Friday, November 14, 2014

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                     ज़रूरी है सहेजना बचपन को....


किसी भी व्यक्ति का बचपन उसकी स्मृतियों का महत्वपूर्ण पड़ाव होता है जहाँ जीवन के सबसे निश्छल, पवित्र और अनगढ़ लम्हे थिरकते रहते हैं। जिस तरह धरती की कोख में सृजन का सुख छिपा रहता है और अवसर आने पर वह फूट पड़ता है ठीक वैसी ही हैं ये कोमल स्मृतियां जिनसे सम्पूर्ण जीवन स्पंदित होता रहता है। बचपन वो वक्त जहाँ हर कोई खुद को तीन जहानों के सुल्तान की मानिंद समझता है, जहाँ दादी नानी के आँगन की छाँव बसती है, और जेब में बतासों सी मीठी खुशियाँ भरी रहती हैं। हम जब अपने अतीत में चहलकदमी करते हैं तो कमोबेश यही रंग हमारे जेहन में उभरते हैं परन्तु जब मैं मेरी पीढ़ी के बचपन और आज के बचपन की तुलना करती हूँ तो पाती हूँ कि कितना परिपक्व और संवेदनाविहीन हो गया है आज का बचपन। बचपन को देख जो भाव और मासूमियत सीधे दिल में उतर जाया करती थी वह आज नदारद है। आज गीली मिट्टी सा कोरा यह बचपन अनेक सांचों में एक साथ ढलाए जाने की पीड़ा से गुजर रहा है। अत्याधुनिक तकनीक  के दौर और माता- पिता की अपेक्षाओं की दोहरी मार झेलते बच्चें आज बेहद तनाव से गुजर रहे हैं। पढ़ाई के साथ साथ हर क्षेत्र में परफेक्ट बनने की होड़ में आज का बचपन डिप्रेशन का शिकार हो रहा है। अगर इस दिशा में किए गए शोध और    सर्वे की बात की जाए तो हाल ही में राजधानी दिल्ली में करीब 11 फीसदी स्कूली छात्रों में डिप्रेशन के लक्षण पाए गए हैं। रांची इन्स्टीट्यूट आँफ न्यूरो साइकियाट्री एंड एलायड सांइस (रिनपास) ने दिल्ली के लगभग 3000 बच्चों का सर्वे किया जिसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। नतीजों में यह पाया गया कि लगभग 11.2 फीसदी छात्र डिप्रेशन के शिकार थे ,6.3 फीसदी छात्रों में आंशिक तनाव के लक्षण मिले और 10.7 फीसदी बच्चों को अकेलापन पंसद था। इसी के साथ लगभग 26.5 फीसदी बच्चों में खुद को चोट पहुँचाने के लक्षण पाए गए। ये आँकड़े चिन्ता में डालने वाले तो हैं ही  साथ ही सोचने पर भी मजबूर करते हैं कि क्या कारण है कि आज अत्यधिक सतर्कता और सुविधाओं के साथ पला बढ़ा यह बचपन  अकेला, आक्रामक और असंवेदनशील हो गया है।
अगर गौर किया जाए तो इस समस्या की जड़ों में कहीं ना कहीं हम स्वयं ही हैं और अगर हमने समय रहते इस पौध को नहीं संभाला तो इनका भविष्य एक ऐसे बियाबान सा होगा जिसमे तनाव और डिप्रेशन की दीमक लगी होगी। इस गला काट प्रतिस्पर्धा की दौड़ में हमने अपनी इच्छाओं और अपेक्षाओं का बोझ मासूम कंधों पर डाल दिया है। मिसाल के तौर पर अगर किसी स्कूल की पैरेंट टीचर मीटिंग को ही लिया जाए तो हर शिक्षक लगभग एक ही शिकायत सुनता है कि मेरे बच्चे को आप हर गतिविधि में भाग लेने का अवसर नहीं प्रदान करते। हर गतिविधि में एक सीमा में ही बच्चों को भाग लेने का अवसर मिल पाता है ऐसे मे शिक्षक और बच्चा दोनों ही इस उधेड़बुन में रहते कि आखिर कैसे इन अतिउत्साही अभिभावकों को संतुष्ट किया जाए। यही अपेक्षाएं प्रतिस्पर्धाओं को जन्म देती हैं और नतीजा यह होता है कि माता-पिता बच्चों के आपसी सहज व्यवहार में भी स्वार्थ का बीज रोप देते हैं। यही कारण है कि उनके बीच आपसी समझ और सहयोग की भावना समाप्त हो जाती है और जब वे मिलते हैं तो एक आभासी आवरण ओढे हुए होते हैं जिसमें दोस्ती और स्नेह जैसे भावों का अभाव ही होता है। कामकाजी माता-पिता बच्चों के साथ वैसे ही कम समय व्यतीत कर पाते हैं ऐसे में जब वह अपने मित्रों की टोली से भी बिछड़ जाता है तो वह तकनीक और इंटरनेट की छांव में पलता बढ़ता है जो उसके व्यक्तित्व को कृत्रिम बना देते हैं। टी.वी और गेम्स बच्चों की एकाग्रचित्ता में तो कमी लाते ही है साथ ही उनकी याददाश्त पर भी असर डालते हैं। व्हाट्स एप्प और मोबाइल के बढ़ते प्रयोग से बच्चों की दिमागी कसरत नहीं हो पाती और इयर फोन के बढ़ते प्रयोग से इनकी श्रवण शक्ति भी कम हो जाती है।
