भारतीय समाज प्रजातीय ,भाषीय, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा
विकास की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर अनेक जातियों एवं जनजातियों में बँटा हुआ
है। इनमें से जनजातीय वर्ग सामान्यतया उन लोगों का समूह है जो किसी निश्चित भू भाग
पर निवास करते हैं, विकास की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और वंचित हैं। निश्चित भू भाग की बात की जाए तो अब तो स्थिति
यह है कि जो भू-भाग कभी उनका था उन्हें वहीं से विकास के नाम पर बेदखल किया जा रहा
है। अगर सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में इस समुदाय को देखने का प्रयास करें तो इस
वर्ग के अपने रीति-रिवाज हैं, मान्यताएँ है जो उन्हें ग्रामीण एवं कस्बाई क्षेत्र
से अलग ठहराते हैं। वस्तुतः यह समाज जिसे आदिवासी समाज की संज्ञा दी जाती है, आदिम है और
सदियों से चली आ रही परम्परा, संस्कृति और मूल्यों का ही दूसरा नाम है । आज यही परम्परा, संस्कृति और इसकी रस्मों रवायतें अनेक खतरों का सामना कर ही
हैं। यह समाज मुख्यधारा के बनावटी उसुलों , चकोचौंध और तेज आवाजों के बीच सबसे कम
सुनी गई आवाजों में से एक है जिसे साहित्य में भी सबसे कम अभिव्यक्ति मिली है।
हमेशा से हाशिए पर रहा यह समाज अब एक चेतना और ऊर्जा के साथ साहित्य में प्रवेश कर
रहा है, जिसे हमें सहेजना है। हाशिए से केन्द्र की और आते हुए इन विषयों के लिए
हमारी जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है और इनके लिए उदय प्रकाश की यही पंक्तियां
याद आती है- “जो
प्रजातियाँ लुप्त हो रही है/ यथार्थ मिटा रहा है जिनका अस्तित्व/ हो सके तो हम उनकी हत्या में न हो शामिल। / और सम्भव हो तो सँभालकर रख लें, उनके चित्रः, ये
चित्र अतीत के चलचित्र है” 1 आदिवासी समाज इसकी समस्याओं और इसके
सांस्कृतिक अवदान पर हाल ही में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। साहित्य भी इससे अछूता
नहीं है। विभिन्न संगोष्ठियों, शोधों एवं
साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के माध्यम से इस वर्ग और इसकी समस्याओं को
केन्द्र में लाने का प्रयास किया जा रहा है। वस्तुतः 21वीं सदी में भू मंडलीकरण के
एक धमक के साथ प्रवेश करने के साथ ही हमारे देश में उन अस्मिताओं के संघर्ष के लिए
विमर्श की आवश्यकता महसूस हुई जो सदियों से पददलित और शोषित थी जो समाज का अंग तो
थी परन्तु किसी उपेक्षित और वंचित वर्ग की तरह जीवन यापन कर रही थीं। इन अस्मिताओं
में स्त्री, दलित और आदिवासी
चेहरे उभर कर आए और उन्हीं के करूण पीड़ित,कातर स्वर ने 21वीं शताब्दी में जेहाद की ही
तर्ज पर एक विमर्श छेड़ दिया जो आज भी जारी है। इन्हीं विमर्शों को दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और आदिवासी विमर्श के रूप में जाना जाता है।
समाज
में जो भी कुछ घटता है वह ही साहित्य में प्रतिध्वनि बन सुनाई देता है। वस्तुतः
साहित्य के सरोकार समय सापेक्ष बदलते रहते हैं।
एक सर्वथा उपेक्षित समाज जिसे हम आदिवासी दुनिया के नाम से जानते हैं वह
लगभग उतना ही प्राचीन है जितनी की मानव सभ्यता, उसके मूल्य और संस्कृति ।
इस आदिम सभ्यता को समय-समय पर अनेक संघर्षो का सामना करना पड़ा है। इस सभ्यता को
बार-बार अपने नैसर्गिक एवं शांत जीवन से बाहर खदेडनें का प्रयास किया गया हैं।
वैश्वीकरण के इस प्रतिस्पर्धात्मक दौर में यह वर्ग आज भी पूर्व की ही भांति संघर्ष
कर रहा है और अब उनका यह संघर्ष बहुराष्ट्रीय कंपनियों से भी है जो उनसे उनकी जमीन
छिनकर अपने धरों को सोने से भर रहे हैं। “जो पहले से रह रहा है उसकी जगह बाहर वाला आएगा तो निश्चित ही शांति भंग होगी,
जिससे संघर्ष अनिवार्य है। आदिवासियों के साथ यही हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक कई
