‘साहित्य के आइने में घूमती प्रतिरोध की संस्कृति’
आदिवासी साहित्य और इसकी संभावनाओं पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है,लिखा जा रहा है पर स्थिति जस की तस है..इस समाज का जीवन दर्शन जितना सरल है,समस्याएँ उतनी ही जटिल.जल, जंगल और जमीन से जुड़ा यह आदिम समाज आज अपनी ही जमीन से खदेड़ा जा रहा है.इस समाज की समस्याओं के तह में जाने से पूर्व इसकी पृष्ठभूमि जान लेना अतीव आवश्यक है। आदिवासी समुदाय सदियों से मुख्यधारा से कटा रहा है। यही कारण है कि आधुनिकता के तय मानदण्डों के अनुरूप वह अब भी पिछड़ा है। यह समाज कभी अपनी इच्छा से तो कभी समाज के जटिल सामाजिक नियमों की आड़ में दूर दराज जंगलों में तो कभी पहाड़ों में तो कभी पाताललोक जैसी दुरूह और जटिल स्थानों पर खदेड़ा गया है। इस समुदाय की अपनी एक संस्कृति है, रस्मों रिवाज है और उन्हीं के अनुसार अपने ही तय नियम और कानून भी। आज यह समाज अपने भिन्न भिन्न नामों और रूपों में हमारे देश के मानचित्र पर सिमटा हुआ सा चिन्हित किया जा सकता है। ये जनजातियां हमारे बीच ही उपस्थित हैं चाहे वे पेरू के माची ग्वेकाओं हों या झारखंड के बिरहोर, शबर, कोरबा, असुर या राजस्थान की सहरिया भील या मीणा जनजाति, ये सभी आज भी अपने ही संघर्षों में सिमटे हुए एक गुमनाम जीवन जीने को अभिशप्त हैं। भारतीय संविधान में आदिवासी समुदायों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है -जिनमें अलग-अलग भू-भाग में निवास करना, अनूठी सांस्कृतिक परम्परा, प्रगति की दृष्टि से जो पिछड़े हैं तथा जो अपने ही समुदाय में सिमटे हैं जैसे तत्वों को समावेशित किया गया है।
अगर इसी क्रम में इस धारा के साहित्य की बात की जाए तो यह अभी बहुत अधिक संख्या में प्रकाश में नहीं आ पाया है। हिन्दी साहित्य में इस प्रवृति विशेष और समुदाय विशेष की समस्याओं से ओतप्रोत लेखन की बात की जाए तो यह संख्या की दृष्टि से अत्यल्प ही है। “भारत के संदर्भ में आदिवासी साहित्य सृजन को तीन रूपों में विभक्त कर सकते हैं-प्रथम- आदिवासियों का परंपरागत वाचिक साहित्य, दूसरा गैर आदिवासियों (औपनिवेशिक शासन के समर्थक एवं विरोधी वर्ग द्वारा लिखा गया साहित्य) द्वारा आदिवासी जीवन पर लिखा गया साहित्य और तीसरादृआदिवासी तबकों के शिक्षित वर्ग का लेखन।”1 आधुनिक साहित्य में विमर्शों की भीड़ में इसे आदिवासी लेखन, आदिवासी विमर्श या आदिवासी साहित्य की संज्ञा प्रदान की गई है। हिन्दी साहित्य में आदिवासी विमर्श अब कोई नया विमर्श नहीं रह गया है। यद्यपि विमर्शों की दौड़ में फिलवक्त स्त्री और दलित विमर्श ही केन्द्र में हैं परन्तु इन्हीं के साथ आदिवासी विमर्श भी अपनी जगह बनाने की कशमकश में रत दिखाई पडता है।
