औपचारिक शुरूआत की थी। इस के तहत अशोक चक्र के चिन्ह वाली भारत स्वर्ण मुद्रा योजना समेत सोने में निवेश संबंधी  तीन योजनाएँ चलाने का निर्णय लिया।  अन्य दो योजनाओँ में स्वर्ण मौद्रिकरण योजना तथा सावरेन स्वर्ण ब्रांड योजना है। स्वर्ण जमा योजना , 1999 की योजना का ही विस्तार है जिसके माध्यम से सरकार, 5,40,000 करोड़ रूपये के 20.000 टन सोने के एक हिस्से को , बैंकिंग प्रणाली में लाना चाहती है। इस योजना को सरल बनाने तथा लोगों की इसमें भागीदारी बढ़ाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने सरकार के परामर्श से 21 जनवरी 2016 को  एक मास्टर डाइरेक्शन जारी किया। दिशानिर्देशों के मुताबिक, बैंक इस तरह की जमा पर ब्याज दर तय करने के लिए स्वतंत्र होंगे और जमा का मूल व ब्याज सोने में वर्णित होगा। केन्द्रीय बैंक ने कहा है कि परिपक्वता पर मूल व ब्याज का भुगतान जमाकर्ता की इच्छा पर किया जाएगा।  विमोचन के समय  वह स्वतंत्र होगा कि , सोने के बाजार मूल्य के आधार पर, सोने और जमा ब्याज के बराबर मूल्य में भारतीय रुपये में भुगतान लेना चाहता है या सोने के रूप में । इस संबंध में अपनाए जाने वाले विकल्प को जमाकर्ता द्वारा सोना जमा करते समय लिखित में दिया जाएगा और इसे बदला नहीं जा सकेगा। संबद्ध देय तिथि पर ब्याज का भुगतान जमा खातों में किया जाएगा और इसे जमा के नियमों के मुताबिक एक अंतराल में या परिपक्वता पर निकाला  भी जा सकेगा।

 स्वर्ण जमा योजना का मकसद जमा योजनाओं में इस तरह सुधार करना है ताकि मौजूदा आर्थिक स्थिति प्रभावशाली हो तथा  योजनाओं का दायरा बढ़ाया जा सके। इसके तहत देश के नागरिकों और संस्थानों के पास जो सोना है उसे उत्पादक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। इसका दीर्घकालिक उद्देश्य  यह है कि इस तरह की व्यवस्था बनाई जाए जिसके तहत सोने के आयात पर देश की निर्भरता कम हो ताकि घरेलू मांग को पूरा किया जा सके। संशोधित स्वर्ण जमा योजना (जीडीएस) और स्वर्ण धातु ऋण (जीएमएल) योजना का संबंध  दिशा-निर्देशों में केवल परिवर्तनों से है। इऩ योजनाओं में सोने की कीमतों में बदलाव का जोखिम स्वर्ण भंडार निधि के जरिए उठाया जाएगा। इससे सरकार को यह लाभ होगा कि उधार लागत के संबंध में कमी आएगी जिसे स्वर्ण भंडार निधि में सीधे स्थोनां‍तरित किया जाएगा।  

      इस योजना से भारत के नागरिकों, न्यासों और विभिन्न धार्मिक संस्थानों के पास जो अनुपयुक्त  सोना पड़ा हुआ है उसे इस्ते माल करके रत्नों एवं आभूषण क्षेत्र को मदद दी जा सकेगी। इस कदम के तहत आगे चलकर सोने के आयात पर देश की निर्भरता में भी कमी आने की उम्मीद है।  इस योजना में सोमनाथ मंदिर न्यास गुजरात का पहला मंदिर होगा जो अपने पास रखे सोने को स्वर्ण मौद्रीकरण योजना में जमा करेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित इसके न्यासियों ने मंदिर के स्वर्ण भंडार को योजना में निवेश करने की अनुमति दे दी है।बताया जा रहा है कि मंदिर न्यास के पास 35 किलो सोना है। मंदिर न्यास अपने  इसी अप्रयुक्त तथा अर्थव्यवस्था की भाषा में मृत  सोने को इस योजना में जमा करेगा।  इस योजना के संदर्भ में तिरूपति मंदिर न्यास ने यह मांग की है कि यदि सरकार जमा सोने पर ब्याज के रूप में भी सोना ही दे तो वह इस योजना में शामिल होने पर विचार कर सकता है कई न्यास इस योजना से अपने कदम पीछे खींच रहे हैं।  जिसका कारण निःसंदेह इस योजना के कई कमजोर पक्ष हैं।  छोटे निवेशकों के पास आभूषणों के रूप में सोना है जिसे वे  शायद पिघले  हुए रूप में नहीं देखना चाहेंगें। अगर इन पक्षों पर गौर किया जाए और इस योजना संबंधी जागरूकता और शंकाओं का समाधान जन-जन के बीच किया जाए तो इस योजना के सफल होने की उम्मीद की जा सकती है । डेड मनी को आर्थिक शक्ति में बदलकर यह योजना भारतीय समाज को आर्थिक मजबूती प्रदान कर सकती है । अगर  यह योजना  सफल रहती है तो यह काले धन पर नकेल कसने का भी प्रभावी कदम बन सकती है।