आदिवासियों की जनसंख्या में कमी आई है। जो जनजातियाँ सूचीबद्ध है उनकी जनसंख्या
करीब 8 करोड़ है। उनमें 2 करोड़ आदिवासी विस्थापन के कगार पर हैं या विस्थापित किए
जा रहे हैं । एक तरफ उद्योग लगाए जा रहे हैं दूसरी तरफ विकास के नाम पर आदिवासी का
विस्थापन हो रहा है।”2
त्रासदी यह है कि तमाम सरकारी आश्वासनों के बाद भी यह विस्थापन और पलायन निरन्तर
जारी है।
आदिवासी
साहित्य की बात की जाय तो यह भले ही साहित्य की सीमा रेखा में अब आया हैं परन्तु
अपने लौकिक रूप में यह कई हजार वर्षों से हमारे बीच है। आदिवासी स्वर एक परम्परा
के रूप में कई समय से अभिव्यक्त हो रहा है फिर चाहे वह मौखिक रूप से ही क्यों न हो
। समय समय पर गैर आदिवासीयों द्वारा भी इनकी समस्याओं की ओर ध्यान खींचने को
प्रयास किया गया है और किया जा रहा है । आदिवासी
साहित्य के इतिहास पर अगर नजर डाले तो यह केवल लोककथाओं व लोक गीतों में ही सिमटा
हुआ नजर आता है। अगर इसके वर्तमान की बात की जाए तो आदिवासी समाज की तरह स्वयं
आदिवासी साहित्य भी अनगिनत चुनौतियों से जूझ रहा है। आदिवासी साहित्य पर लिखा जा
रहा कथा साहित्य एवं शोध प्रबंध दोहराव से ही अधिक गुजर रहे हैं। आदिवासी विषयक
शोधों की स्थिति तो यह है जो शोधार्थी इस विषय पर लेख लिख रहे हैं उन्हें न तो
आदिवासी जीवन का कोई परिचय है ना ही आदिवासी विषयक समाजशास्त्रीय और
नृतत्वशास्त्रीय सिद्धान्तों का कोई ज्ञान। नतीजतन ये शोध आदिवासी संवेदनाओं और
उसकी समस्याओं को छू भी नहीं पाते, विमर्श का
भागीदार बनना तो दूर की बात है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् साहित्य के कैनवास
पर कई रचनाएँ उभरकर आयी जो सही मायने में आदिवासी जीवन उसके संघर्ष और उसकी
संस्कृति की जांच पड़ताल करती हैं। आज भारत की विभिन्न आदिवासी भाषाओं, बोलियों मे उपलब्ध यह साहित्य एक भिन्न संस्कृति और
दृष्टिकोण का साहित्य है। इस साहित्य के अनुशीलन से यह तथ्य सामने आता है कि
आदिवासी समाज के जीवनदर्शन और मुख्यधारा के जीवन दर्शन में कोई समानता नहीं है।
आदिवासी समाज प्रकृति का रक्षक है, वह उसकी छाँव
में पलता है, बड़ा होता है और
अंततः विलीन भी हो जाता है। सहजीविता, सहअस्तित्व और
समानता की आदर्श प्रतिमूर्ति यह समाज नैसर्गिक तौर पर मौलिक है, इसकी अपनी परम्पराएँ है। वह अर्थ केन्द्रित और शास्त्र
शासित समाज नहीं है। वह सहज है और अगर
साहित्य में इसके दखल की बात की जाए तो अब
यह विमर्श बराबर दस्तक देता हुआ नजर आ रहा है। आदिवासी विशेषांक जिनमें ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘अरावली उद्घोष’, ‘दस्तक’ , और ‘समकालीन जनमत
प्रमुख है के निकलने से इस साहित्यिक प्रवृति को एक उत्तेजना प्राप्त हुई है। इस पद्धति
में मौलिक एवं अनूदित साहित्य दोनो ही अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। यह
साहित्य इस बात की प्रतिध्वनि बनकर गूंजता हुआ सा प्रतीत होता है कि अगर आदिवासी
समाज और उसकी नैसर्गिक परंपरा को बचाना है तो हमें जल, जंगल और जमीन को सुरक्षित रखना होगा। कमोबेश यही स्वर
ध्वनित होता है निर्मला पुतुल की कविताओं में तो कही महाश्वेता देवी के ‘जंगल’ के कुछ देवदार’ में। इसी क्रम में उपन्यास साहित्य की बात की जाय तो इस क्षेत्र में पुन्नी
सिंह, राकेश कुमार सिंह, विनोद कुमार, मधु काँकरिया, रणेन्द्र (लालचन्द असुर, ग्लोबल गाँव के देवता) संजीव (जंगल जहाँ शुरू होता है), गोपीनाथ मोहंती (अमृत संतान) ,अनुज लुगुन आदि का लेखन
अपने-अपने भूगोल के साथ आदिवासी जीवन की विषमताओं को प्रकट करता है। चाहे कविता हो
या कथा साहित्य ये सभी एक स्वर में यही बताते है कि औपनिवेशिक एवं निजी स्वार्थो
ने आदिवासियों का शोषण हर स्तर पर किया है.
