हमारी सभ्यता साहित्य पर आधारित है। हम जो कुछ हैंसाहित्य के बनाए हैं। प्रेमचन्द का यह कथन उनकी रचनात्मक सजगता और साहित्यिक दायित्व को रेखांकिंत करता है। शब्दों का शिल्पी प्रेमचंद कलम का जादूगर प्रेमचंद,उर्दू में फितरतनिगार की उपाधि से महिमामंडित, उपन्यास सम्राट प्रेमचंद, हिन्दी साहित्य का प्रारम्भकर्ता प्रेमचंद ये सभी उपमाएं मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक व्यक्तित्व के समक्ष छोटी जान पड़ती है। यों तो हिन्दी साहित्य परम्परा में अनेक शब्द शिल्पी हुए हैं परन्तु प्रेमचन्द का अंदाज एकदम निराला है। इसका कारण है प्रेमचंद जमीन से जुड़े थें। उनकी कथाओं के पात्र एक व्यापक भूमि से उठाए गए थे। जिनमें आम जनजीवन सांसे लेता है। यही कारण हे कि आम आदमी प्रेमचन्द साहित्य को पढ़ते हुए उनमें स्वयं को पाता है और यही एक कारण भी है कि प्रेमचंद आज भी प्रांसगिक है। प्रेमचंद समन्वय के पक्षधर थे फिर चाहे बात सामाजिक समन्वय की हो, सांस्कृतिक समन्वय की, भाषायी समन्वय की या आदर्श और यथार्थ के समन्वय की उनकी रचनाएँ इन सभी समन्वयों का जीवंत उदाहरण है। मानसरोवर के आठ खण्ड़ो में वर्णित कहानियों में जिंदगी की पेचीदेगियों और यंत्रणाओं को झेलता हुआ आम आदमी ही अपनी सम्पूर्ण दुर्बलताओं एवं सबलताओं के साथ दिखाई पड़ता है। ईदगाह, नशा, बूढ़ी काकी, बड़े भाई साहब,मंत्र ऐसी ही कहानियाँ है जिनमें मानव अपनी तमाम क्षुद्रताओं और वृहद् संवेदनाओं को लेकर एक साथ उद्घाटित हुआ है।
प्रेमचंद की कहानियाँ जहां एक और सामाजिक समस्याओं को उठाती है तो वहीं देश की अनेक राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं पर करारा व्यंग्य करती हुई भी दिखाई पड़ती है। चार बेटो वाली विधवा ओर शतरंज के खिलाड़ी कहानी इन्हीं विसंगतियों को अपने चरम पर उद्घाटित करती है। वस्तुतः प्रेमचंद का समूचा साहित्य एक संवेदनशील एवं जागरूक मन की उपज है वे कहते है कि “मन पर जितना गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती।” वे स्कूली शिक्षा के बजाय व्यावहारिक शिक्षा के पक्षधर थे। उनका मानना था कि अनुभवों से व्यक्ति सब कुछ अर्जित कर सकता है। यही जीवन मूल्य उन्होंने अपने पात्रों में भी उतारें है।
उनके ‘कर्मभूमि’ उपन्यास का नायक अमरकान्त इसी संदर्भ में कहता है कि “मैं अब तक व्यर्थ में शिक्षा के पीछे पड़ा रहा। स्कूल और शिक्षा से अलग रहकर भी आदमी बहुत कुछ सीख सकता हैं।” वे शिक्षा को केवल अपनी मनोभावनाओं की योग्यता को प्राप्त करने का साधन भर मानते थे। इसी के साथ वे इसे प्रगतिशीलता का वाहक भी मानते थे। परम्परा और प्रगतिवाद दो परस्पर विरोधी अवधारणाएँ रही है परन्तु प्रेमचंद के साहित्य में ये दोनों ही अवधारणाऐं स्थान पाती हैं, क्योंकि प्रेमचंद का साहित्य समय सापेक्ष रहा है। उनका 1930 से पूर्व रचा गया साहित्य आदर्शवादी साहित्य की श्रेणी में आता है। जहां वे आदर्श की बड़ा महत्व देते हुए आदर्श को साहित्य की आत्मा कहते हैं। इसीलिए इस समय के साहित्य में देश सेवा , त्याग, क्षमा, बलिदान, वीरता और उदारता की उदात्त भावनाओं पर बल दिया। परन्तु रंगभूमिउपन्यास के बाद उनका आदर्शवाद खंडित होना प्रारम्भ हो गया। गबन ,कर्मभूमि ,और गोदान उपन्यास और बासी भात खुदा का साझो, कफन और पूस की रात कहानियां इसका स्पष्ट प्रमाण है। प्रे
मचंद ने अपने अनुभव से यह भलीभांति जान लिया था कि कोरा आदर्शवाद भारत की मेहनतकश जनता की समस्याओं का हल नहीं हैं इसलिए वे स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं कि बंधुत्व और समता, सभ्यता तथा प्रेम जीवन में आरम्भ से ही आदर्शवादियों का सुनहला स्वप्न रहे है जिसे वास्तविकता में प्राप्त करना संभव नहीं है। उनके विचार और चिंतन में आया यह मोड़ कफन कहानी के माध्यम से बडे ही कलात्मक ढंग से उजागर हुआ है। जहाँ वे घीसू ओर माधो पात्रों के माध्यम से धार्मिक मान्यताओं के प्रति न केवल उदासीनता व अवज्ञा प्रकट करते है वरन् वे उनकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। इस कहानी में घीसू ओर माधो भूख के आगे बर्बर और हृदयहीन भी हो जाते है। जिसके चलते वे प्रसूति पीड़ा स्त्री की मृत्यु को भी भूल जाते है। यही वह वीभत्स दृश्य है जहां बौद्धिक मानवता की प्रगतिशीलता पर व्यंग्य कसा जाता है कि कहां है विकास और मूल्य जहां इंसान को दो जून की रोटी ओर एक कफन भी भयस्सर नहीं हो पाता। उन पर इस कहानी को लेकर अनेक आक्षेप भी लगाए गए परन्तु उनका मानना था कि काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ना मात्र नहीं है वरन् साहित्य वह है जो समाज की आम समस्याओं से स्पंदित होता हो, जुड़ाव रखता हो और हमारी विचार और भाव संबंधी आवश्यकताओं की खुराक हो। वे चीजों की तरह कला और साहित्य की भी उपयोगिता को तराजू पर तोलते थे। उनका मानना था कि साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना व मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं हैं । वह देशभक्ति और राजभक्ति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
प्रेमचंद आडम्बर व दिखावे के विरोधी थे। यही बात उन्होंने साहित्य में भाषा के प्रयोग में भी अपनायी। उनका मानना था कि साहित्य में उसी भाषा का प्रयोग सार्थक है,जिसे आम जनजीवन समझता हो इसीलिए उन्होंने अपने लेखन में हिन्दुस्तानी भाषा का समावेश किया। क्योंकि उस समय हिन्दुस्तानी भाषा सम्पर्क भाषा थी और उसका दायरा बड़ा था। वे मानते थे कि समाज की बुनियाद भाषा है और उसी भाषा का प्रयोग साहित्य में होना चाहिए जिसे कौम समझे जिसमें कौम की आत्मा हो। प्रेमचंद को साहित्य यथार्थ जीवन का सच्चा पैरोकार है। उनका साहित्य अपने युग का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है वरन् उन्होंने जीवन के ऐसे अमिट रेखा चित्र साहित्य में उकेरे है जो आज भी जीवंत है।
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