Tuesday, September 29, 2015

धर्म के सिंहगढ़ में स्त्री सैंध




धर्म उस अवधारणा का नाम है जो चेतना को परिष्कृत करती है, मनुष्य को मनुष्य गढ़ती है और घोर एकाकी क्षणों में एक सम्बल प्रदान करती है परन्तु समय के साथ साथ इस अवधारणा में बदलाव आया है। कहीं निजी स्वार्थों ने , कभी किसी वर्ग विशेष के आधिपत्य ने, धर्म के मानकों , मान्यताओं को अपने मन मुताबिक बदला है। कभी किसी धार्मिक विचारधारा ने स्त्री को धर्म के गढ़ों से बाहर धकेला तो कभी किसी वर्ग विशेष को। बोद्ध धर्म की हीनयान और महायान शाखाओं से लेकर हिन्दू ,जैन औऱ शरीअत में आए बदलावों  के अनेकानेक उदाहरणों से यह बात स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है।  धर्म के प्रति अंधश्रद्धा के बढ़ जाने के कारण ही साहित्यकारों ने इसे अफीम की संज्ञा से भी नवाज़ा है। धर्म में जब भ्रम का समावेश हो जाता है तो वह व्यक्ति चेतना को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में कर लेता है। आज विज्ञान और शिक्षा के युग में जब हम धर्म के विकृत रूप को देखते हैं तो चौंकते हैं, हतप्रभ होते हैं और ऐसे अविश्वसनीय प्रसंगों पर अफसोस जताते हैं। वर्तमान में जब धर्म को तोड़ने मरोड़ने के इन प्रसंगों में जब अनेक बाबाओं औऱ ढ़ोंगी संतों का बोलबाला है तब अनेक संन्यासिनें भी धर्म औऱ धर्म के इस वीभत्स सिंहगढ़ में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। आखिर क्या कारण है कि ऐसे तथाकथित प्रसंग सामने आते हैं , जो कुछ दिनों तक तो मीडिया में भी छाए रहते हैं और फिर अचानक कहीं खबरों के जंजाल में गुम हो जाते हैं। अगर भ्रमित जनता की बात की जाए तो शायद ये तथाकथित अवतार और धर्मगुरू उनकी मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों की पूर्ति करते हैं। मनुष्य परिस्थतियों का दास है और व्यक्ति वस्तुतः भावनाओं के सहारे जीता है ,उठता है और गिरता है । कुछ व्यक्ति विपरीत परिस्थतियों में सम्भलना जानते हैं तो कुछ टूटकर बिखर जाते हैं। इसी बिखरन और दरकन को समेटने का काम करते हैं ये धर्मगुरू।  आज धर्म औऱ तत्काल शांति की आश्वस्ति देने वाली ये तेज चकाचौंध की ऊँची दुकानें ऐसे शिकार ढूँढती है जो भावनात्मक रूप से आहत है क्योंकि सिर्फ वहीं ये अपना प्रभाव छोड़ सकते हैं। राधे माँ औऱ कृष्ण के ये तथाकथित अवतार अपने भव्य औऱ अलौकिक दर्शन से आम जनता को स्वर्ग की अनुभूति कराते हैं क्योंकि स्वर्ग की मानसिक उपस्थिति सदा ही भव्य रही है औऱ उसी स्वर्ग की आड़ में ये अपना कारोबार चलाते हैं। बात चाहे आसाराम की की जाए या रामदास की या फिर राधे माँ की सबमें एक समानता है कि सबके असंख्य अनुयायी है और जब कभी भी इन पर कोई आँच आती है तो ये भक्त ही उनके रक्षाकवच बन कर खड़े हो जाते हैं। बात अगर कुछ लोगों के माध्यम से उठायी भी जाती है तो उसे दबा दिया जाता है। यहाँ यह बात समझ से परे है कि अगर कोई वाकई धर्म में गहरे पैठा है , आध्यात्मिक सरोकारों को जीता है तो उसे खुद को सिद्ध करने के लिए आत्म प्रचार की कहाँ जरूरत है और आखिर यह कैसा धर्म है जो सिर्फ विलासिता को जीता है, जहाँ संस्कृति औऱ मूल्यों का कोई स्थान नहीं है औऱ धर्म की ही आड़ में जनता को ही शोषित किया जाता हो। जब वास्तविक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की बात आती है तब भी ये गैरजिम्मेदार बयानबाजी से अपनी मूढ़ता प्रदर्शित करने में पीछे नहीं रहते हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब सेलिब्रटी कहा जाने वाला और बुद्धिजीवी वर्ग भी इनके समक्ष नतमस्तक होता है। सरकारें इनके द्वार पर होती है और धर्म के इनके गोरखधंधे पर मौन साधे रहती हैं। आज के ये हाईप्रोफाइल संन्यासी भक्तों को सम्मोहित करने में महारथी होते हैं , भक्तों पर अपार स्नेह की वर्षा करते हैं औऱ भक्त उन्हें बदले में अकूत दान देते हैं।