'युद्धरत आम आदमी' का आदिवासी
विशेषांक आदिवासी साहित्य संस्कृति और उसके जीवन दर्शन को समग्रता से हिन्दी जगत
के समक्ष लाकर खड़ा कर
देता है।
आदिवासी समुदाय देश के हर हिस्से में निवसता है। राजस्थान में भील, मीणा, सहरिया, गाड़ोलिया लुहार जैसी अनेक जनजातियां उदयपुर, डुँगरपुर, बाँसवाड़ा, सवाईमाधोपुर के अनेक भू भागों पर अपना विस्थापित जीवन व्यतीत कर रही हैं। “ राजस्थान में जनजाति के रूप में भील, मीणा की संख्या लगभग 25 लाख मानी गई है। सन् 1901 में आदिवासियों की प्रथम जनगणना के समय देशी रियासतों के ‘राजपुताना’ में इनकी संख्या सिर्फ 3 लाख थी। इनकी सबसे घनी आबादी बागड़ (बांसवाड़ा और उदयपुर) में है।”3 अगर बात इस जन समुदाय के साहित्य की की जाए तो श्रुतपरम्परा के रूप में हजारों वर्षों पहले से ही मौजूद है परन्तु अगर आधुनिक युग और लिखित परम्परा की बात की जाए तो मानगढ़ पर केन्द्रित लेखन से ही इसका प्रारम्भ माना जाना चाहिए। अगर आदिवासी लोकसाहित्य की बात की जाए तो उनके पास लोकगीतों, लोककथाओं और वीरगाथाओं, प्रेम प्रसंगों और त्योहारों पर उकेरी गई घटनाओं की इतनी समृद्ध परम्परा है जिनमें सिर्फ इस जनजाति का इतिहास ही नहीं वरन् सम्पूर्ण पृथ्वी का इतिहास और भूगोल भी उलझ कर रह गया है। वस्तुतः समकालीन आदिवासी लेखन जीवन और प्रकृति से जुड़ाव का लेखन है। उनमें मनोरंजन और किस्सागोई को ढूँढना मुश्किल है, “उनकी कलम बिरसा के उलगुलान पर, झारखंड के जंगलों में अंग्रेजों के खिलाफ हुए संथाल कोल विद्रोह पर,सिद्ध कानू को दी गई फांसी पर सतत चल रही है।”4 तात्पर्य यही है कि आदिवासी लेखन का विषय उस समाज की पीड़ा और उसकी अस्मिता के लिए किया जाने वाला संघर्ष है़ और यह संघर्ष वह संघर्ष है जिसे वह सदियों से अब तक अनवरत झेल रहा है। इस लेखन की सफलता भी तभी मानी जाएगी जब उनके स्वर को साहित्य में उचित स्थान मिले।
आदिवासी समुदाय देश के हर हिस्से में निवसता है। राजस्थान में भील, मीणा, सहरिया, गाड़ोलिया लुहार जैसी अनेक जनजातियां उदयपुर, डुँगरपुर, बाँसवाड़ा, सवाईमाधोपुर के अनेक भू भागों पर अपना विस्थापित जीवन व्यतीत कर रही हैं। “ राजस्थान में जनजाति के रूप में भील, मीणा की संख्या लगभग 25 लाख मानी गई है। सन् 1901 में आदिवासियों की प्रथम जनगणना के समय देशी रियासतों के ‘राजपुताना’ में इनकी संख्या सिर्फ 3 लाख थी। इनकी सबसे घनी आबादी बागड़ (बांसवाड़ा और उदयपुर) में है।”3 अगर बात इस जन समुदाय के साहित्य की की जाए तो श्रुतपरम्परा के रूप में हजारों वर्षों पहले से ही मौजूद है परन्तु अगर आधुनिक युग और लिखित परम्परा की बात की जाए तो मानगढ़ पर केन्द्रित लेखन से ही इसका प्रारम्भ माना जाना चाहिए। अगर आदिवासी लोकसाहित्य की बात की जाए तो उनके पास लोकगीतों, लोककथाओं और वीरगाथाओं, प्रेम प्रसंगों और त्योहारों पर उकेरी गई घटनाओं की इतनी समृद्ध परम्परा है जिनमें सिर्फ इस जनजाति का इतिहास ही नहीं वरन् सम्पूर्ण पृथ्वी का इतिहास और भूगोल भी उलझ कर रह गया है। वस्तुतः समकालीन आदिवासी लेखन जीवन और प्रकृति से जुड़ाव का लेखन है। उनमें मनोरंजन और किस्सागोई को ढूँढना मुश्किल है, “उनकी कलम बिरसा के उलगुलान पर, झारखंड के जंगलों में अंग्रेजों के खिलाफ हुए संथाल कोल विद्रोह पर,सिद्ध कानू को दी गई फांसी पर सतत चल रही है।”4 तात्पर्य यही है कि आदिवासी लेखन का विषय उस समाज की पीड़ा और उसकी अस्मिता के लिए किया जाने वाला संघर्ष है़ और यह संघर्ष वह संघर्ष है जिसे वह सदियों से अब तक अनवरत झेल रहा है। इस लेखन की सफलता भी तभी मानी जाएगी जब उनके स्वर को साहित्य में उचित स्थान मिले।