वर्तमान में उत्तर आधुनिकता की बयार में जो मुख्यधारा की नवीन संस्कृति फल-फूल रही है वो अतिस्वार्थ और अहम् केन्द्रित है। आधुनिक समाज के जीवन मूल्य प्रतिस्पर्धा और संघर्ष प्रेरित हैं। ऐसे में आदिवासी जन जीवन इनसे दूर भागने का प्रयास करता है। जब हम आदिवासी समाज के जीवन संघर्ष और चुनौतियों की बात करते हैं तो वैश्विक पटल पर बिखरे तमाम आदिवासी समूह एवं जनजातियां अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत दिखाई पड़ते हैं। आधुनिक समाज उनके सामने अधिक विकल्प नहीं छोडते हुए केवल दो ही मार्ग रखता है या तो वे मुख्यधारा का आधिपत्य स्वीकार कर लें या फिर अपने अत्यन्त सीमित संसाधनों में लुक छिप कर जीते हुए अपने भौतिक अस्तित्व की समाप्ति के लिए स्वयं को समर्पित कर दें। अब इस संस्कृति ने दबे स्वर में ही सही प्रतिरोध करना प्रारम्भ कर दिया है, यद्यपि यह प्रतिरोध हमेशा से ही करना पड़ा है परन्तु अब यह संघर्ष अस्मिता को लेकर है और पूर्व से कुछ अधिक मुखर है और सम्भवतः इसीलिए इसे अब प्रतिरोध की संस्कृति भी कहा जाने लगा है।
भूमंडलीकरण के इस दौर में आदिवासियों से सम्बंधित अनेक समस्याएं विश्व समुदाय के समक्ष मुंह बाए खडी है। इन समस्याओं में नस्ल भेद ,रोटी, कपड़ा-मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता, विस्थापन की समस्या और पहचान का संकट आदि प्रमुख हैं। इन्हीं के साथ समय-समय पर परम्परागत आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की बात भी उठायी जाती है। प्रगति व विकास की बयार में अपनी हिस्सेदारी दर्ज करने के लिए किसी भी मौलिक संस्कृति में परिवर्तन होना अनिवार्य है।आदिवासी संस्कृति को लेकर यह कयास लगाया जाता है कि परिवर्तन होने पर यह अपनी पहचान खो देगी। परन्तु यहां एक बात जोड़ना आवश्यक है कि आदिवासी संस्कृति सदा से ही खुली रही है यहां इसकी मौलिकता पर खतरा उठने की बात भी निरर्थक है क्योंकि यह संस्कृति सदैव ग्रहणशील रही है और इसी कारण यह विकास के तमाम पहलुओं को आत्मसात करती हुई समृद्ध होती जाएगी। इस संस्कृति के जीवनदर्शन में एक नैरन्तर्य और गत्यात्मकता रही है। हाँ, शिक्षा को लेकर यह वर्ग अब भी पिछडा है । शिक्षा किसी भी संस्कृति के नव सृजन संवहन और परिवर्धन के लिए परम आवश्यक है। अतः किसी भी संस्कृति के लिए उसकी मातृभाषा में शिक्षण विकास की दृष्टि से एक सकारात्मक पहल हो सकती है। आदिवासी पारम्परिक ज्ञान एवं संस्कृति से सम्बंधित साहित्य जिस भी रूप में उपलब्ध है उसे अनूदित कर पाठ्यवस्तु में शामिल करें तो आदिवासी संस्कृति के भाषाई सौन्दर्य से तो हम अवगत होंगे ही साथ ही आदिवासी गल्प ,मुहावरे, प्रतीक, बिम्ब, कथाओं, मान्यताओं, विश्वास और दर्शन की जानकारी आदिवासी नयी पीढी और गैर आदिवासी ग्लोबल समुदाय को प्राप्त होगी। भाषायी पहचान हासिल होने से इस संस्कृति को प्रोत्साहन भी मिलेगा जिससे उन्हें हाशिए पर होने के एहसास से भी मुक्ति मिलेगी।
आदिवासी साहित्य या लेखन के उद्देश्य पर प्रकाश डाला जाए तो यह साहित्य आदिवासी जीवन का प्रमाणिक दस्तावेज होने के साथ-साथ प्रकृति से नेकट्य के कारण बहुत से ऐसे पहलुओं पर प्रकाश डालता है जो अनछुए हैं। साथ ही यह उन सभी संघर्षों को एक साथ लाने का प्रयास करता है जिनके दंश झेलते हुए यह समाज सूखी झाडियों सा रसहीन जीवन जीने को अभिशप्त है। पूर्वाेत्तर के आदिवासियों ने अपनी अस्मिता को बचाए रखने के लिए कई आंदोलन किए हैं और इसी के साथ उन्होंने अपनी संघर्ष की प्रत्यंचा पर कलम भी चलाई है। । असम,मिजोराम, नागालैंड, मणिपूर का आंदोलन अपनी अस्मिता के साथ साहित्य को ढूँढने की कोशिश कर रहा है। वहाँ पर आज बोड़ो साहित्य