रूपहले पर्दे का स्याह पक्ष

                          
घटनाएँ बता रही हैं कि युवा मन अवसाद की ज़द में ज़ल्द आ जाता है। वो दौड़ में खरगोश की भाँति चपल और मन को पवन की गति सा तेज दौड़ाने का आदी होता है। इसी अधैर्य और भावनाओं का भूचाल उस मन को अक्सर अस्थिर कर देता है। अकेला युवा मन अक्सर सफलता असफलता के मापदण्डों को जीवन का अंतिम समीकरण मान बैठता है । कई नाजुक पलों में प्रेम का मोहपाश भी इस मन पर इस कदर  हावी हो जाता है कि दबे पाँव अनेक अनचाहे नशे भी  जीवन में दस्तक दे देते हैं। प्रेम जीवन का आखिरी विकल्प नहीं हो सकता  पर यह भी सच है कि कोमल भावुकता किसी विकल्प को नहीं देखती। प्रेम किसी मन की हार नहीं हो सकती , प्रेम तो जिए जाने का नाम है पर सितारों के संसार में सारे समीकरण उलट दिखाई देते हैं। एक चाँद की ख्वाहिश में जाने कितने तारे वहाँ टूटते हुए दिखाई देते हैं और उगते हुए  तारों का  यूँ जमींनशीन होना मन को प्रश्निल कर जाता है कि आखिर क्यों किसी चमकीले सपनों का कारवां महज़ चौबीस बरस में थम जाता है। आखिर क्यों ज़ज्बातों की रवानगी ज़िंदगी के किसी कठिन मोड़ पर फीकी पड़ जाती है। आखिर क्यों रूपहले पर्दे से जुड़ी शख्सियतें भावनात्मक स्तर पर विचलित हो जाती हैं ।  अगर गौर किया जाए तो रूपहले पर्दे के स्याह पक्ष को उजागर करता यह सवाल साफ नज़र आता है कि आखिर क्या बात रही होगी कि सिने तारिका दिव्या भारती 19 साल में, जिया खान 25 साल में तो बालिका बधू फेम प्रत्यूषा 24 साल में ही अपने सपनों के सफर के दिये अनजान कारणों के चलते बुझा देती हैं।