राजस्थान का या राजस्थान के आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य यद्यपि अभी
बहुत कम है परन्तु जितना भी लिखा जा रहा है वह आदिवासी अस्मिता के संघर्ष के
इतिहास ,वर्तमान और भावी संभावनाओं पर प्रकाश डालता हुआ प्रतीत होता
है। राजस्थान के आदिवासी लेखक आदिवासी अस्मिता के आंदोलनों पर ,उसकी समस्याओं पर सजग लेखनी चला रहे हैं। उन्होने अपनी रचनाओं से यह जता
दिया है कि आदिवासी जब मूक था तब वह अपने प्रति हो रहे अन्याय का विरोध तीर चलाकर
किया करता था परन्तु अब वह कलम की शक्ति से परिचित हो गया है और ‘बोल कि लब आजाद है तेरे’ की उक्ति का अनुसरण करता हुआ अपनी लेखनी से
अपने ऊपर हुए अन्यायों का प्रतिशोध ले रहा है। अगर पत्रिकाओं के योगदान की बात की
जाए तो राजस्थान से निकलने वाली अरावली उद्घोष पत्रिका में आदिवासी चेतना के स्वर
स्पष्ट सुने जा सकते हैं। पथिक बाबा(वी.पी. वर्मा) द्वारा संपादित
यह आदिवासी पत्रिका आदिवासी समाज को लेकर पनपी भ्रांतियों के निराकरण और उनके कठोर
यथार्थ को तलाशने का विनम्र प्रयास है। 1986 से त्रैमासिक प्रकाशित होने वाली यह
पत्रिका आदिवासी जीवन दर्शन से जुड़े लेखकों और इस समुदाय की मूक आवाज को एक मुखर
मंच प्रदान कर रही है। हिन्दीभाषी आदिवासी लेखकों का प्रतिनिधित्व करने वाली इस
पत्रिका से प्रेरित होकर युद्धरत आम आदमी ने दो आदिवासी विशेषांक भी निकाले हैं। 'मनगढ सन्देश' एक अन्य पत्रिका
है जो बाँसवाड़ा से रमेश बढेरा निकाल रहे हैं। 'मीणा भारती' पत्रिका भी आदिवासी
समाज के लेखन और चिंतन को अपना स्वर प्रदान कर रही है। राजस्थान में इस समय हरि
राम मीणा,रमेशचन्द्र मीणा,शंकरलाल मीणा, मोहन पारगी,रमेश वढ़ेरा,गोगराय शेखावत
आदिवासी साहित्य पर बराबर अपनी लेखनी चला रहे हैं।
ऱाजस्थान के आदिवासी लेखकों ने अपनी लेखनी
से एवं शोधपरक दृष्टि से इतिहास को पुनर्जीवित करने का , उसे नवीन
दृष्टि से देखने का प्रयास किया है । इसी दृष्टि से उन्होने गोविन्द गुरू के
विद्रोह और कालीबाई के बलिदान और जनजाति समाज के संघर्ष को भी खोज निकाला है।
वी.पी.वर्मा पथिक एवं हरिराम मीणा के शोधपरक आलेख
आदिवासियों के दुख दर्द ,विस्थापन की वेदना और उनके
पुनर्स्थापन की मांग को अनेकानेक पहलुओं से पुरजोर तरीके से उठाते है। शंकरलाल
मीणा का लेखन ,उनके आलेख और विचार भी आदिवासी जीवन दर्शन और
उसके संघर्ष को प्रमुखता से उजागर करते हैं। रमेश चन्द्र वडेरा और खेमराज पारगी
राजस्थान की लोककथाओं औऱ जनगीतों के माध्यम से
आदिवासी साहित्य के इतिहास को प्रकाश में लाने का महनीय प्रयास कर रहे हैं।
इसी क्रम में भँवरलाल मीणा लोकगीतों के माध्यम से जनजातियों के साहित्य को प्रकाश
में लाकर इस जनजाति के सरस रूप को उजागर कर रहे हैं। आदिवासी मौखिक साहित्य मानवीय
मूल्यों एवं जीवन के श्रेष्ठ गुणों की अनुपम निधि है। इस समुदाय के अपने त्योहार
देवी देवता , आचार व्यवहार ,नियम और
संस्कृति है। लोक गीतों ,कथाओं के माध्यम से इन्हीं तत्वों
को उकेरने का प्रयास यहाँ के सभी लेखकों ने किया है। यह लोकसाहित्य बताता है कि
तथाकथित सभ्य समाज से यह असभ्य समाज कितना अधिक अकुंठित ,खुला
हुआ और स्वाभाविक है, जिनमें तमाम समस्याओं के पश्चात् भी
जीवन जीने की अदम्य लालसा है। इधर इस क्षेत्र में कुछ श्रेष्ठ
कहानियां भी आयी हैं,केदार नाथ मीणा की एक बहुत अच्छी कहानी है 'कामरेड मीणा’। आपके द्वारा संपादित एक कथा संकलन भी
