Tuesday, November 26, 2013

काल से होड़ लेती मधुशाला

             


जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला, ज्वाला सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है, जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।। जीवन को लय देती ,कर्म का पाठ पढ़ाती यह मधुशाला पहली बार सन 1935 में प्रकाशित हुई थी परन्तु आज इतने सालों बाद में इसे जब पढ़ती हूँ तो यह आज भी एक नयी ताजगी को लेकर यह उपस्थित होती है।  कवि हर अमूर्त तत्व पर मूर्त का आरोप कर उसमें संवेदनशीलता का पुट देकर उसे नवीन भावभूमि पर स्थापित करता चलता है। मिट्टी का तन/मस्ती का मन/क्षण भर जीवन/मेरा परिचय, बच्चन की ये पंक्तियां जीवन की नश्वरता का परिचय बहुत ही सहज रूप में दे देती हैं । इसी प्रकार जब मधुशाला के पदों में जब बच्चन अपने स्वर माधुर्य को छलकाते हैं तो यह केवल स्वर का ही जादू नहीं, बल्कि उसमें निहित  भावों की चुम्बकीयता होती है जो पाठक के मन को इतनी गहराई से बांध लेती है  कि पाठक संवेदना के स्तर पर एक जुड़ाव सा महसूस करता है।  मेरी जिह्वा पर हो अन्तिम वस्तु न गंगाजल, हाला/मेरे होठों पर हो अन्तिम वस्तु न तुलसी दल, प्याला। दे वे मुझ को कन्धा जिनके पग मग डग मग करते हों/और जलूँ उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला। बच्चन जब मधुशाला के इन पदों को गा-गाकर सुनाते थे तो उनके स्वर का सम्भार, इन पदों का शब्द-विन्यास ,जीवन को सकारात्मकता से देखने का संदेश और इनमें निहित संवेदना ,एक रसायन बनकर श्रोता या पाठक के मन को अपने जादू में बाँध लेती थी। अपनी सम्प्रेषण क्षमता के बल पर डॉ. बच्चन ने जितना विशाल पाठक एवं श्रोता समुदाय हिन्दी जगत को उपलब्ध कराया, उसका ऐतिहासिक महत्व निर्विवाद है। जीवन के सम्पूर्ण पक्षों को अपने लेखन में स्वर देने वाले इस लेखक का जन्म 27 नवम्बर 1907 को हुआ था। आपने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से  अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डबल्यू. वी.यीट्स की कविताओं पर शोधकार्य़ किया। 1926 में 19 वर्ष की उम्र में आपका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ परन्तु 1936 में ही टी.बी के कारण उनका देहावसान हो गया। 1941 में इनका विवाह तेजी बच्चन से हुआ। इसी समय आपने नीड़ का निर्माण फिर जैसी महत्वपूर्ण  कृति की रचना की। तेजी बच्चन से आपको अमिताभ और अजिताभ दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। बच्चन अत्यन्त भावुक हृदय रखते थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक घात प्रतिघातों का सामना किय़ा यही कारण है कि उनके लेखन का विकास उनके जीवन की गति के अनुरूप ही हुआ। मधुशाला का यह कवि समाज से प्रभावित हुए भी नहीं रह सका। उभरते प्रतिमानों के प्रतिरूप में वे कहते हैं कि युग बदलता है,समाज बदलता है,विचार बदलते हैं परन्तु सत्य नहीं बदलता  यही कारण है कि उनके लेखन में प्रकट उनकी वैय़क्तिक अनुभूतियाँ आज कालजयी हो गई है।
