सृष्टि का प्रत्येक तत्व द्वन्द्व से उपजा है और इसके लय में छिपा है अद्वैत का छंद। द्वैत से अद्वैत के इस सफर में ही
प्रकृति का हर उपादान धड़कता है और निराकार से साकार रूप को प्राप्त होता है। अरूप
से रूप की इस यात्रा में ही इस धरा और गगन के बीच सारी मैत्रियां जन्म लेती है, विकसती
हैं और प्रेम तक पहुँचती है। प्रेम मैत्री
से पूर्णता पाता है और विरोधी व्यक्तित्वों तक को विलीन कर लेता है। प्रेम के तंतु
केवल युवावस्था में ही विकसते हों यह ज़रूरी नहीं प्रेम तो हर अवस्था में धड़कता है।
प्रेम के मानुष स्वरूप को देखें तो पुरुष और स्त्री में दैहिक और मानसिक और ह्रदय के
स्तर पर वैपरित्य देखने को मिलता है। पुरुष
अहंमन्य है तो स्त्री विनीत.. सदैव देने को तत्पर। पुरूष मैत्री प्राप्त करते ही उस पर आधिपत्य प्राप्त
करना चाहता है उसे पा लेना चाहता है और अगर इस समर्पण में ना मिले तो बैचेन हो उठता
है। स्त्री देह से नहीं वरन् ह्रदय के स्तर
पर जुड़ती है और उसे प्रेम की चरम अवस्था प्राप्त करने के लिए दैहिक जुड़ाव की आवश्यकता
नहीं होती वरन् वह प्रेम के दो मीठे बोलों से ही आह्लादित हो जाती है। यही नहीं इसकी अनुगूंज को वह कई कई वर्षों तक उसी
तीव्रता से सुनने का सामर्थ्य भी रखती है।
वस्तुतः यही वैपरित्य ही आकर्षण का मूल है जिसके प्रभाव में सारे विरोध घुल
जाते हैं और परस्पर प्रीति उपजती है।
जीवन केवल तर्कों पर आधारित रहकर नहीं जिया जा
सकता यही कारण है कि प्रेम के अजस्र सोते की मनुष्य को आवश्यकता है और जब वह मैत्री
के शिखर पर पहुंच कर प्रवाहमान होता है तो फिर प्रेम अखण्ड हो जाता है।
अपने हमराह
के विचारों का स्वागत करना, समस्याओं पर सहमंथन करना, स्वीकृति अस्वीकृति दोनों का
सम्मान करना, सुख दुख को साझा बिताना प्रेम और मैत्री के उच्चतम पड़ाव है। मित्रता
का स्थायी भाव ही परस्पर समन्वय और सहभागिता है यही कारण है कि जब मित्रता किसी भी
रिश्ते में उतरती है तो वह एक ऐसे पुल का निर्माण करता है जिसमें दो विरोधी व्यक्तित्वों
का मिलन हो जाता है। आमतौर पर जिस दैहिक आकर्षण को प्रेम कह दिया जाता है वह प्रेम
नहीं है वह प्रेम की क्षणिक अवस्था है जो आकर्षण समाप्त होते ही लुप्त हो जाती है.
वास्तविक प्रेम तो कामना, आशा और वासना विहीन होता है। इस प्रेम का न कोई आदि होता
है ना ही अंत। किसी आध्यात्मिक पगडण्डी की
ही तरह यह युगल को उस आनंदावस्था तक पहुंचा
देता है जहां कोई विरला ही पहुंच पाता है। सच है
प्रेम से बड़ा जिंदगी का ककहरा और कोई नहीं हो सकता जो जीवनपर्यंत साझा स्मृतियों,
जीवंत संवेदनाओं, भावाकुल तन्मयता और विरह की उदासियों के माध्यम से सतरंगी शैली में
जीवन के अनमोल शब्द कोश का निर्माण करता रहता
है।
प्रेम उस धड़कती सांस की तरह है जिसके बिना जीवन बेमानी है। इस बारे में मैक्समूलर कहते हैं कि " एक फूल
नहीं खिल सकता अगर धूप ना हो और कोई इंसान जी नहीं सकता अगर मोहब्बत ना हो "