आदिवासी कहाँनियाँ के नाम से आया है।
कविता के क्षेत्र में प्रभात राजस्थानी के उदीयमान कवि है। प्रकृति से नैकट्य और
आदिवासी पीड़ा उनकी कविताओं का मुख्य भाव है। वे लिखते हैं-“क्या प्रकृति की गंध जैसी चीज भी, उड़ जाएगी हमारी धरती से,चील की तरह”।5 प्रकृति की गंध कविता इस नैसर्गिक समाज की इसी
दर्द ,वेदना को उद्घाटित करती है कि क्या हमसे हमारी सुवास ही छिन जाएगी। सी.ए.सांखला,
ओम नागर, राम नारायण मीणा, हरि चरण अहरवाल और हरिराम मीणा की कविताएँ भी आधुनिक काव्य जगत में इस विमर्श
के साथ एक जरुरी हस्तक्षेप करती हुई सुनाई पड़ती है। इन सभी कविताओं में आदिवासी
समाज की पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। उनमें एक आग है ,आक्रोश है जो ना जाने
कितने ही समय से दहक रहा है। हरि चरण अहरवाल के शब्दों में- “तुम पैसों के पीछे खुद को समझते
सभ्य और श्रेष्ठ, कभी पत्तों और छालों से फटे पुरानों से ही कभी ढक लिया था अपना
तन ,बचा ली थी आबरू, न हम उसमें झांके कभी न हमने ही दिखाई उसे कभी”।6
राजस्थान के आदिवासी लेखन के फलक पर एक
नाम पूरी ऊर्जा के साथ चमकता हुआ दिखाई देता है और वह है हरि राम मीणा। मीणा जी
राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के जीवन दर्शन , संस्कृति और समस्याओं पर
अपनी नियमित लेखनी चला रहे हैं। आदिवासी संस्कृति नामक अपने लेख में आप आदिवासी जीवन और उनकी जीवन दृष्टि पर बहुत
निकटता से प्रकाश डालते हैं। मिसाल के तौर पर वे एक जगह भगोरिया प्रथा का उल्लेख
करते हैं। यह प्रथा उदयपुर, पाली , अरावली पर्वतांचल के मामाभील एवं गरासियों की
एक परम्परा है, जिसमें किसी लोक मेले में कोई नवयुगल अपने प्रेम
एवं भावी जीवन साथ गुजारने की सहमति का ऐलान दूर किसी टीले पर जाकर कर देते हैं और
बड़ो की सहमति ना मिलने पर भाग कर विवाह कर लेते हैं। भाग कर विवाह करने के कारण
ही इस प्रथा को भगोरिया नाम दिया गया है। ऐसे ना जाने कितने प्रसंग है , कितने रोचक प्रसंग है इस जनजीवन में जहाँ प्रेम और मूल्यों को प्राथमिकता
दी जाती है, इन्हीं प्रसंगो पर वे अपनी किताब ‘आदिवासी दुनिया’ लिखते हैं। इस किताब में वे आदिवासियों की भाषा,इतिहास और मिथकों पर लिखते हैं साथ ही आदिवासियों की अनेक गोत्रों
सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी देते हैं।
राजस्थान में मानगढ़ वह स्थान है जहां
जलियांवाला बाग हत्याकांड से पूर्व ही लगभग दो हजार निर्दोष आदिवासी लोगों को
अंग्रेजों और औऱ देशी रियासतों ने गोलियों से भून दिया था। इस तथ्य और इस स्थान को
खोजने का यह प्रयास सर्वप्रथम हरिराम मीणा ने किया और ‘पहल’ पत्रिका के माध्यम से यह वृतांत
पहली बार देश के सामने आया। आपका‘ जंगल जंगल जलियांवाला’ यात्रा वृतांत भी आदिवासी आदिवासी समुदाय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व उसके संघर्ष
को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि क्या सचमुच ऐसा
घटित हो चुका है। क्या अंग्रेजों के ही
साथ साथ देशा रियासतें भी इतनी क्रूर और अमानवीय हो सकती हैं ? ऐसे अनगिनत प्रश्न यह यात्रा वृतांत हमारे समक्ष
छोड़ता है। इस यात्रा वृतांत में राजस्थान के मानगढ़, भोला, बिलोरिय़ा और
पालचितरिया स्थानों की यात्राओं का वृतांत है।
मानगढ़ आंदोलन की ही पृष्ठभूमि पर केंद्रित और
बिहारी सम्मान से सम्मानित महत्वपूर्ण रचना है ‘धूणी तपे तीर’ ।
यह उपन्यास वस्तुतः एक ऐतिहासिक जरूरत को पूरा करता है। हरिराम मीणा अपने इस
