जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला, ज्वाला सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है, जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।। जीवन को लय देती ,कर्म का पाठ
पढ़ाती यह मधुशाला पहली बार सन 1935 में प्रकाशित हुई थी परन्तु आज इतने सालों बाद में
इसे जब पढ़ती हूँ तो यह आज भी एक नयी ताजगी को लेकर यह उपस्थित होती है। कवि हर अमूर्त तत्व पर मूर्त का आरोप कर उसमें
संवेदनशीलता का पुट देकर उसे नवीन भावभूमि पर स्थापित करता चलता है। मिट्टी का
तन/मस्ती का मन/क्षण भर जीवन/मेरा परिचय, बच्चन की ये पंक्तियां जीवन की नश्वरता का परिचय बहुत ही सहज रूप में दे देती
हैं । इसी प्रकार जब मधुशाला के पदों में जब बच्चन अपने स्वर माधुर्य को छलकाते
हैं तो यह केवल स्वर का ही जादू नहीं, बल्कि उसमें निहित भावों की चुम्बकीयता होती है जो पाठक के मन को
इतनी गहराई से बांध लेती है कि पाठक
संवेदना के स्तर पर एक जुड़ाव सा महसूस करता है। मेरी जिह्वा पर हो अन्तिम वस्तु न गंगाजल,
हाला/मेरे होठों पर हो अन्तिम वस्तु न तुलसी दल, प्याला। दे वे मुझ को कन्धा जिनके पग मग डग मग करते हों/और जलूँ उस ठौर
जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला। बच्चन जब मधुशाला के इन पदों को गा-गाकर सुनाते थे तो
उनके स्वर का सम्भार, इन पदों का शब्द-विन्यास ,जीवन को
सकारात्मकता से देखने का संदेश और इनमें निहित संवेदना ,एक रसायन बनकर श्रोता या
पाठक के मन को अपने जादू में बाँध लेती थी। अपनी सम्प्रेषण क्षमता के बल पर डॉ.
बच्चन ने जितना विशाल पाठक एवं श्रोता समुदाय हिन्दी जगत को उपलब्ध कराया, उसका ऐतिहासिक महत्व निर्विवाद है। जीवन के सम्पूर्ण पक्षों को अपने लेखन
में स्वर देने वाले इस लेखक का जन्म 27 नवम्बर 1907 को हुआ था। आपने प्रयाग
विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डबल्यू.
वी.यीट्स की कविताओं पर शोधकार्य़ किया। 1926 में 19 वर्ष की उम्र में आपका विवाह
श्यामा बच्चन से हुआ परन्तु 1936 में ही टी.बी के कारण उनका देहावसान हो गया। 1941
में इनका विवाह तेजी बच्चन से हुआ। इसी समय आपने नीड़ का निर्माण फिर जैसी
महत्वपूर्ण कृति की रचना की। तेजी बच्चन
से आपको अमिताभ और अजिताभ दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। बच्चन अत्यन्त भावुक
हृदय रखते थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक घात प्रतिघातों का सामना किय़ा यही कारण
है कि उनके लेखन का विकास उनके जीवन की गति के अनुरूप ही हुआ। मधुशाला का यह कवि
समाज से प्रभावित हुए भी नहीं रह सका। उभरते प्रतिमानों के प्रतिरूप में वे कहते
हैं कि युग बदलता है,समाज बदलता है,विचार बदलते हैं परन्तु सत्य नहीं बदलता यही कारण है कि उनके लेखन में प्रकट उनकी वैय़क्तिक
अनुभूतियाँ आज कालजयी हो गई है।
वर्तमान परिवेश पूर्णतः यांत्रिक हो चला है, हर तरफ
जोड़ तोड़ की गणित , व्यक्तित्वों में बुनावट और स्वार्थपरता छाई हुई है ऐसे में
कविता के प्रतीक बिम्ब और शैली भी पूर्णरूपेण बदल गए हैं और कविता मात्र शब्दों का
आडम्बर और कृत्रिम भावों का पिटारा बन कर रह गई है। वस्तुतः कविता भावों का मधुकलश
है, भावनाओं की मधुशाला है जो जड़ता में चेतनता का , पार्थिव में अपार्थिव का आरोप
करती है। हिन्दी काव्य जगत में बच्चन का काव्य इन सभी भावों को समेटे हुए काल के
तीनों सूत्रों भूत, भविष्य और वर्तमान को एक साथ लेकर चलने का सामर्थ्य रखता है। उनका काव्य आज भी प्रासंगिक
है क्योंकि यह व्यक्ति की पीड़ा को कर्म रूपी उन्माद की मस्ती में भूला दने की
प्रेरणा देता है। यह सच है कि नैराश्य जीवन के उद्दाम वेग को क्षीण कर देता है
परन्तु जीवन के संघर्ष , पीड़ा ,द्वन्द्व
ही तो वास्तविक मदिरा है जो हमें विवश होकर पीनी पड़ती है । मदिरा जितनी
कड़वी हो उसका उन्माद उतना ही अधिक होता हैं और यह उन्माद ठीक वैसा ही है जैसा
बादल के बरसने पर होता है, प्रसव के पश्चात् शिशु मुख को निहारने में होता है,
प्रेयसी के समर्पण में होता है, अनन्त पीड़ाओं के पश्चात् सुख की प्राप्ति में होता है। इस उन्माद के बिना जीवन अपूर्ण