करोड़ो के भूस्वामी रहे संत ही अब अकेले इस मायावी साम्राज्य के मालिक  नहीं है वरन् अनेक मायावी संन्यासिनें भी इस पनघट की स्वर्णिम डगर का रूख किए हुए हैं। आनन्दमूर्ति , अमृतानंदमयी और मदर मीरा जैसी साध्वियाँ तो अब तक थी ही परन्तु अब स्वघोषित राधे अवतार भी हमारे समक्ष है जो अभी तक प्राप्त प्रसंगों के अनुसार पूरी तरह ढोंगी नजर आता  है। यह अवतार स्वच्छंद है , उन्मुक्त है,  और स्वंय को  तमाम सीमाओं से परे रखने का पक्षधर है। ये माँ आज अचानक उठे विवादों से यूँ सुर्खियों मे भले ही आयीं हों परन्तु इनका अस्तित्व कई वर्षों से हैं। इनकी भव्यता और इनके स्थलों पर हजारों लोगों की मौजूदगी इनकी महिमा को उजागर करती है। आखिर क्या कारण हैं कि एक तरफ हम 21 वीं सदी के मुहाने पर खड़े होकर प्रगतिशील सोच रखने का दावा पेश करते हैं औऱ दूसरी ओर हमारी भोली जनता इन पाखण्डों में पिसती नजंर आती है। वस्तुतः ये कारोबारी लोगों की भावनाओं का शोषण कर  अपना व्यासायिक दोहन करते हैं। चमत्कारी सम्मोहन और मिथकों के सहारे ये लोगों पर अपना विश्वास जमाते हैं और जब मुख्यधारा के औऱ प्रभावशाली लोग इनका अनुसरण करने लगते हैं तो अन्य भी उसी भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। आम व्यक्ति संघर्षों से रोज दो चार होता रहता है वहीं ये अवतार किसी परी के मानिंद आकाश से उतरते हैं औऱ सम्मोहन और चमत्कार की सृष्टि से युवाओं को अपने वैभव की तरफ खींचते है । बात सिर्फ यही नहीं है आश्चर्य तो तब होता है जब इनके कारनामें सामने आते हैं तो प्रतिरोध के स्वर भी बहुत हल्के और मद्दम नज़र आते हैं। बात अगर हालिया मुद्दे की ही की जाए तो यहाँ आम जनमानस की आपत्ति धर्म के भौंडे प्रदर्शन को लेकर औऱ आस्था के खंडित होने की नहीं है वरन् आपत्ति यह है कि उस महिला ने क्या पहना है और किस हिसाब से उसका रहन सहन है। यहाँ प्रयास इस धार्मिक दुश्प्रचार को रोकने का ना होकर उसकी निजी जिंदगी में झांकने का हो रहा है। हमारी मीडिया ने  भी यूरेका यूरेका की ही तर्जं पर  यह भी खोज निकाला है कि कितने वर्ष पहले उसकी आजीविका का स्रोत क्या था। क्या ये सब मुद्दे और छिछला प्रतिरोध हमारे मानसिक पिछड़ेपन का सूचक नहीं है। धर्म में उतर आए इस अनैतिकवाद पर धर्म में भी क्या केवल और केवल पुंसवादी सोच हावी नज़र नहीं आती । सोशल मीडिया आज वैचारिक बहस औऱ प्रतिक्रिया का त्वरित माध्यम है मगर वहाँ भी आयी प्रतिक्रियाँएँ हतोत्साहित करती है औऱ दुख होता है कि वहाँ भी इस अनाचार पर कोई बात ना होकर बात स्त्री को लक्ष्य करके कही जा रही है। वहाँ अमर्यादित आलोचनाओं का अंबार लगा हुआ है। कहीं वास्तविक विषय और चोट यह तो नहीं हैं कि धर्म की इस कालाबाजारी के व्यवसाय में इन तथाकथित स्त्री अवतारों के आगमन से धर्म के ठेकेदार औऱ पुरूष अवतार खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं ?  प्रश्न बहुत से हैं पर इनके जवाब हमें स्वंय ही ढूँढने होंगें कि आखिर हम लोग जिनका अनुसरण कर रहे क्या वाकई वो हमारी इस पाक श्रद्धा और विश्वास के वास्तविक हकदार हैं? हमें स्वंय जागरूक होने के साथ ही समाज को जागरूक करने के प्रयास करने होंगे जिनसे हमारी सांस्कृतिक विरासत अक्षुण्ण बनी रहे और हम अंधविश्वासों से ऊपर उठ सकें।

2 comments:

Unknown said...

an excellent analysis not only of the so called dharm gurus but also of the approach of the media!

विमलेश शर्मा said...

शुक्रिया..