उपन्यास को मानगढ़ के उन आदिवासी वीरों और वीरांगनाओं को समर्पित करते हैं जिन्होंने
अंग्रेजों एवं सामन्ती शासकों के विरूद्ध, उनकी सामन्ती व शोषक मानसिकता
के विरुद्ध महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी। इस लड़ाई में सुगनी, पानो व कमली जैसी बहादुर स्त्रियाँ भी अपनी भागीदारी निभा
रही थी जो अपनी अस्मिता, अपनी परम्परा, अपने जंगल और जमीन के लिए मौत से भी नहीं डरी.। इस उपन्यास में
सम्प सभा के गठन उसकी कार्यशैली, वैचारिकी, दर्शन और गोविंद गुरु के आदिवासी समाज के लिए किए गए संघर्ष
को पूरी सत्यता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। मानगढ़ पर्वत जो आदिवासियों के बलिदान की
गाथाओं से अनुरंजित है, सदियों से
इतिहास की कंदराओं में छिपा रहा है। वस्तुतः यहां जलियांवाला बाग जैसी ही घटना
अमृतसर से छः वर्ष पूर्व ही दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा में
घटित हो चुकी थी जिसमें जलियांवाला से चार गुना अधिक शहादत हुई। दुःख इस बात का है कि दोनों ही घटनाएँ दुखद हैं
पर जलियांवाला काण्ड को हम भूला नहीं पाते हैं और इस शहादत को लगभग भूला दिया गया
है। औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन
एवं देशी सामंती प्रणाली के विरुद्ध आदिवासियों के संघर्ष की इस गाथा को
उपन्यासकार हरिराम मीणा ने वर्षों के अनुसंधान से लिखा है। 'धूणी तपे तीर ' में धूणी से आशय
उस पवित्र स्थान से है जिसे राजस्थान के आदिवासी धूणी माता के रूप में पूजते हैं। यही वह स्थान है जहां पर गोविंद गुरु ने
अपने आदिवासी साथियों में चेतना को जाग्रत कर शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने का बिगुल
बजाया। " हम एक माँ के पेट के जाए तो
है नहीं पर धूणी माता की गोद में पलकर हम एक से भगत
बने हैं। " 7 अर्थात् चेतना की धूणी में तपकर
जहां असंख्य तीर रूपी भगत पैदा हुए वह स्थान ही है धूणी। इस समूचे उपन्यास में राजस्थान की भील, मीणा व सहरिया जनजातियों की संस्कृति, आचार, व्यवहार को
अत्यंत ही निकटता से देखने का प्रयास किया गया है। उपन्यास में अनेक स्थानों पर ऐसे प्रामाणिक तथ्यों का उल्लेख किया गया है
जिससे इसकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध सी लगने लगती है। इसमें बताया गया है कि “वह दौर ऐसा था जब यहाँ वहाँ
आदिवासियों को परेशान किया जाता था। कोई भी उल्टा
सीधा बहाना ढूँढकर उन्हें थानों में बंद कर दिया जाता था, फर्जी मुठभेड़ों में उनकी हत्या कर दी जाती.। आशंकित विद्रोह को देखकर संभावित नायकों
पर झूठे इल्जाम लगाकर कठोर सजा दे दी जाती या फिर फाँसी पर चढा दिया जाता या मौत
के घाट उतार दिया जाता। इस प्रकार के
नृशंस अत्याचार अंग्रेजों के लिए आम बात थी।”8 गोविंद गुरू ने ऐसी घटनाओं के विरोध स्वरूप ही सम्प सभा का
गठन किया और मानगढ पर्वत पर विद्रोह किया जिसे राजस्थान के जलियांवाला काण्ड के
नाम से जाना जाता है। प्रस्तुत
उपन्यास में आदिवासी समुदाय के सबल और निर्बल पक्षों को भी प्रमुखता से प्रस्तुत
किया गया है। इस प्रकार एक ओर इस रचना में 1857 के पश्चात् रियासती सत्ता द्वारा किए जाने वाले
अत्याचार, ब्रिटिश राज के अत्यधिक हस्तक्षेप और उनके शोषण, दमन और अभावों में जूझते आदिवासी दिखाए गए हैं वहीं दूसरी तरफ मानगढ़ पर धूणी जमाये संप सभा के आदिवासी नायक और प्रमुख नायक
गोविंद गुरू के संघर्ष की कथा बतायी गयी है ।वास्तव में धूणीयों पर तपते तीरों की
ही कथा है ‘धूणी तपे तीर’।