लोकगीतों, लोककथाओं, गीतों और गाथाओं में देखने को मिलता है। कवि,कहानीकार, उपन्यासकारों ने बोड़ो साहित्य की समृद्ध परंपरा को चलाया है। हिन्दी में आदिवासी साहित्य अपनी कमजोर स्थिति में है और इस कमजोर स्थिति का कारण है कि आदिवासी स्वयं इस विमर्श के भागीदार नहीं हैं। आज हम आप यहां उनके साहित्य उनके संघर्ष और उनके भविष्य की संभावनाओं पर जिक्र कर रहे हैं। उनका स्वंय का हस्तक्षेप नहीं होने से ,जिसके भी अनेक कारण है ,वे सभी समस्याएँ अपने वास्तविक रूप में नहीं आ पाती जिनसे वो रूबरू होते हैं। हॉं महाराष्ट्र और झारखण्ड में वे सक्षम हैं, साहित्य में उनका हस्तक्षेप है। इसके अलावा वहां समय-समय पर अनेक साहित्यिक सम्मेलन भी होते रहते हैं और यही कारण है कि उन्हें विशेष पहचान भी मिली है। मगर महाराष्ट्रीय व संथाली आदिवासी साहित्य सम्मेलनों की तरह अन्य साहित्य सम्मेलनों का जिक्र खुल कर नहीं आ पाता। संथाली इस समस्या के प्रति कुछ सजग है परन्तु अन्य नहीं। इसी संदर्भ में सुनीति कुमार चटर्जी कहते हैं कि आदिवासी भाषाएं अपनी मौत मरती जाएंगी और अन्ततः समाप्त हो जाएंगी। अगर सही मायने में आदिवासी विमर्श को जवाब देना है तो इस संदर्भ में कि क्या ये भाषाएं खत्म हो जाएंगी। भाषायी सम्मान के संदर्भ में अगर शिक्षित आदिवासियों की बात की जाए तो उनमें अपने धर्म, भाषा, रहन-सहन और संस्कृति को लेकर हीनभावना है और अपनी इसी हीन मनोदशा के कारण वे भाषाई पहचान छुपाकर हिन्दी और अंग्रेजी में वार्तालाप करते हैं। वस्तुतः यह उनका पलायन है स्वयं से, अपनी पहचान से और अपनी संस्कृति से । यही कारण है कि वे मुख्यधारा की संस्कृति की ओर आकृष्ट हो रहे हैं।
आदिवासी समुदाय की एक अन्य महत्वपूर्ण समस्या है - ‘विस्थापन की समस्या’ हाल ही में हुए डोंगरिया और कांध जनजाति के संदर्भ में इसे विस्तार से समझ सकते हैं। विकास आज एक अहम मुद्दा है और इसी विकास के नाम पर आदिवासी समाज को उसी के घर से खदेडा जा रहा है। परन्तु विकास वास्तविकता में क्या है, क्या इसका मतलब वृक्षों को काटना है, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुध दोहन करना है और आदिवासियों को उजाड़ना है? क्या पर्वतमालाओं, वनक्षेत्रों, नदियों और खेतों को कंक्रीट के जंगलों में विकसित करना ही विकास है? क्या इस विकास की आड़ में एक सभ्य और प्रकृति के साहचर्य और प्रेम में पनपी संस्कृति को विस्थापित कर देना, कोई समझदारी है? आज अनेक राज्यों में ऐसी कई परियोजाएं चल रही हैं जिनमें विस्थापन के नाम पर इन संस्कृतियों को समाप्त करने की कोशिश की जा रही है। इसी के चलते कुछ स्थानों पर प्रतिरोध की संस्कृति ने जन्म लेना प्रारम्भ कर दिया है और इसी का प्रतिफल है कि ओडिशा के नियमगिरि पर्वत के आस-पास के क्षेत्र में खनन पर केन्द्र सरकार की तरफ से रोक लग चुकी है। ‘वेदान्ता ग्रुप’ की ओर से होने वाले इस खनन परियोजना पर फिलहाल काम बंद होने से उन संगठनों और आंदोलनों को थोड़ा बल मिला है जो पिछले कई वर्षाे से इसके खिलाफ प्रतिरोध कर रहे थे और संघर्ष चला रहे थे। गत वर्ष भी वहां के बहुसंख्यक आदिवासी समाज ने सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश, बॉक्साइट