प्रत्यूषा बैनर्जी एक नवोदित कलाकार के रूप में बालिकावधू धारावाहिक में राजस्थान को प्रस्तुत कर रही थी पर उसका असामायिक निधन ग्लैमर के अकेलेपन से भरे संसार की भयावह त्रासदी को उजागर करता है। हर आत्महत्या सोचने को मजबूर करती है और ध्यान ले जाती है उन पहलूओं की ओर कि क्या कारण है कि महत्वाकांक्षा और अवसाद आखिर वहीं क्यों जन्म लेता है जहाँ संसार सबसे अधिक चमकीला नज़र आता है। ये बातें इस ओर भी ध्यान खिंचती है कि जीवन सुख दुख को बराबर हिस्से में लेकर चलता है।  केवल सुख की चाहना और दुख के आने पर पैर पीछे खींच लेना समझदारी नहीं है। आखिर क्यों दरकते संबंध सूत्र व्यक्ति को इतना तोड़ देते हैं कि वो अवसाद के फंदे पर लटक जाता है। अगर इन कारणों की तह में जाए तो असामान्य जीवन शैली, अजनबीपन और अकेलापन वे कारण नज़र आते हैं जो व्यक्ति को भीतर से तोड़ देते हैं। ग्लैमर की चकाचौंध वक्ती होती है और ऐसे में अगर जीवन महात्वाकांक्षा और अनियमितता से भर जाए तो उसे टूटते देर नहीं लगती। प्रेम जीवन जीने की ऊर्जा देता है परन्तु चुनाव अपरिपक्व हो तो वह यूक्लेप्टिस की भूमिका अदा करने लगता है जिसे बस आँसुओं की नमी से ही भरा जा सकता है। कैरियर स्थायित्व की माँग करता है मगर ग्लैमर की दुनिया में टी आर पी और हर शुक्रवार की भीड़ सफलता के आँकड़े तय करती है। यहाँ व्यक्ति का कल सुरक्षित नहीं है। रंगमंच के कलाकार अत्यंतसंवेदनशील होते हैं और यही कारण है कि जीवन के समीकरणों को बैठाने में  ये सितारे अक्सर  चूक कर जाते हैं। इन हालातों में अगर कहीं ज़रा सी ठेस लगती है तो भावनाओं का तुफान और क्षणिक भावावेश  इस जीवन को काँच की मानिंद बिखेर कर रख देता है। अवसाद जनित ह्रदय प्रेम चाहता है मगर इस प्रेम में अगर स्वार्थ और अलगाव हावी हो जाता है तो मन नितांत अकेला हो बेआवाज़ टूटता है।  अगर प्रेम सिर्फ अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हो और उस वक्त आपको अकेला छोड़ दे जब आपको उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत हो तो उस रिश्ते पर सवाल उठना लाज़मी है।
ग्लैमर की दुनिया एक तपस्या की मानिंद है जिसे अपनाकर व्यक्ति लोकप्रियता के चरम पर तो पहुँच जाता है परन्तु अपनी निजी जिन्दगी में बिल्कुल अकेला हो जाता है। पैसे और शोहरत की होड़ में व्यक्ति सामाजिक रूप से अलग हो जाता है। यहाँ वर्चुअल दुनिया में तो उनके अनेक प्रशंसक होते है परन्तु वास्तविक जीवन कोरा का कोरा ही रह जाता है। कच्ची उम्र में पके अनुभवों से गुजर रहा मन जीवन को संभाल नहीं पाता और नतीजतन घटती है ऐसी अनेक घटनाएँ जो व्यक्ति के इर्द-गिर्द विवादों का ताना-बाना बुनती है। प्रत्यूषा भी ऐसे ही अनेक विवादों से गुजर रही थी, कभी पुलिस पर आरोप-प्रत्यारोप तो कभी रिश्तों में अलगाव। ऐसी स्थितियाँ अगर सतत बनी रहती है तो व्यक्ति अवसाद मे पहुँच जाता है। इन घटनाओं से बचने में माता- पिता, परिवार  और दोस्त अहम भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि जब कोई शोहरत और लोकप्रियता के पायदानों पर चढ़ रहा होता हैं तब  भावनात्मक असंतुलन चरम पर रहता है। ऐसे में उस मन को संबल की अधिक आवश्यकता होती है।  अकेलापन और परिवार से दूरी उन रूहों को रीत देती है। रसायन विज्ञान बताता है कि जो तत्व अस्थिर होता है वो अपने को खाली कर या अपने में भरकर स्थायित्व प्राप्त करना चाहता है । जीवन की हकीकी  और ग्लैमर की इस सपनीली दुनिया में भी खाली मन हमविचार साथी के काँधे ढूँढता है परन्तु इस  तलाश में वह यह भूल जाता है कि यहाँ छलावा अधिक है। स्त्री यहाँ भी भावनाओं के रेशों में उलझ जाती है और जब ये कोमल तंतु बिखरते हैं तो उनका अस्तित्व ही बिखर जाता है, नैसर्गिक चीजें खतम हो जाती है और एक मासूम व्यक्तित्व के साथ जुड़ जाते हैं अनेक विवाद।  
सवाल गहरातें हैं कि आखिर क्यों चमक दमक में रहने वाले लोग भी ज़िंदगी से हार जाते हैं। दरअसल इऩ जिंदगियों पर शिखर पर बने रहने का, भविष्य और रिश्तों को बनाए रखने का सतत दबाव बना रहता है ।  रिश्तों में खटास या कटुता उन्हें अधीर कर देती है औऱ क्योंकि उनकी भावनाओँ का केन्द्र एक व्यक्ति मात्र होता है ,ऐसे में वो टूट कर बिखर जाते हैं।  किसी मुकाम पर पहुँचना और उस मुकाम पर कायम रहना बेहद चुनौतिपूर्ण होता है। हर मुकाम और कैरियर के अपने दबाव होते हैं और ये  आर्थिक सम्पन्नता ,शौहरत और फ्रेंड फौलोइंग से नहीं भरे जा सकते। इन रूहों को सार्थक संवाद और मार्गदर्शन की अधिक आवश्यकता होती है।