 वर्तमान परिवेश पूर्णतः यांत्रिक हो चला है, हर तरफ जोड़ तोड़ की गणित , व्यक्तित्वों में बुनावट और स्वार्थपरता छाई हुई है ऐसे में कविता के प्रतीक बिम्ब और शैली भी पूर्णरूपेण बदल गए हैं और कविता मात्र शब्दों का आडम्बर और कृत्रिम भावों का पिटारा बन कर रह गई है। वस्तुतः कविता भावों का मधुकलश है, भावनाओं की मधुशाला है जो जड़ता में चेतनता का , पार्थिव में अपार्थिव का आरोप करती है। हिन्दी काव्य जगत में बच्चन का काव्य इन सभी भावों को समेटे हुए काल के तीनों सूत्रों भूत, भविष्य और वर्तमान को एक साथ लेकर चलने का  सामर्थ्य रखता है। उनका काव्य आज भी प्रासंगिक है क्योंकि यह व्यक्ति की पीड़ा को कर्म रूपी उन्माद की मस्ती में भूला दने की प्रेरणा देता है। यह सच है कि नैराश्य जीवन के उद्दाम वेग को क्षीण कर देता है परन्तु जीवन के संघर्ष , पीड़ा ,द्वन्द्व  ही तो वास्तविक मदिरा है जो हमें विवश होकर पीनी पड़ती है । मदिरा जितनी कड़वी हो उसका उन्माद उतना ही अधिक होता हैं और यह उन्माद ठीक वैसा ही है जैसा बादल के बरसने पर होता है, प्रसव के पश्चात् शिशु मुख को निहारने में होता है, प्रेयसी के समर्पण में होता है, अनन्त पीड़ाओं के पश्चात् सुख की प्राप्ति में होता है। इस उन्माद के बिना जीवन अपूर्ण है। यह कवि की दूरदर्शिता ही है कि कवि ने वर्तमान समय में आने वाली विसंगतियों को पहले ही भांप लिया थी इसीलिए कवि प्रार्थना करता है कि हे साकी तू विश्वाश का प्याला लेकर जीवन पथ पर दूर तक चला चल क्योंकि इसी यात्रा के तहत जीवन के अनेक रहस्य़ उजागर होंगे कि  हर सृजन के पीछे परिवर्तन का विद्रूप अट्टहास है, प्रणय़ के भीतर संघर्ष छिपा है तथा त्याग के पीछे स्वार्थ बैठा है।
आज का पाठक हरिवंश राय बच्चन को अमिताभ के पिता के और मधुशाला के लेखक के रूप में जानता है परन्तु बच्चन का काव्य संसार जिसमें चाहे मधुशाला की बात की जाय ,मधुबाला ,मधुकलश ,मिलन यामिनी,या प्रणय पत्रिका  की वह सम्पूर्ण मन से बोया हुआ काव्य है ,वहाँ तन , मन की एकता और तन्मयता है इसीलिए वे व्यक्ति मन की कविताएं हैं । इन कविताओं में कवि मन नारी के स्नेह,एकनिष्ठता,दृढ़ता,निर्भयता तथा त्याग के प्रति आत्म समर्पण के चित्र खींचता है। इन कविताओं में प्रेम का सात्विक चित्र है जिसमें न तो छलना है न ही ऊहापोह । निशा निमन्त्रण और एकान्त संगीत की कविताओं में तो कवि स्वंय से साक्षात्कार करता हुआ दीख पड़ता है। वस्तुतः बच्चन के काव्य में जीवन के व्यष्टि और समष्टि दोनों रूप झलकते हैं सम्भवतः इसीलिए बच्चन का काव्य़ आज भी प्रासंगिक है। अगर मधुशाला की ही बात की जाय तो कवि स्वंय मानता है कि यह एक ऐसी कृति है जो जाति के भेदभावों को मिटाती है जहां हिन्दू और मुसलमां एक साथ बैठकर इसके घूँट पी सकते हैं। मंदिर ,मस्जिद या अन्य धर्म स्थल तो सिर्फ आपस के बैर को बढ़ाते हैं । यही कहते हुए वे लिखते हैं..