खनन की मंजूरी को नामंजूर कर दिया था, परन्तु ऐसा प्रतिरोध हर जगह नहीं हो रहा है। आदिवासियों की तमाम समस्याओं पर बहस जो आज आप और हम कर रहे हैं कई सालों से हो रही है, बहसें चल रही हैं, मुकदमे हो रहे हैं, मीडिया का हस्तक्षेप भी बराबर हो रहा है लेकिन इसके बरवस आदिवासियों का उजड़ना बराबर जारी है। सरकारें आती हैं, जाती हैं, उन्हें फिर से बसाने का दावा करती है, मुआवजा देती है लेकिन क्या इन वायदों से और कागजी दावों से हम इस वर्ग विशेष की संस्कृति की रक्षा कर पाए हैं? क्या हम उन्हें उन जैसा ही समृद्ध फिर से बसा पाए हैं? कुछ भी हो पर प्रतिरोध की इन घटनाओं और डोंगरिया और कांध जनजाति ने थोडा ही सही परन्तु आशान्वित किया है कि अगर एकजुट हो और जुझारूपन हो तो किसी भी जनजाति को विस्थापित करना इतना आसान नहीं।
विगत कुछ दशकों और मौजूदा समय में हिन्दी साहित्य में आई अनेक औपन्यासिक रचनाओं ने इन सभी मुद्दों को उठाने की पुरजोर कोशिश की है। इसी क्रम में इस आलेख में हम कुछ उपन्यासों की चर्चा करेंगे, क्योंकि ये उपन्यास कहीं तो हमारे पूर्वाग्रहों के पार एक नयी दृष्टि विकसित करने का प्रयास करते हैं तो कहीं कहीं ये दिकू समाज की संकीर्ण सोच को भी उजागर करते हैं और इस तरह ये आदिवासी जीवन से जुड़ी समस्याओं को देखने के नए कोँण, नयी दृष्टियॉं विकसित करते हैं। इन उपन्यासों में जिनकी चर्चा यहां आवश्यक है में पहला उपन्यास है महुआ माजी कृत ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’। यह उपन्यास आदिवासी जीवन की अनेक समस्याओं की एक साथ जांच पड़ताल करता हुआ दिखाई देता है। इस उपन्यास में उठाई गई मूल समस्या विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन की समस्या है। यूरेनियम एवं लौह खदानों में प्रदूषण की समस्या से जूझते हुए आदिवासियों का चित्रण इस उपन्यास की मूल थीम है। विकिरण की समस्या को लेकर लिखा गया यह सम्भवतः हिन्दी का प्रथम उपन्यास है। लेखिका खदानों में कार्यरत आदिवासियों पर रेडियेशन के खतरनाक नतीजों को लेकर बहुत ही बेबाकी से अपने विचार अभिव्यक्त करती है। मरंगगोड़ा वस्तुतः जमशेदपुर से कुछ दूरी पर स्थित एक कस्बा है जहां की खदानों से निकलता यूरेनियम और उसका कचरा जीवन वहां की जनजातियों के जीवन में लगातार जहर घोलता जा रहा है। वास्तविकता में यह समस्या केवल मरंगगोड़ा के आदिवासियों की ही समस्या नहीं है वरन् उन सभी जनजातियों की समस्या है, जिसे सभ्य समाज केवल अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करता है। दिकुओं द्वारा महिलाओं का आर्थिक एवं शारीरिक शोषण, शिक्षा के अभाव से जागरूकता की कमी, अंधविश्वास और दहेज प्रथा आदि ऐसी समस्याएँ हैं जिनका चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है। जनजाति आक्रोश,विद्रोह आज की विकट समस्या है। वस्तुतः जनजातियों के आक्रोश से जुड़ी ये समस्याएँ सांस्कृतिक संकट ,आर्थिक बेरोजगारी और शोषण की समस्याएँ हैं। जब कोई जनजाति इसके कारण समझने में या उचित निदान खोजने में असफल और हताश हो जाती है तो अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए विद्रोह का रास्ता अपनाती है जिसे ही हूल या उलगुलान कहा जाता है।