यहाँ एक बात औऱ सामने आती है कि परिवार में व्यक्ति काफी सुरक्षित महसूस करता है पर जब बाहर निकलते हैं तो हम अपने आप में सिमट कर रह जाते हैं। लिव इन रिलेशनशिप अवधारणा भी  असुरक्षा भाव को लेकर चलती है ।यह रिश्ता अपने आप में ही बहुत तल्ख़ तजुर्बों को लेकर चलता है।  मायावी दुनिया में हर रिश्ता भ्रम में लिपटा होता है परन्तु युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि केवल मोह के कच्चे धागे ही जीवन जीने का अंतिंम विकल्प नहीं है। ऐसे में जिन बातों की और ध्यान देना आवश्यक है वह है अपनों से जुड़ाव और भावनात्मक साझेदारी । यहाँ अपील है तमाम अभिभावकों से कि आपके बच्चे भले ही बड़े हो , सुखी हो परन्तु उन्हें भावनात्मक सुरक्षा का माहौल जरूर दिया जाए। ये हादसे आगाह करते हैं कि आज की युवा पीढ़ी को भावनात्मक खाद की अधिक ज़रूरत है ।  हम  दिलों के बीच की अबोली दीवार को पाटकर  सहज संवाद  के माध्यम से उस अवसाद पर काबू पाने में सफल हो सकते हैं जो कई ज़िंदगियों को त्रासद अंत की ओर धकेल रहा है। 



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Sunday, April 3, 2016

फ़साना­ बन गई है मेरी बात टलते-टलते

साहेब बीबी और गुलाम ,परिणीता औऱ पाकीज़ा छुटपन में देखा सिनेमा था पर ज़ेहन में  उसकी पकी हुई सी  छाप कई बरसों तक रही । जब भी समय मिलता रंगमंच का वो जादू फ़िर खिंच लेता अपनी तरफ़ और मन चल देता उन पगडंडियों पर जहाँ तन्हाई आबाद हुआ करती थी। वो महजबीं..लरजती आवाज और ठहराव से अपने शब्दों को तोल कर यूँ तराशती थी कि सीधे मन पर छाप छोड़ती थी और यही कारण था कि उसकी आँखों की मस्ती के अनगिनत दीवानों में कई मस्तानियाँ भी थी।

 खिंची हुई सी मुस्कान उस संगमरमरी चेहरे पर खिलती हुई सी लगती थी पर दर्द था कि उस अधूरी हँसी में भी  कुहासों को हटाता हुआ साफ़ नज़र आता ।

कहते हैं भावनाओं की तरल सीपियों में शब्दों के सबसे कोमल मोती जन्मते हैं ..यही वज़ह रही होगी कि उनका दर्द कागज़ पर उतर आय़ा था। यूँ कम ही होता है कि, कोई कहे चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो और हम किसी चेहरे की हँसी को पकड़कर उसका हाथ थामे चल पड़ते हैं यह कहते हुए कि हम है तैयार चलो । कहा गया है कि जिन अनुभवों को शिद्दत के साथ जिया जाता है वे जिंदगी में पानी की मानिंद उतर आते हैं।  यहाँ  इसका वैपरित्य था कि जिंदगी को पाकीज़ा अदायगी  से पर्दे पर उतारा गया ।  
 कैफ़ी आज़मी के हर्फ..  फ़साना बन गई है, मेरी बात टलते-टलते इस ज़िंदगी पर मुक्कमल बैठती थी। हर जीवन एक ट्रेजेडी है शायद कोई फ़लसफ़ा उस जीवन का भी रहा होगा।
प्रेम संवेदनाओं की सुनामी लेकर आता है। प्रेम एक परीक्षा है , रीतने और भरने के बीच पनप रहे महीन अवसाद का नाम है..और अक्सर भर कर भी खाली रह जाने का नाम है.. शायद यही प्रेम, दीवानगी की चरम पर पहुँचकर मीरां , अमृता या मीना बन जाया करता है  और यूँही अक्सर कभी कोई ज़हर ज़ाम तो कोई ज़ाम ज़हर बन जाया करता है।  यहाँ यह कहना लाज़मी है  कि हर जीवन की अपनी निज़ता है  और  उस  निज़ता की पाकीज़गी को सलाम।
# मीना कुमारी
#फ़साना­बन गई है मेरी बात टलते-टलते...