मानगढ़ आंदोलन पर लिखी गई अन्य रचनाओँ में ‘मगरी मानगढ़ः गोविन्द गिरी’ उपन्यास(राजेन्द्र मोहन भटनागर)एवं ‘मोर्चा मानगढ़’ नाटक (घनश्याम प्यासा गढ़ी) भी उल्लेखनीय है। राजेन्द्र मोहन भटनागर के अनुसार मानगढ़ काण्ड अनायास ही जलियांवाला बाग की याद ताजा करा देता है। तब भी अंग्रेजों ने निहत्थी भीड़ पर अंधाधुंध गोलियों की वर्षा की थी उस समय पन्द्रह से बीस हजार लोग वहाँ इकट्ठा हुए थे। उपन्यास के प्रारम्भ में ही लेखक यह स्वीकार करते हैं कि “राजस्थान के भील घोरतम उपेक्षा ,अनादर और प्रतिकूल परिस्थतियों में भी अपनी स्वतंत्रता और देश की स्वतंत्रता, मान सम्मान की परम्परा और त्याग बलिदान की प्रतिष्ठा के लिए सदैव समर्पित रहे हैं। अतः धोरों का यह रक्तरंजित इतिहास भूलाया नहीं जा सकता।” 9
मानगढ़ आंदोलन पर लिखी गई अन्य रचनाओँ में ‘मगरी मानगढ़ः गोविन्द गिरी’ उपन्यास(राजेन्द्र मोहन भटनागर)एवं ‘मोर्चा मानगढ़’ नाटक (घनश्याम प्यासा गढ़ी) भी उल्लेखनीय है। राजेन्द्र मोहन भटनागर के अनुसार मानगढ़ काण्ड अनायास ही जलियांवाला बाग की याद ताजा करा देता है। तब भी अंग्रेजों ने निहत्थी भीड़ पर अंधाधुंध गोलियों की वर्षा की थी उस समय पन्द्रह से बीस हजार लोग वहाँ इकट्ठा हुए थे। उपन्यास के प्रारम्भ में ही लेखक यह स्वीकार करते हैं कि “राजस्थान के भील घोरतम उपेक्षा ,अनादर और प्रतिकूल परिस्थतियों में भी अपनी स्वतंत्रता और देश की स्वतंत्रता, मान सम्मान की परम्परा और त्याग बलिदान की प्रतिष्ठा के लिए सदैव समर्पित रहे हैं। अतः धोरों का यह रक्तरंजित इतिहास भूलाया नहीं जा सकता।” 9
‘मोर्चा मानगढ़’ मानगढ़ आंदोलन पर आधारित आठ अंकों का ऐतिहासिक नाटक
है जो स्वतंत्रता संग्राम में बांगड़ अंचल के आदिवासियों के संघर्ष एवं योगदान को
चित्रित करता है। नाटक का शीर्षक मानगढ़ हत्याकांड की ओर हमारा ध्यान खींचता है।
उपन्यास में बताया गया है कि मानगढ़ अर्थात् वह स्थान जहाँ विभिन्न आदिवासी जत्थे
स्थानीय महारावलों,राजाओं
एवं जागीरदारों के साथ भूरेटियों से मानगढ़ पर्वत पर मोर्चा लेते हैं। इस नाटक में
आदिवासियों में जोश भरता हुआ एक गीत भी है,
“भूरेटिया नी मानूं रे नी मानूं ”। यह गीत वस्तुतः आदिवासी चेतना की मुखर प्रतिध्वनि
के रूप में ही बार बार अभिव्यक्त होता है। मानगढ़ केन्द्रित
इन तीनों रचनाओं की विषयवस्तु समान है, तीनों के नायक भी एक ही हैं,गोविन्दगिरी।
उनका एक मात्र ध्येय था सम्प सभा के माध्यम से बांगड़ प्रदेश के आदिवासियों की
सेवा करना। वे अपने प्रयासों से आदिवासियों में जागरूकता लाते हैं,शिक्षा का
प्रसार करते हैं तथा समता की स्थापना करने का प्रयास करते हैं। अगर सही मायने में
देखा जाए तो इसी चेतना और जागरूकता की आवश्यकता अब भी आदिवासी समाज को है। राजस्थान के
आदिवासियों पर लिखी गई अन्य रचनाओं में 'सहराना'(पुन्नी सिंह) ,' मीणा घाटी '(सोहन शर्मा) और 'गमना '(हबीब कैफी) महत्वपूर्ण है। सहराना उपन्यास राजस्थान की आदिम
जनजाति सहरिया के जीवन और समस्याओं पर आधारित है। सहरिया राजस्थान का सर्वाधिक
पिछड़ा और शोषित आदिम समाज है।‘सहराना
का अर्थ है सहरियाओं की बस्ती’
और इस बस्ती का प्रमुख पात्र है ‘सोमा’। इस उपन्यास में सहरिया जनजाति की जमीन के गलत
बँटवारे की समस्या को प्रमुखता से उजागर किया है। पुन्नीसिंह ने इस उपन्यास में
सहरिया जनजाति के दुख दर्दों को ,उसके
जीवन के विविध पक्षों को पूरी मार्मिकता के साथ उकेरा है। आदिवासी समाज यौन शुचिता
के मामले में उदार और प्रगतिशील है। “ सहराना में भी प्रेम और यौन मामलों में शुचिता का