‘रूपतिल्ली की कथा’, ‘पठार पर कोहरा’, ‘ग्लोबल गांव के देवता’, ‘पांव तले की दूब’, ‘अग्निगर्भ’ (बांग्ला) और उड़िया उपन्यास ‘आदिभूमि’ आदिवासी जीवन के खुरदरे यथार्थ को बड़े ही बेबाकी और सजीवता से उकेरते हुए नजर आते हैं। ये उपन्यास आदिवासी जीवन सम्बन्धी अनेक पूर्वाग्रहों को एक साथ तोड़ते हैं। दिकू समाज का यह भ्रम है कि आदिवासी असभ्य, जंगली, भयानक और बर्बर होते हैं परन्तु इन उपन्यासों में यह स्थापित किया गया है कि वे बेहद भोले, मासूम और निश्छल होते हैं जो मूलतः सभ्य समाज से भयाकुल है इसीलिए वे अपने ही खोल में छिपे रहने का प्रयास करते हैं। श्री प्रकाश मिश्र के ‘रूपतिलली की कथा’ उपन्यास में ऐसे ही पूर्वाग्रहों में फंसकर मेघालय की ‘खासी’ जनजाति को बर्बर और आदमखोर जनजाति के रूप में चित्रित किया गया है। इस उपन्यास में वे आदिवासियों के अंधविश्वास व मान्यताओं पर भी कटाक्ष करते हैं। वे कहते हैं - ‘‘आदिवासी लोगों की दो कमजोर नसें हैं - अरण्यमुखी संस्कृति और उत्सवधर्मिता।’’ दिकू दृष्टि से छिद्रान्वेषण करते हुए भी वे खासी जनजाति के इतिहास को उनकी राजनीतिक सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ रेखांकित करते हैं। इसी के साथ वे मातृप्रधान खासी समाज में स्त्री की दोयम स्थिति भी रेखांकित करते हैं। श्री प्रकाश मिश्र यहां इस जनजाति के परंपरा से बंधने और खुद को न बदलने की जिद को भी ‘जयंती’ पात्र के माध्यम से स्पष्ट करते हैं - ‘परंपरा कोई नहीं बदलता, क्योंकि परंपरा ही एक कौम की पहचान बनाती है। वहीं दूसरी कौमों से अलगाती है।’
‘पठार पर कोहरा’ उपन्यास में भी राकेश कुमार सिंह कमोबेश यही सवाल फिर उठाते हैं और आदिवासी समाज के प्रति हमारी सोच को उजागर करते हैं। वे उन्हीं पूर्वाग्रहों को हवा देते हैं जो आप और हम इस समाज के प्रति पाले हुए हैं। वे स्पष्ट करते हैं, ‘‘आदिवासी समाज और संस्कृति के प्रति हमारे सुसंस्कृत समाज का रवैया मनोरंजन मात्र ही रहा है। जंगल के बाहर सदैव यह ढूंढने के प्रयास ही अधिक रहे हैं कि जनजातियों के जीवन में क्या अद्भुत है? क्या विलक्षण है वहाँ जिसका आस्वादन चटखारे लेकर किया जा सकता है? क्यों आदिवासी समाज के जीवन में इतना दैन्य है और क्यों अभाव, शोषण और उपेक्षा के पाटों में झारखंड की जनजातियॉं पिसती जा रही हैं।” (पठार पर कोहरा पृष्ठ 154) इस उपन्यास के माध्यम से वे झारखंड की मुंडा, उराव जनजातियों की कथा कहते हैं। यहां भी नागर संस्कृति लेखक पर हावी हो जाती है और लेखक इस जनजाति की दैन्यता पर विलाप करता हुआ आगे बढ़ जाता है और लेखकीय प्रतिबद्धता कहीं पीछे छूट जाती है।
रणेन्द्र ‘ग्लोबल गांव के देवता’ उपन्यास में आदिवासी समाज के बीच मानो खुद उपस्थित होते हैं। हर एक सत्य को पूर्ण प्रामणिकता के साथ उजागर करते हुए वे भी इस समाज के दैन्य पर ही ठिठक जाते हैं। वे बताते हैं कि आदिवासी अनेक मादक द्रव्यों यथा सलप, हड़िया के नशों में धुत होकर अपना जीवन जीते हैं और इस नशे में न उन्हें अपने वर्तमान की फिक्र है ना ही भविष्य की। वस्तुतः इन नशों में वे अपने सहज मुनष्य होने के अस्तित्व को ही भुला बैठतें हैं। अकर्मण्यता का जीवन जीते हुए वे मनुष्य से जानवर का अभिशप्त जीवन जीने लग जाते हैं। इस जीवन में अगर कभी चिकित्सकीय परामर्श की आवश्यकता पड़ती है तो वे काम करते हैं अंधविश्वास और टोने टोटके। यह उपन्यास भी पूर्व दो उपन्यासों की तरह ही आदिवासियों को जंगली, जाहिल और अंधविश्वासी बनाकर ही प्रस्तुत करता है।