एक पल के लिए सोचे तो कितने अवरोधों से गुजर रही है आज की यह नन्हीं पौध, कितनी खोखली हैं इसकी जड़ें और आखिर कैसा पोषण मिल रहा है उसे?  और हम इन सभी सवालों को दरकिनार कर हमारी नजरें केवल इसकी उत्पादकता पर टिकाए रहते है जिसके श्रेष्ठ रहने की कोई सम्भावना नहीं। आखिरकार हम जैसा बीज बो रहे हैं जैसा खाद- पानी दे रहे हैं वैसी ही तो फसल होगी। हमारे जीवन में अनेक ऐसे पल आते हैं जब ये बच्चें ही हममें एक ऊर्जा, उमंग का संचार करते हैं । एक नया हौंसला भरते हैं आज दरकार हैं इनकी ऊर्जा और मासूमियत को एक सही दिशा और गति प्रदान करने की। आज हम बच्चों पर उच्छृंखलता का आक्षेप लगाते हैं पर उनके इस व्यवहार के पीछे भी कहीं ना कहीं हम ही हैं। हो सकता है बच्चे हमेशा हमारी बात नहीं सुने, ऐसा भी हो सकता है कि वे हमारा हर कार्य जो हम पूर्ण समर्पण के साथ करते हों नहीं देख पाएं पर वे एक चीज हमेशा महसूस करते हैं जो है हमारा व्यवहार और वे उससे ही सर्वाधिक प्रभावित भी होते हैं।अतः सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता हमारे व्यवहार पर है। हम बच्चों की प्रशंसा केवल और केवल उनके श्रेष्ठ प्रदर्शन पर करते हैं वे हमारे इस व्यवहार को भी एक संस्कार की तरह ग्रहण करते हैं और इस विश्वास के साथ कर्मक्षेत्र में आगे बढ़ते हैं कि केवल अच्छा प्रदर्शन ही हमें प्रशंसा प्राप्त करा सकता है और धीरे –धीरे वे इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवन मूल्यों और सिद्धांतो से भी समझौता कर बैठते हैं। वस्तुतः यही स्वार्थ और समझौतावादी जीवन दर्शन ही उनके भावी व्यवहार की निर्मिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आज बचपन एक चिंतनीय दशा में है, वह एक संक्रमण की अवस्था से गुजर रहा है।जहाँ एक और हमारे जीवन मूल्य हैं वही दूसरी और तकनीक का बढ़ता प्रयोग और होड़। इस मासूमियत को सहेजने के लिए हमें गंभीरता से प्रयास करने होंगें। हमें संयम से काम लेना होगा क्योंकि परिणाम हमें एक ,दो या कुछ दिनों में प्राप्त नही होने वाले, इस स्थिति को सुधारने के लिए हमें बदलाव अपने स्तर से करने होंगे। हमें अपने ही व्यवहार से बच्चों को यह सिखाना  होगा कि कठिन से कठिन स्थिति का कैसे सामना किया जाता है। इसी के साथ हर व्यक्ति का आदर करना और लेने की अपेक्षा देने के सुख की महत्ता समझानी होगी। उनके विचारों को सही दिशा में मोड़ना होगा और चूँकि उनके विचारों के केन्द्र में हम हैं अतः हमें सजग होकर स्वयं में बदलाव लाने होंगे।
बच्चे आज भ्रमित हैं ,अकेले हैं और वैचारिक स्तर पर अपरिपक्व हैं इसलिए उनके व्यक्तित्व की दिशा को कोई भी मोड़ सकता है । यही कारण है कि आज कई बच्चे गलत संगत व लत में पड़कर अपना जीवन अँधेरे में धकेल रहे हैं। कुंभकार जिस प्रकार मिट्टी को कल्पित आकृति प्रदान करता है और उसे अग्नि के संसर्ग से गुजारकर अपने उद्देश्य में सफल होता है और एक मूर्त रूप प्रदान करता है ठीक वैसे ही हमें बचपन रूपी कोरी मिट्टी को आकार प्रदान कर, परिस्थतियों के तपन की शक्ति प्रदान कर एक श्रेष्ठ नागरिक में रूपान्तरित करने का प्रयास करना होगा। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होगी परिवार की और माता-पिता की अतः आज आवश्यकता है सजग पैरेंटिग की जो बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार करे , उन्हें संवेदनात्मक रूप से मजबूत बनाए और एक ऐसी सुदृढ जमीन तैयार करे जिस पर मानवता की फसल लहलहा उठे।