मुसलमान औ हिन्दु हैं दो/एक मगर उनका प्याला/एक मगर उनका मदिरालय/एक मगर उनकी हाला/ बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद / मेल कराती मधुशाला ....मधुशाला जीवन के रस की शाला है जो यह पाठ पढ़ाती है कि जीवन का रस मधु ही नहीं कटु भी होता है और इस का अनुभन भावाकुल मन ही कर सकता है। मधुशाला में यही भावनात्मक मदिरा विद्यमान है। बच्चन की यह हाला सांसारिकक हाला से नितान्त अलग है। यह जगत की शीतल हाला नही वरन् जीवन के जलते हुए प्याले में ज्वाला की हाला है। बच्चन की मधुशाला प्रेम, मस्ती और आनन्द से ओतप्रोत हैहालावाद की इस विलक्षण प्रवृति के अतिरिक्त उनके काव्य में आध्यात्मिकता की झलक भी स्थान-स्थान पर दिखती है । कहीं यह कर्मवाद के समर्थन में उतरती हुई दिखाई जान पड़ती है तो कई नियतिवाद व भाग्यवाद से गहरे तक करती हुई दिख पड़ती है। मधुशाला किसी विलासी व्यक्ति का आलाप नहीं वरन् उसमें युगों से दबी हुई परन्तु अपराजित मानवता की ही शाब्दिक अभिव्यक्ति हुई है। मधुशाला वस्तुतः जीवन के पुनरावलोकन की प्रक्रिया है। मधुमास में जब प्रकृति हंस रही होती है तो उसमें कुछ पत्तों का टूटना छिपा होता है इसी प्रकार वर्षाकाल मे भी कुछ स्थान ऐसे भी छूट जाते है जहाँ मेघ नही बरसते ठीक इसी प्रकार हास परिहास के अवगुण्ठन में भी वेदना छिपी रहती है। जो इस वेदना को भूला जीवन की हाला को पीकर मदमस्त होता रहता है वही इस जीवन के जटिल पथ का धीर पथिक कहला पाने का अधिकारी होता है। यह विश्रांत पथिक अध्यात्म की छांह में ही एक सुरूर एक ठहराव की प्राप्ति करता है। यह हाला चेतना की हाला है जिसकी आज इस नैराश्य प्रधान जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है। यह तो उस संजीवनी बूटी की तरह है जिसका सेवन कर सुषुप्त जीवन माधुर्य जाग उठता है। यह मधुशाला निःसन्देह पाठकों के हृदय का कंठहार है। यह खुमारी, इश्क मिजाजी, जीवन का सार तत्व, निगूढ रहस्य यह सब एक साथ अन्यत्र मिलना दुर्लभ हैं । यह मधुशाला निःसन्देह इस युग की गीता है। जो जिजीवीषा से भरपूर है, रस से सराबोर है अतः क्षणिक जीवन में भी मस्ती का आनन्द सिर्फ ओर सिर्फ मधुशाला ही दे सकती है । आज का मानव जीवन की इस भूल भूलैया में अपना कर्म मार्ग भूल गया है। मधुशाला ही उसे सही पथ दिखलाती हुई कहती है-
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला,
किस पथ से जाऊँ असमेजस में है वह भोला भाला
अलग अलग पथ बतलाते सब ,पर मैं यह बतलाता हूँ
राह पकड़ तू एक चलाचल पा जाएगा मधुशाला....