इसी श्रृंखला में रणेन्द्र के ही ‘गायब होता देश’ में उन्होंने मुंडा समाज के वर्तमान यथार्थ को उसकी मान्यताओं से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यह उपन्यास उपन्यास झारखंड और विशेषकर राँची के आसपास के जीवन की यात्रा है। लेखक प्रस्तुत उपन्यास में बताते हैं कि मुंडा जनजाति का अतीत उतना ही समृद्ध था जितना समुद्र का असीम विस्तार। स्वार्थ से नितान्त अलग यह संस्कृति प्रकृति से उतना ही लेने में विश्वास रखती है जितनी वास्तव में इसको जरूरत है। बाकी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए संजो कर रखना इनका उसूल है। अगर आज हम केवल यह जीवन दर्शन अपना लें तो इस बढ़ती हुई भोगवादी संस्कृति पर लगाम सकती है। मानवता को विजयिनी हार पहनाने वाली इस संस्कृति को अपने नियमों से बेहद लगाव है। परंतु भू माफियाओं की गिद्ध दृष्टि में हर सम्वेदना, संस्कृति, आस्था और जीवन मूल्य बेमानी है।राँची की गायब होती बस्तियाँ वस्तुतः आदिवासी सपनों का गायब होना है। वस्तुतः यह उपन्यास मुंडा जाति के अतीत के माध्यम से वर्तमान और भविष्य को देखने का प्रयास करता है और उसके सिमटते जाने का दर्द उकेरता है।
उड़िया उपन्यासकार प्रतिभा रॉय ‘आदिभूमि’ में ओडिशा के बोंडा आदिवासी समाज की कथा कहती है। बोंडा समाज हिंसक है, धनुष बाण चलाता है और छोटी-छोटी बातें में अपने साथियों पर जहर लगे तीर चला देता है इसीलिए इसे मानुषमारू समाज की संज्ञा दी गई है। इसी के साथ इस समुदाय की अनेक सामाजिक समस्याओं यथा-छोटे वर के साथ बड़ी कन्या का विवाह, बुढ़ा गयी, सास के युवा पति ससुर से कामक्षुधा की तृप्ति, जड़ होती रूग्ण परम्पराएं और बढ़तो अपराध और अकर्मण्यता को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है। इस उपन्यास की लेखिका सोमा मृदली से सोमारा तक की सौ वर्ष की कथा कहते हुए इस समाज के अनेक चरित्रों की कथा को प्रकट करती है। महाश्वेता देवी का ‘अग्निगर्भ’ उपन्यास दिकु समाज की सहानुभूति और उसके पूर्वाग्रह को प्रकट ना कर आदिवासी संघर्ष को प्रतिध्वनि प्रदान करता है। इस उपन्यास में केवल उनकी अरण्य संस्कृति, रहन-सहन और तमाम आंचलिक तत्वों पर बल न देकर उनकी तीव्र जिजीविशा, जुझारूपन और अस्मिता बचाने की ललक को उजागर करने का प्रयास किया गया है। यद्यपि यह उपन्यास 1979 में प्रकाशित हुआ और अनूदित होकर हिन्दी में काफी बाद में आया परन्तु यहॉं इसका उल्लेख करना इसलिए अत्यावश्यक है क्योंकि यह उपन्यास उनकी संघर्ष चेतना को मुखरित करता है। बटाईदारी और अधाई जैसी घृणित प्रथाओं में आज अनेक किसान पिस रहे हैं। उत्पादन पर उनका अधिकार नहीं है। खेतीहर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नसीब नहीं होती। ऐसे में अगर वो हिंसक बन जाए तो इसमें आश्चर्य क्यों होता है। ‘अग्निगर्भ’ में सम्पूर्ण परिस्थितियां अग्निगर्भ के समान है जिनमें जलकर बसाई टूडू नामक संथाल मारा जाता है। विवशताएं और परिस्थितियां व्यक्ति के भविष्य का निर्धारण करती है अगर मनुष्य पुरजोर कोशिशों के बाद भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में असमर्थ रहता है तो उसका हिंसक होना स्वाभाविक है।
