(जब फ़ागुन रंग झमकते
हों )
हमारा उत्सवधर्मी मन
बारम्बार संस्कृति के सागर में गोते लगाता है और वहाँ से खोज लाता है पर्वों की
सीपियाँ जिनसे अलसाया मन पुनः आह्लादित हो
उठता है। ‘होली’
शब्द
इतने व्यापक अर्थों में औऱ पुरज़ोर उपस्थिति से हमारे मानस पटल पर अंकित है कि
इसके स्मरण मात्र से ही मन पर सतरंगी छटा छाने लगती है। होली अनेक अर्थों में
लोकरंगों की सांस्कृतिक उपस्थिति का स्मृति पर्व है। लोक के बिना इस पर्व की कल्पना भी नहीं की जा
सकती। यह पर्व समानता को तरजीह देता है जहाँ हर मन राधा और कृष्ण भाव में रंगा
नज़र आता है यही कारण है कि सामाजिक बंधनों की कसावट भी इस दिन ढीली पड़ जाती है। फाग,
पेड़ों की शाखों पर कोंपल फूटने का और प्रकृति के सबसे कोमल फूल उग आने का समय
होता है । यह वसंत की उस वय का समय है जब
कचनार फूल , अबीर की खुशबू लिए मन की दहलीज़ पर कदम रखते हैं। रंग, गुलाल और प्रकृति
के भाँति-भाँति के रंग, ठूँठ हुए मन को नयी चेतना से लबरेज़ कर देते हैं। फाग यानि
उल्लास और इस उल्लास का जीवन में बहुत महत्व है। उल्लास के
बिना जीवन बेराग हो उठता है इसलिए जीवन की चेतना के लिए हमारी संस्कृति में अनेक
स्थल ऐसे जोड़े गए हैं जहाँ रस का सोता निर्बाध रूप से बहता रहता है।
रंगों के इस पर्व को
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस दिन मानव सृष्टि के आदि पुरूष मनु का जन्म
हुआ था इसी कारण इसे मन्वादितिथि भी कहते हैं। राग रंग का यह पर्व वसंतोत्सव और
आनंदोत्सव के रूप में भी जाना जाता है। कई
मिथक और कई माऩ्यताएँ इस पर्व से जुड़ी है। एक ओर होली जहाँ होलिका दहन को लेकर
बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है वहीं ब्रज परम्परा में यह प्रेम के प्रतीक
राधाकृष्ण की होली के रूप में जानी जाती है। वस्तुतः अपने अनेक अनेक संदर्भों में भी जो सामान्य बात निकल कर आती है वह यह कि होली
सामूहिकता के जीवित होने का प्रमाण है। रंग, अबीर और गीत होली की अभिव्यक्ति है,
जिसमें मौसम भी अपनी सतरंगी उपस्थिति देता है। यह सूर्य और धरती के मिलन का पर्व
है और इसीलिए मिलन के इन क्षणों में धरा ,प्रिय को रिझाने के लिए बासंती चुनर ओढ़
लेती है। तेज और ताप का प्रतीक सूर्य भी इन दिनों सम पर आ जाता है, न धरती से अधिक
दूर और ना अधिक पास। इसी समय वह धरती के मध्यभाग में प्रवेश करता है जिसे भूमध्य क्षेत्र कहते हैं जो कि ऋतुओं का गर्भगृह
है । समरसता के इस समय में फसलें पककर तैयार हो जाती है, किसानों को उनके श्रम का फल मिल जाता है और
प्रकृति रसवान हो उठती है, यही कारण है कि इस अवसर पर हर मन रससिक्त हो उठता है।
यह बात दीगर है कि त्योहारी
गुलदस्ते के कुलीनतंत्र में होली सर्वाधिक लोकवादी और समतावादी त्योहार है।
लोकसंगीत इस त्योहार की आत्मा है जिसमें होली खेले रघुवीरा से लेकर मोहे रंग दो
लाल, नंद के लाल जैसे बोलों में मर्यादापुरषोत्तम एवं लोकरंजक दोनों ही रूप होली खेलैया के रूप में नज़र आते हैं। सूफी संगीत की पंचम ताने भी इस दिन आज रंग है रे,
मां रंग है री गाने लगती है। ज़ाहिर है हर मन का अपना- अपना बरसाना है, शामे – अवध
है ,मिलन है , वियोग है लेकिन इन सबके बावजूद
हर कोई भीगना चाहता है और नेह के इसी
गीलेपन को महसूस करने का त्योहार है यह रंगपर्व। यही कारण है कि कृष्ण कि गोपियाँ
जो केवल श्याम रंग में रंगी चुनरिया की बात कहती है इस दिन नेह का इन्द्रधनुष ओढ़
लेती हैं। वस्तुतः प्रेम मन का लाड़ला भाव है औऱ यह भाव हास-परिहास से नित नया