Wednesday, November 20, 2013

कहाँ और कैसे खो गई वो परी कथाएँ


एल्बर्ट आइन्सटाइन का कथन है अगर आप अपने बच्चे को  बुद्धिमान बनाना चाहते है तो उन्हें परी कथाएँ पढ़ाएं और अगर आप उन्हें और अधिक बुद्धिमान बनाना चाहते हैं तो और अधिक परी कथाएँ पढ़ाएं।“  निः सन्देह आइन्सटाइन ने यह कथन बच्चों में सृजनात्मकता उत्पन्न करने के लिए ही कहा होगा लेकिन आज तकनीक और आधुनिकता के इस हाइटैक दौर में परीलोक की इन कथाओं का वजूद समाप्त हो रहा है। इन्टरनेट, मोबाइल व सिनेमा के युग में बचपन निरन्तर खोता जा रहा है। हम पंचतंत्र एवं सिंहासन बत्तीसी व दादी नानी से परियों की जिन कहानियों को पढ़कर बड़े हुए हैं वे आज के बचपन के लिँए आउटडेटेड हो चुकी हैं। आज विज्ञान का युग है, विकास का युग है, प्रतिस्पर्धा का युग है, और इसी  यांत्रिक युग ने बच्चों से उनकी मासूमियत भी छीन ली है। एक बेपरवाह और उन्मुक्त बचपन आज अति जागरूक अभिभावकों की अपेक्षाओं के भेंट चढ़ गया है। आधुनिक गैजेटनुमा अस्त्रों ने बच्चों को साहित्य़ रूपी पारस से पूर्ण रूपेण वंचित कर दिया है। वर्तमान में बचपन रूपी इस पौधे के विकास के लिए सृजनात्मकता की परम आवश्यकता है और यह तभी संभव है जब बच्चों को साहित्य के माध्यम से कल्पना की खाद दी जाए। बाल साहित्य प्राचीन समय से लेकर अब तक अनवरत लिखा जा रहा हे l हम स्वंय चाचा चौधरी ,नागराज ,पराग ,नंदन आदि  पत्रिकाएँ पढ़ते –पढ़ते बड़े हुए हैं। आज की बात की जाए तो वर्तमान बाल साहित्य और प्राचीन बाल साहित्य में अंतर मात्र इतना है कि राजा - रानी, परी – कथाओं,देव-दानवों आदि की जगह अब   आधुनिक  मशीनों, कारों, हेलीकोप्टर,चिम्पू , चीकू , गोर्की ,लालू  आदि पात्रों ने ले ली हे l  इसी परिप्रेक्ष्य़ में अगर हिन्दी में  बाल साहित्य पर नजर डाली जाए तो यह सर्वथा उपेक्षित सा नजर आता है। इस क्षेत्र में जो उल्लेखनीय साहित्य उपलब्ध है वह मूलतः अनूदित साहित्य ही है। यद्यपि हिन्दी में बाल साहित्य़ लिखा जा रहा है परन्तु वह अभी भी  शिशुवत् ही है । वह अभी  भी प्रकृति, तितली,पर्वत,झरना या ऐतिहासिक चरित्रों पर ही लिखा जा रहा है और इस स्तर पर वह आज के बच्चों के दिमागी स्तर से मेल नहीं खाता । आज का बचपन 21 वीं सदी में जी रहा है जिसका जीवन इंटरनेट के एप्स के इर्द गिर्द घूमता है। वह संवेदनशील है परन्तु स्वंय़ को किसी सुपरहीरो से कम नहीं आंकता है। उसका कल्पना जगत पूर्णतः वैज्ञानिक है अतः उसे कोरी तुक बन्दी या शब्दों के हेरफेर में नहीं उलझाया जा सकता। ऐसे में दरकार है ऐसे साहित्य की जिसमे फैंटेसी तो हो लेकिन वह समय की चाक पर घूमता हुआ हो, काल से होड़ से लेता हुआ हो और आधुनिक बच्चों की रूचि के अनुकूल हो। वर्तमान में आवश्यकता है  साहित्य की एक ऐसी जमीन तैयार करने की जो कि ज्ञानवर्धक होने के साथ ही बच्चों के कोमल मन पर सकारात्मक प्रभाव भी डाले।
य़द्यपि विगत दशकों में इस क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय कृतियों की रचना हुई है परन्तु वे संख्या की दृष्टि से कम ही हैं। इनमें कुछ रचनाएं यथा प्रेमचंद की कुत्ते की कहानी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की' बतूता का जूता',कमलेश्वर के बाल नाटक, रमेश थानवी की घड़ियों की हड़ताल  श्रेष्ठतम है। इन्ही के साथ हरिकृष्‍ण देवसरे, राजेन्द्र यादव,मन्नू भण्डारी,रमेश चन्द्र शाह राजेश जोशी तथा ओमप्रकाश कश्‍यप ने भी इस क्षेत्र में लिखा है परन्तु हिन्दी का यह लेखन बच्चों में हैरी पॉटर,शेरलेक होम्स या टिन टिन जैसी दीवानगी नहीं उत्पन्न करता। इसी क्रम में अगर पत्रिकाओं की बात की जाए तो चंदामामा, किलकारी, बाल कविता, नंदन , चंपक आदि ने भी इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है परन्तु फिर भी आज यह साहित्य हाशिए पर है। वस्तुतःआज के बाल साहित्य की जो स्थितियाँ है उसके जिम्मेदार आज के लेखक ही हैं जो बाल मनोविज्ञान व परिवेश को दरकिनार कर सिर्फ कागज भरने के लिए लिख रहे हैं। वस्तुतः न उन्हें  बच्चों से कोई  सरोकार है, ना उनकी भावनाओं से,ना ही साहित्य से और ना ही आज के समय से।