स्पष्ट है कमोबेश सभी उपन्यास आदिवासी वर्ग की दयनीय, असहाय, लाचार स्थिति को चित्रित करने के साथ-साथ मुख्यवर्ग की उनके प्रति मानसिकता को ही उजागर करने का प्रयास करते हैं परन्तु इन रचनाओं से उनका वह पक्ष सामने नहीं आ पा रहा जिनके कारण वे विशिष्ट हैं। इन रचनाओं के इतर कुछ ऐसी अनूदित रचनाएँ भी हैं जिनके माध्यम से आदिवासी शिक्षित वर्ग जागरूकता और संवेदना के साथ इस समुदाय की विशेषताओं को उकेरने का प्रयास किया है। हम उन्हें हाशिए पर धकेलते हैं परन्तु यह हाशिया मुख्यधारा से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रकृति संतुलन में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। इनकी मान्यताएं और विचारधारा इतनी बहुमूल्य है जिन्हें अगर अमल में लाया जाए तो विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं पर आसानी से काबू पाया जाता है। भोक्ता की अनुभूति और सृष्टा की अनुभूति में बहुत बड़ा अंतर होता है और यही अंतर इन उपन्यासों में भी देखने को मिलता है। आदिवासी विमर्श या आदिवासी समस्याएं और समाधान इतने प्रभावी रूप से साहित्य में अभिव्यक्त नहीं हो पाए क्योंकि यह विमर्श गैर आदिवासियों के एक वर्ग के द्वारा किया गया है और दिकू समाज ने तो हमेशा से ही आदिवासियों को छला है फिर वह संवेदना के स्तर पर हो या सहानुभूति के स्तर पर। आज हो सकता है सरकार के और हमारे आपके प्रयासों से आदिवासी समाज कुछ समय के लिए बच जाए परन्तु क्या वो हमेशा के लिए बचे रहेंगे यह जवाब देने की स्थिति में हम नहीं हैं।
संदर्भ
1. आदिवासी दुनिया दृश्री हरिराम मीणा , नेशनल बुक ट्रस्ट ,नई दिल्ली.
2. आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना- रमणिका गुप्ता,सामयिक प्रकाशन.
3. आदिवासी साहित्य विमर्श- गंगा सहाय मीणा, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
4. दलित साहित्य की विकासयात्रा- डॉ राम चंद्र , साहित्य संस्थान
5. महुआ माजी - ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’
6. आदिभूमि- प्रतिभा रॉय
7. श्री प्रकाश मिश्र - ‘रूपतिलली की कथा’
8. रणेन्द्र -‘ग्लोबल गांव के देवता’, भारतीय ज्ञानपीठ
9. रणेन्द्र - ‘गायब होता देश’-पेंगुइन बुक्स इण्डिया
10.आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी- सं. रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन,संस्करणरू2008.
11.आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना-सं.रमणिका गुप्ता, सामयिक
प्रकाशन ,संस्करणरू2013
12.आदिवासी साहित्य यात्रा- संपा. रमणिका गुप्ता, संस्क. 2008
13.सुबह के इंतजार में- हरिराम मीणा, अक्षर शिल्पी प्रकाशन,संस्करण- 2007,
1 comment:
बहुत ही सार गर्भित ,आदिवासी समाज के बारे में गहरी अंतदृष्टि से लिखा गया संग्रहणीय लेख। पसंद आया। आपका आभार ,धन्यवाद ऐसे लखन के लिए।
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