है। यह कवि की दूरदर्शिता ही है कि कवि ने वर्तमान समय में आने वाली विसंगतियों को
पहले ही भांप लिया थी इसीलिए कवि प्रार्थना करता है कि हे साकी तू विश्वाश का
प्याला लेकर जीवन पथ पर दूर तक चला चल क्योंकि इसी यात्रा के तहत जीवन के अनेक रहस्य़
उजागर होंगे कि हर सृजन के पीछे परिवर्तन
का विद्रूप अट्टहास है, प्रणय़ के भीतर संघर्ष छिपा है तथा त्याग के पीछे स्वार्थ
बैठा है।
आज का
पाठक हरिवंश राय बच्चन को अमिताभ के पिता के और मधुशाला के लेखक के रूप में जानता
है परन्तु बच्चन का काव्य संसार जिसमें चाहे मधुशाला की बात की जाय ,मधुबाला ,मधुकलश ,मिलन
यामिनी,या प्रणय पत्रिका की वह सम्पूर्ण
मन से बोया हुआ काव्य है ,वहाँ तन , मन की एकता और तन्मयता है इसीलिए वे व्यक्ति
मन की कविताएं हैं । इन कविताओं में कवि मन नारी के
स्नेह,एकनिष्ठता,दृढ़ता,निर्भयता तथा त्याग के प्रति आत्म समर्पण के चित्र खींचता
है। इन कविताओं में प्रेम का सात्विक चित्र है जिसमें न तो छलना है न ही ऊहापोह ।
निशा निमन्त्रण और एकान्त संगीत की कविताओं में तो कवि स्वंय से साक्षात्कार करता
हुआ दीख पड़ता है। वस्तुतः बच्चन के काव्य में जीवन के व्यष्टि और समष्टि दोनों
रूप झलकते हैं सम्भवतः इसीलिए बच्चन का काव्य़ आज भी प्रासंगिक है। अगर मधुशाला की
ही बात की जाय तो कवि स्वंय मानता है कि यह एक ऐसी कृति है जो जाति के भेदभावों को
मिटाती है जहां हिन्दू और मुसलमां एक साथ बैठकर इसके घूँट पी सकते हैं। मंदिर
,मस्जिद या अन्य धर्म स्थल तो सिर्फ आपस के बैर को बढ़ाते हैं । यही कहते हुए वे
लिखते हैं..मुसलमान औ हिन्दु हैं दो/एक मगर उनका प्याला/एक मगर उनका मदिरालय/एक
मगर उनकी हाला/ बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद / मेल कराती मधुशाला ....मधुशाला जीवन के रस की शाला है जो यह पाठ
पढ़ाती है कि जीवन का रस मधु ही नहीं कटु भी होता है और इस का अनुभन भावाकुल मन ही
कर सकता है। मधुशाला में यही भावनात्मक मदिरा विद्यमान है। बच्चन की यह हाला
सांसारिकक हाला से नितान्त अलग है। यह जगत की शीतल हाला नही वरन् जीवन के जलते हुए
प्याले में ज्वाला की हाला है। बच्चन की मधुशाला प्रेम, मस्ती और आनन्द
से ओतप्रोत है। हालावाद की इस
विलक्षण प्रवृति के अतिरिक्त उनके काव्य में आध्यात्मिकता की झलक भी स्थान-स्थान
पर दिखती है । कहीं यह कर्मवाद के समर्थन में उतरती हुई दिखाई जान पड़ती है तो कई
नियतिवाद व भाग्यवाद से गहरे तक करती हुई दिख पड़ती है। मधुशाला किसी विलासी व्यक्ति
का आलाप नहीं वरन् उसमें युगों से दबी हुई परन्तु अपराजित मानवता की ही शाब्दिक
अभिव्यक्ति हुई है। मधुशाला वस्तुतः जीवन के पुनरावलोकन की प्रक्रिया है। मधुमास
में जब प्रकृति हंस रही होती है तो उसमें कुछ पत्तों का टूटना छिपा होता है इसी
प्रकार वर्षाकाल मे भी कुछ स्थान ऐसे भी छूट जाते है जहाँ मेघ नही बरसते ठीक इसी
प्रकार हास परिहास के अवगुण्ठन में भी वेदना छिपी रहती है। जो इस वेदना को भूला
जीवन की हाला को पीकर मदमस्त होता रहता है वही इस जीवन के जटिल पथ का धीर पथिक
कहला पाने का अधिकारी होता है। यह विश्रांत पथिक अध्यात्म की छांह में ही एक सुरूर
एक ठहराव की प्राप्ति करता है। यह हाला चेतना की हाला है जिसकी आज इस नैराश्य
प्रधान जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है। यह तो उस संजीवनी बूटी की तरह है जिसका सेवन
कर सुषुप्त जीवन माधुर्य जाग उठता है। यह मधुशाला निःसन्देह पाठकों के हृदय का कंठहार
है। यह खुमारी, इश्क मिजाजी, जीवन का सार तत्व, निगूढ रहस्य यह सब एक साथ अन्यत्र मिलना दुर्लभ हैं ।
यह मधुशाला निःसन्देह इस युग की गीता है। जो जिजीवीषा से भरपूर है, रस से सराबोर
है अतः क्षणिक जीवन में भी मस्ती का आनन्द सिर्फ ओर सिर्फ मधुशाला ही दे सकती है ।
आज का मानव जीवन की इस भूल भूलैया में अपना कर्म मार्ग भूल गया है। मधुशाला ही उसे
सही पथ दिखलाती हुई कहती है-
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला,
किस पथ से जाऊँ असमेजस में है वह भोला भाला
अलग अलग पथ बतलाते सब ,पर मैं यह बतलाता हूँ
राह पकड़ तू एक चलाचल पा जाएगा मधुशाला....
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