      वर्तमान में बच्चों के मस्तिष्क का विकास कम्प्यूटर की गति से हो रहा है। वे सिर्फ कथा सुनते या पढ़ते नहीं हैं, बल्कि अपनी तर्कशील दृष्टि से उस कहानी के परिवेश, पात्र और घटनाओं की गहन जाँच पड़ताल भी  करते चलते हैं। वे जिज्ञासु हैं। उन्हें मालूम है कि इस सृष्टि में कहीं पर भी परीलोक  जैसा स्थान नहीं हैं, उन्हें यह भी ज्ञात है कि जादू जैसी कोई चीज होती ही नहीं है ,यह केवल कल्पना मात्र है। वे सिर्फ विज्ञान  की शक्ति व यथार्थ को जानते हैं। उन्हें अब वे कहानियाँ रास नहीं रातीं, जिनकी पात्र परियाँ होती हैं ,जिनके पात्र महज आदर्श होते हैं और जहाँ जादू की छड़ी से बड़े से बड़े काम चुटकी बजाते सम्पन्न हो जाते हैं। उन्हें वे ही कहानियाँ विश्वसनीय लगती हैं, जिनके पात्र उनकी ही तरह दैनिक जीवन के दबावों को झेल रहे हैं,कभी जीत रहे हैं तो कभी हार रहे हैं। इसी के साथ परिवेश भी उन्हें सही गलत का ज्ञान कराये बिना बहुत कुछ सिखा रहा है। यही कारण है कि बच्चों और उनके लेखकों में एक पीढ़ी का अंतर आ जाता है। वस्तुतः आज के लेखक उन्हीं अनुभूतियों और स्मृतियों को ही साहित्य में गढ़ रहे हैं जो उन्होंने स्वंय अपने बचपन में जी हैं और जिस परिवेश में वे पले बढे हैं।  हमारे नन्हें इस साहित्य से दूर हैं क्योंकि वह उनकी समझ  से मेल नहीं खाता और शायद इसीलिए वे इसे वे पिछड़ा करार कर देते हैं। हमारी नन्हीं पौध टी.वी. व सिनेमा में अपना अधिकांश समय व्यतीत कर रही है जो कि उनका एक उपभोक्ता की तरह प्रयोग कर रहे हैं। ये माध्यम आधुनिकता के नाम पर उन्हें एडल्ट कंटेन्ट परोस रहे हैं, जिससे उनमें संवादहीनता की स्थिति आ रही है, उनकी सृजनात्मक एवं कल्पनात्मक शक्ति का ह्रास हो रहा है और वे असमय ही वयस्क हो  रहे हैं । वस्तुतः बच्चा जब किताब पढ़ रहा होता है तो वह  उन शब्द बिम्बों के अनुरूप एक कल्पना लोक का निर्माण करता है , यह प्रक्रिया उसे कल्पनाशील बनाती हैं।  टी.वी. कल्पना के इस अवसर को भी उनसे छीन लेता है और इस प्रकार अधिगम के अवसर कम हो जाते हैं।