होता जाता है इसीलिए यह पर्व हमारी आत्मा के सबसे भीतरी दरवाजे पर दस्तक देने का
साहस रखता है। यह पर्व केसरिया और हरे में भेद नहीं करता । हिन्दी साहित्य में
विद्यापति, अमीरखुसरो, जायसी, सूरदास, मीरां, रसखान, पद्माकर, निजामुद्दीन औलिया
के काव्य में उपस्थित एक ही भाव, इस पर्व के सम्प्रदाय निरपेक्ष होने का प्रमाण
है।
हर त्योहार गहरे
सामाजिक सरोकार रखता हुआ समाज को कोई न कोई संदेश देता है ऐसे में होली भी भक्ति
की स्थापना, मूढ़ता के अवसान और सत्य पथ पर बढ़ने के साथ-साथ प्रेम की महानता का
संदेश देती है। इस त्योहार की लोकप्रियता का
असर भारत के बाहर भी दिखाई देता है । कोई भी किसी भी देश में क्यों ना रह रहा हो
इस दिन वह फगुवाई भारतीयता से सराबोर होता है औऱ रंग बेरोकटोक बिना किसी पारपत्र
के उस व्यक्ति के मन में रम जाते हैं। भारतीय राज्यों में भी होली मनाने की अनूठी
परम्पराएँ हैं। झारखंड की आदिवासी संस्कृति में यह शिव पार्वती विवाह का
परिणयोत्सव है तो बंगाल में यह वसंतोत्सव,
राधा कृष्ण के प्रेम के समर्पण के दिन और चैतन्य महाप्रभु का जन्मोत्सव के रूप में
मनाया जाता है। यों तो होली के ये रंग उत्साह ,अभिलाषा औऱ जड़ता पर चेतना के
विजय का प्रतीक हैं पर वर्तमान में अनेक संदर्भों में होली के ये रंग
बदलने लगे हैं। महिलाओं के साथ अनैतिक आचरण और चुहलबाजी की ओट में उच्छृंखलता के
अनेक उदाहरण इस अवसर पर देखने को मिलते हैं। पहले अबीर औऱ गुलाल के प्रयोग से
गालों पर उल्लास का अभिषेक किया जाता था पर आज अनेक घटनाएँ रंगों के घातक प्रयोग
का उदाहरण पेश करती नज़र आती हैं। अस्मिता
को मलिन करने की कुत्सित मानसिकता भी कई जगह रंगों की प्रेमिल अभिव्यक्ति पर हावी
होती नज़र आती है और यही कारण है कि कई स्थानों पर सड़को पर खौफ़ पसरा नज़र आता
है। यही नहीं कई अतिउत्साही और बेलगाम हाथ पशुओं पर भी बेतुके रंग औऱ कीचड़ मल
देते हैं। निःसंदेह ऐसे प्रसंग रंगों के खूबसूरत एहसास में ख़लल पैदा कर देते हैं।
इस अनियंत्रित उल्लास को यदि अऩुशासन के दायरे
में बाँध लिया जाए औऱ हुड़दंग के स्थान पर लोकसंगीत को कुछ गुनगुना लिया जाए तो
रंगों की मृदंग पर हर मन थिरक उठेगा। इस त्योहार के गहरे नैतिक संदर्भ है । ज़रूरत
है तो बस उन्हें समझने की, यह इकलौता त्योहार है जो सामाजिकता, न्याय , सुरक्षा ,
समरसता और सहभागिता जैसे तत्वों को लेकर चलता है। अगर इन आशयों को समझ लिया जाए तो
होली के रंग कुछ और झमक उठेंगे।
आज का बचपन उस स्वच्छंद माहौल से दूर है जिसे हमारी पीढ़ी ने
जिया है । अगर परियों के उस गुलजार से हम
नवयुवाओं को रूबरू करा दें तो कई काफ़िर नैन भटकने से बच जाएँगें और वाकई होली के
ऐश हो जाएँगें। यह पर्व प्रकृति को निकट
से देखने , फूलों को महसूस करने और कोयल की बेसुध तानों को सुनने का स्वर्णिम अवसर
है । फ़ाग प्रकृति के चरम पर लय होने का प्रतीक है जो यह सिखाता है कि उमंग और उल्लास की धमक मौन
पदचापों के साथ हो, उमंग ऐसी हो कि जिससे किसी के चेहरे का रंग फीका ना पड़ जाए। मौज ऐसी
हो जो सागर के अनुनाद को समझती हो , प्रेम ऐसा हो जो प्रणय के उदात्त पक्ष को लेकर
चलता हो औऱ रंग ऐसा हो कि मन की मलिनता को दूर कर दे। अगर होली के बदलते परिवेश में
हम अपनी संस्कृति के स्थायी भाव को जिए चले जाएँ तो यह पर्व वाकई राग-अनुराग का
वही पर्व बन जाएगा जिसे ब्रज की धरा पर ग्वालों और गोपियों ने खेला था।
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