उतना आग्रह नहीं दिखाई पड़ता है। सोमा (मुख्य पात्र) के अपनी पत्नी चंपा से अलग
होकर लाड़िली के साथ रहने के बावजूद बाद में पूरा सहराना उसे स्वीकार कर लेता है।
लाड़िली भी सोमा से अलग होने के बाद बल्ला के साथ रहने लगती है।”10 राजस्थान के ही आदिवासियों पर लिखे गए अन्य
उपन्यास है ‘मीणा
घाटी’ और ‘गमना’। सोहन शर्मा के ‘मीणा घाटी’ उपन्यास के कथानक का परिवेश राजस्थान की मेवाड़ रियासत है जहाँ पर यह दर्शाया
गया है कि रियासत में बसे भील ,मीणा और अन्य अल्पसंख्यक समाज अंग्रेजों और रजवाड़े
दोनों के शोषण के शिकार है। ‘अमरा’ के संघर्ष के माध्यम से इस उपन्यास में एक ऐसे
चरित्र को गढा गया है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श बना रहेगा। हबीब कैफी ‘गमना’ में जनजातीय समाज पर दिकूओं के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को चिन्हित करते
हैं और इसकी खासियत यह है कि बरसों पहले लिखा होने पर भी .यह आज भी समसामयिक है। इन सभी
उपन्यासों में यह बताने का प्रयास किया गया है कि आदिम समाज वस्तुतः सहजता और
समानता की संस्कृति है। वे न तो किसी दूसरे के धर्म और जीवन दर्शन का अपमान करते
हैं ना ही घृणा। उनका धर्म भी उन्हीं के समान सहज है , उनके पूर्वज और प्रकृति ही
उनके ईश्वर है। वहाँ छल नहीं है, वरन् रिश्तों में अपनापन बसता है। इन रचनाओं में
राजस्थान के आदिवासी समाज, उनके
जीवन सौन्दर्य,दर्शन
,अस्मिता, संस्कृति को उनकी समस्याओं को अलग
अलग कोणों से समझने का प्रयास किया गया है।
राजस्थान में और
राजस्थान के आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य भले ही अल्प हो परन्तु इसकी दिशा इसके
उज्जवल भविष्य के प्रति आशान्वित करती है। यह साहित्य प्रतिबद्ध साहित्य है जिसका
एक मात्र ध्येय समाज और मानव का कल्याण है। यह लेखन जमीन से जुड़ा है, धूणीयों की
आँच में तपकर कुंदन बना है और सदैव वसुधैव कुटुम्बकम् में विश्वास करता है। हम
आशान्वित हैं कि चेतना और साक्षरता की किरणों
से सराबोर यह साहित्य न केवल अपने विचारों से आदिवासी समाज में एक नवीन
चेतना का प्रवाह करेगा वरन् जल, जंगल और
जमीन के रखवालों को एक सम्माननीय और सुखद भविष्य को प्राप्त करने का साहस भी
प्रदान करेगा।
संदर्भ-
1. इंडिया टुडे –
साहित्य वार्षिकी (1995-96) पृ. 127
2.आदिवासी अस्मिता के पड़ताल करते हस्ताक्षर – सं. रमणिका गुप्ता, स्वराज
प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ.72
3.आदिवासी भील –मीणा – संतोष कुमारी,प्रकाशक- युनिक ट्रेडर्स,जयपुर,पृ.17,18
4.आदिवासी साहित्य एवं संस्कृति- सं. विशाला शर्मा,दत्ता कोल्हारे ,लेय़-रमणिका गुप्ताः आदिवासी चेतना, साहित्य और संस्कृति का मूल्यांकन,पृ.23
5.समकालीन आदिवासी कविता (कविता- प्रकृति की गंध)-सं. हरिराम मीणा,अलख
प्रकाशन,जयपुर,पृ.64
6. समकालीन आदिवासी कविता (कविता- तुम क्या समझते हो ?)-सं. हरिराम मीणा,अलख प्रकाशन,जयपुर,पृ.98
7 हरिराम मीणा- धूणी तपे तीर-
साहित्य उपक्रम,पृ 375
8. हरिराम मीणा- धूणी तपे तीर- साहित्य
उपक्रम,पृ 128
9.मानगढ़ आंदोलन केन्द्रित हिन्दी साहित्य- पिन्टू कुमार
मीणा,अलख प्रकाशन,जयपुर,पृ.52
10.आदिवासी
साहित्य एवं संस्कृति- सं. विशाला शर्मा, दत्ता कोल्हारे, पृ. 62,सहराना आदिवासी
और सहराना लेख से,स्वराज प्रकाशन,दरियागंज,नई दिल्ली।
1 comment:
आपका आलेख पढ़ा। कई नई जानकारी मिली। लेखन ज़ारी रहे.
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