बच्चों के लिए लिखना आसान नहीं है। इस के लिए लेखक को उस दुनिया में प्रवेश करना होता है जहाँ आज का बचपन जी रहा हो। आज का बचपन इस य़ांत्रिक संसार में अकेला है इसलिए वह अपने साथ डोरेमोन, नोबिता जैसा दोस्त चाहता है, उसके अपने संघर्ष है इसलिए वह पावर रेंजर्स, ट्रांसर्फामर्स या भीम जैसा शक्तिशाली बनना चाहता है ,वह शिन शैन जैसा शरारती है और इसी के ही साथ वह एक निश्छल चंचल मन रखता है इसीलिए टॉम एंड जैरी को वह अपने करीब पाता है। वर्तमान हिन्दी बाल साहित्य ऐसे रोचक चरित्रों को गढ़ने की दृष्टि से  बहुत पीछे है। उसे अपनी नयी सोच एवं दिशाओं से इस आधुनिक बालमन का सहचर बनना होगा। अतः अब दरकार है ऐसे बाल साहित्य की जिसमें फैंटेसी हो, परीकथाएँ हों..जरुऱ हों पर यथार्थ के धरातल पर उतरती हुई, वे ऐसी हों जो कि इस आधुनिक बालमन से, उसके वास्तविक जीवन से साम्य रखती हों, जो उसके जीवन की समस्याओं और सम्वेदनाओं से जुड़ाव रखती हों । यह साहित्य आधुनिक समय और जीवन शैली के अनुसार उनके तर्कों को शांत करने वाला हो ,उनकी कल्पनाओं में सतरंगी रंग भरने वाला हो, उनमें मानवीय दृष्टिकोण पैदा करने वाला हो , उनकी कोमल भावनाओं को सींचने वाला हो और इन सबसे ऊपर वह नैतिक मूल्यों का विकास करने वाला हो। 

Wednesday, March 20, 2013


ख्वाबों को भेजा है निमंत्रण ,कुछ पल आकर बहला दें,

सूर्य किरण आने से पहले ,सौम्य चन्द्र राशि बिखरा दें ..





कोई तो बात है ऐसी जो जुबां पर आना चाहती है,
क्या है वो शायद यही फिजा भी जानना चाहती है...
दुआ कि शक्ल दूँ या कोई अरमान इसे बना दूँ,
बयान कैसे करूँ यही जानना चाहता है अब ये मन..






जीवन की परिभाषा क्या है,
कुछ पल साझा फिर जाना है..
हंसकर गुजरे वो अच्छा है,
यूहीं जीकर वरना क्या पाना है...

Tuesday, March 19, 2013

 साहित्य की थाती राजस्थानी भाषा 
म्हारो मरुधर देश अर्थात राजस्थान शताब्दियों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए है .अरावली  पर्वतमाला और विषम स्थलाकृति ने इस प्रदेश की 5000 वर्ष  पुरानी सभ्यता और संस्कृति को एक धरोहर की भांति संभाल कर रखा है .यहाँ  के लोग ,लोक भाषा ,संस्कृति, लोक नृत्य ,लोक चित्रकला सभी में सजीवता ,माधुर्यता  एवं अपनेपन के दर्शन होते है .राजस्थानी भाषा जिसके लिए कहा गया है कि यह हर चार कोस पर बदल जाती है परन्तु इस वैविध्य में भी एक अनूठे ऐक्य के दर्शन इस भाषा में होते हैं।धोरो की इस पावन धरती की भाषा राजस्थानी ने केंद्र सरकार को भी इसे विशिष्ट दर्जा प्रदान करने को बाध्य केर दिया है .यहाँ कन्हैयालाल जी  सेठिया ,केसरी सिंह जी  बारहठ ,सूर्यमल्ल जी  मिश्रण ,विजयदान जी  देथा, श्री नन्द भारद्वाज तथा श्री चन्द्र प्रकाश देवल जैसे अतिविशिष्ट  साहित्यकार हुए है जिन्होंने अपनी रचनाओं से राजस्थानी भाषा को सम्रद्ध किया है .यह धरती वीरोचित भावनाओं से सम्रद्ध धरती है ,यह धरती है ढोल मारू के माधुर्य पूर्ण प्रेम की धरती इसीलिए यहाँ का जनमात्र कण कण सूं गूंजे जय जय राजस्थान का स्वर उच्चारित करता है l लहरिया की ही भांति राजस्थानी भाषा विविध गुणों एवं रंगों को अपने विस्तृत कलेवर में समेटे हुए है l यहाँ की भाषा का आकर्षण ही है कि केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश आज राष्ट्रीय ही नहीं वरन अंतर्राष्ट्रीय फलक पर छाया हुआ है .यहाँ की भाषा में वो शक्ति है जो मृत्यु को भी एक उत्सव की तरह मानने को बाध्य करती है .यहाँ माताएँ  बचपन से ही अपनी संतानों को "ईला न देणी आपणी हालरिया हुलरायै " जैसे गीत लोरी की तरह सुनाती हे ,तथा राष्ट्र को श्रेस्ठ पुत्र रत्न प्रदान करती है, निः संदेह यह यहाँ की भाषा की महानता का ही प्रमाण है।भारतीय  संस्कृति की  अनेक सात्विक विशेषताओं को राजस्थानी  भाषा अपनी कुक्षि में संजोये हुए है .वर्तमान में ज़रूरत है इस मायड़ भाषा के सुचारू प्रचार की जिससे पर्यटन के नवीन अवसर राजस्थान को प्राप्त हो।राजस्थान अपनी अनूठी विशेषताओं के कारण पर्यटन के सर्वोतम अवसर भारत को प्रदान करता है परन्तु इसमें अभी भी अपार सम्भावनाए  छिपी  हुई है जिन्हें खोजने में राजस्थानी  भाषा एक महत्वपूर्ण माध्यम साबित हो सकती है .

Sunday, March 17, 2013

गुलमोहर के फूल.....


गुलमोहर के फूल.....


सांझी आशाएँ और विश्वास लिए,


बसंत आगमन का संकेत लिए,


आने को आतुर हैं,आँचल में,


ये कोमल गुलमोहर के फूल .......


.....पर ..कैसे इनका स्वागत करूँ?


जीवन सफ़र में कड़ी धूप है ,


पर होंसला बढ़ाने की आस हैं,


ये कोमल गुलमोहर के फूल,


पर प्रश्न फिर भी यक्ष हैं,


कि... कैसे !!इनका स्वागत करूँ?


लौट आयें हैं सगुन पंछी,


कौंपलें भी हैं फूटने को आतुर ,


मिल रहें हैं अब संकेत कई,


पल पल है एहसास नए,


...पर ..कैसे !!इनका स्वागत करूँ?


नवीन अनुभव लिए है हर दिन,


जीवन तिक्तता भी है कुम्लाही सी,


अब इस स्नेहिल छावं तले,


पर प्रश्न फिर भी अहं है,


कि, कैसे !!मैं इनका स्वागत करूँ???


जीवन संध्या है निकट खड़ी,


अनुभवों को संजोये कई,


विमल एहसास है मगर यही,


ये कोमल गुलमोहर के फूल,


पर प्रश्न फिर भी है आज वही,


कि ,कैसे!! मैं इनका स्वागत करूँ ??